28 मई- वीर सावरकर जयंती पर विशेष

साभार-धर्मपाल सिंह: वीर विनायक दामोदर सावरकर का जन्म 28 मई, 1883 को महाराष्ट्र के नासिक जिला स्थित भागुर गांव में हुआ था। विरोधी सावरकर को हिन्दू राष्टÑवाद के प्रणेता के रूप में प्रचारित करते हैं लेकिन सावरकार सचमुच सांस्कृतिक राष्टÑवाद के व्याख्याकार थे। उनकी माता का नाम राधा बाई सावरकर और पिता दामोदर पंत सावरकर था। सावरकर महान चिंतक, लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी व्यक्तित्व के धनी थे। उनके पास राजनीति की जबरदस्त समझ थी। वे बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के धनी थे। दावा किया जाता है कि गीता के श्लोक उन्हें बचपन में ही कंठस्थ हो गया था।

सचमुच का भरण-पोषण उनके बड़े भाई ने ही उनका किया क्योंकि पिता बचपन में ही चल बसे थे। उनका पूरा नाम विनायक दामोदर सावरकर था। ब्रिटिश भारत की पहली गुप्त सोसाइटी अगर किसी ने बनाई तो वह सावरकर ने बनाई और उसका नाम उन्होंने ‘मित्रमेला’ रखी। वही संगठन बाद में अभिनव भारत के नाम से विख्यात हुआ। बाद में यह संगठन पूरे भाारत में लोकप्रिय हो गया और इसके साथ बड़ी संख्या में चुवा जुटने लगे। कुछ ही दिनों में यह भारतीय क्रांतिकारियों का बड़ा प्रयाय बन गया। सच पूछिए तो भारत में स्वदेशी आन्दोलन की नीब साबरकर जी ने ही रखी। देश में स्वदेशी का पहला आह्वान उन्होंने किया। धीरे-धीरे सावरकर ने पूना के जनसमाज में अपना स्थान बना लिया था। आचार्य काका कालेलकर जैसे व्यक्ति भी उनकी सराहना करते थे। सावरकर और उनके साथियों ने स्वदेशी का प्रचार और बंगाल विभाजन का बहिष्कार करना आरम्भ कर दिया था। तिलक ने बंगाल के विभाजन का अखिल भारतीय स्तर पर विरोध किया और स्थानीय स्तर पर उस आन्दोलन को सावरकर ने हवा दी।

अक्टूबर 1905 को पूना की विशाल जन सभा में सावरकर ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की घोषणा की थी। बाद में उसी स्वदेशी आन्दोलन को महात्मा गांधी ने अपनाया। हालांकि स्वदेशी आन्दोलन को दिशा देने में लाला लाजपत राय की भी बड़ी भूमिका थी लेकिन सावरकर जी ने उसे राष्ट्र, संस्कृति और अपने पारंपरिक स्वावलंबन व स्वरोजगार के साथ जोड़ा। अपने भाषण में सावरकर जी ने कहा था कि विद्यार्थी दशहरे के दिन विदेशी वस्त्रों और अन्याय विदेशी वस्तुओं की होली जलायेंगे। केलकर और परांजपे ने सावरकर के आन्दोलन का उसी सभा में जोरदार शब्दों में समर्थन किया था। इस प्रकार 7 अक्टूबर को गाड़ियों में भर-भरकर विदेशी वस्तुएँ एवं कपड़े एक स्थान पर लाये गये और सर्व प्रथम पुने में उसकी होली जलाई गयी।

फर्गुसन कॉलेज से स्नातक तक कि पढ़ाई पूरी करने के बाद 1906 में सावरकर बाल गंगाधर तिलक के प्रयास श्यामजी कृष्ण वमा र्छात्रवृत्ति मिली और वे कानून की पढ़ाई करने लंदन चले गए। वहां हिंदुस्तानी छात्रों में राष्ट्रवाद की अलख जगाकर 1906 में सावरकर ने 1857 का स्वतंत्रता समर पुस्तक लिख ने का संकल्प लिया। 10 मई 1907 को इस संग्राम की लंदन के इंडिया हाउस में 50वीं वर्षगांठ मनाने का निश्चय किया गया। इस हेतु सावरकर ने फ्री इंडिया सोसायटी के नेतृत्व में एक भव्य आयोजन की रूपरेखा बनाई। फिरंगी हुकूमत को जब इसकी भनक लगी तो उसने इस आयोजन पर अंकुश लगाने का हरसंभव प्रयास किया, किंतु सावरकर के चातुर्य के सामने फिरंगियों की एक न चली। उस दिन सावरकर ने इसे तार्किक रूप में सैन्य विद्रोह अथवा गदर के रूप में खारिज किया और अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम का पहला सशस्त्र युद्ध घोषित किया। इस पहली लड़ाई को संग्राम का दर्जा दिलाने में सावरकर कामयाब रहे। यही नहीं एक महत्वपूर्ण बात वीर सावरकर पहले ऐसे भारतीय विद्यार्थी थे जिन्होंने इंग्लैंड के राजा के प्रतिवफादारी की शपथ लेने से मना कर दिया था। फलस्वरूप उन्हें वकालत करने से रोक दिया गया। ऐसा इस देश में पहली बार हुआ था।

वर्ष 1909 में सावरकार के सहयोगी मदन लाल धिंगरा ने वायसराय, लार्ड कर्जन पर असफल हत्या का प्रयास किया। इसके बाद सर विएली को गोली मार दी। उसी दौरान नासिक के तत्कालीन ब्रिटिश कलेक्टर ए.एम.टी जैक्सन की भी गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी। इन हत्याओं के बाद सावरकर पूरी तरह ब्रिटिश सरकार के चंगुल में फंस गए। उनके उपर भयंकर पहरा बिठा दिया गया। लन्दन में रहते हुए उनकी मुलाकात गदर पार्टी के संस्थापकों में से एक लाला हरदयाल से हुई जो उन दिनों इण्डिया हाउस की देख रेख करते थे। 1जुलाई 1909 को मदन लाल ढींगरा द्वारा विलियम हटकर्जन वायली को गोली मार दिये जाने के बाद उन्होंने लन्दन टाइम्स में एक लेख भी लिखा था। 13 मई 1910 को पैरिस से लन्दन पहुँचने पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया परन्तु 8 जुलाई 1910 को एसएस मोरिया नामक जहाज से भारत ले जाते हुए सीवरहोल के रास्ते वे भाग निकले। उसी दौरान सावरकर को 13 मार्च 1910 को लंदन में कैद कर लिया गया। अदालत में उन पर गंभीर आरोप लगायेगए, 24 दिसम्बर 1910 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी। इसके बाद 31 जनवरी 1911 को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया। इस प्रकार सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने क्रान्तिकार्यों के लिए दो-दो आजीवन कारावास की सजादी, जो भारतीय स्वातंत्र समर के इतिहास में पहली घटना है।

सावरकर का स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान रहा है।अंग्रेजों द्वारा उनके क्रूरतम उत्पीड़न का दूसरा उदाहरण अपाको कहीं नहीं मिलेगा। उनसे अंग्रेज इतने भयभीत थे कि उन्हें कालापानी में दो आजीवन कारावास की सजा दी गयी थी। उनके साथ अंडमान की सेलुलर जेल में हुआ जुल्म विश्व के अमानवीय जुल्मों में शुमार है। उन्हें जिस कोठरी में रखा, उसी में शौच भी करना होता था। खाने को उबले चावल का चूरा और घासव की ड़ोंसेयुक्त सब्जी होती थी। सावरकर का मनोबल न टूटने पर उन्हें छह माह तन्हाई में, सात दिन बेड़ियों में हाथ छत से बांधकर खड़ा और दस दिन त्रिभुज के आकार के लट्ठों में पैर फैला कर बांध कर रखा। उन से बैल की तरह जुआ खींच कर प्रति दिन तीस किलो तिल का तेल निकलवाया जाता था। माह में अमूमन तीन कैदियों को सावरकर की नजरों के सामने फांसी दी जाती थी।

वहां पर उन्होंने कील और कोयले से कविताएं लिखीं और उनको यादकर लिया था। दसहजार पंक्तियों की कविता को जेल से छूटने के बाद उन्होंने दोबारा लिखा। सावरकर के अनुसार, मातृभूमि! तेरे चरणों में पहले ही मैं अपना मन अर्पित कर चुका हूँ। देश-से वाही ईश्वर-सेवा है, यह मानकर मैंने तेरी सेवा के माध्यम से भगवान की सेवा की है। 2 मई 1921 में उनको रत्नागिरी जेल भेजा गया और वहां से सावरकर को यरवदा जेल भेज दिया गया। 1921 में मुक्त होने पर वे स्वदेश लौटे और फिर 3 साल जेल भोगी। जेल में उन्होंन ेहिंदुत्व पर शोध ग्रन्थ लिखा। रत्नागिरी जेल में उन्होंने हिंदुत्व पुस्तक की रचना की। वर्ष 1924 में उनको रिहाई मिली मगर रिहाई की शर्तों के अनुसार उनको न तो रत्नागिरी से बाहर जाने की अनुमति थी और न ही वह पांच साल तक कोई राजनीति कार्य कर सकते थे। रिहा होने के बाद उन्होंने 23 जनवरी 1924 को रत्नागिरी हिंदू सभा का गठन किया और भारतीय संस्कृति और समाज कल्याण के लिए काम करना शुरू किया।

उन्होंने हिंदी भाषा को देशभर में आम भाषा के रूप में अपनाने पर जोर दिया और हिन्दू धर्म में व्याप्त जाति भेद व छुआछूत को खत्म करने का आह्वान किया, थोड़े समय बाद सावरकर तिलक की स्वराज पार्टी में शामिल हो गए और बाद में हिंदू महासभा नाम का एक अलग संगठन बना लिया। 1937 में वीर सावरकर हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गए। 1943 तक इस पद पर बने रहे। उनकी अध्यक्षता में पार्टी नं हिन्दू राष्ट्र व अखंड भारत की विचारधारा को बढ़ा चढा का प्रचारित किया। 1947 में भारत के बँटवारे के वे खिलाफ थे। वीर सावरकर ने बटवाड़े का जबरदस्त विरोध किया था। 26 फरवरी 1966 को वीर सावरकर की मृत्यु के बाद काँग्रेस की पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी ने कहा था कि सावरकर एक सच्चे राष्ट्रभक्त थे, प्रखर राष्ट्रवादी थे और कहा कि सावरकर द्वारा ब्रिटिश सरकार की आज्ञा का उल्लंघन करने की हिम्मत करना हमारी आजादी की लड़ाई में अपना अलग ही स्थान रखता है। 1970 में सावरकर जी पर डाक टिकट जारी किया गया। हालांकि संसद भवन में तैल चित्र का कांग्रेस सहित कई पार्टियों ने विरोध किया लेकिन अब सावरकर वहां भी विराजमान हैं और सावरकार की विचारधार आज पूरे देश पर अपना प्रभाव रखता है। सच पूछिए तो सावरकार हिन्दू नहीं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के व्याख्याकार थे।

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