Mission 2024: साल 2024 के लोकसभा चुनाव में अब एक साल से भी कम का समय बचा है. पिछले 9 सालों से केंद्र की सत्ता में काबिज बीजेपी और एनडीए को सत्ता से बाहर करने की जुगत में लगे विपक्षी दल, इस बार कोई वार खाली नहीं छोड़ना चाहते हैं. पहले विपक्षी दलों ने एक दूसरे के कट्टर प्रतिद्वंदी नेताओं से दोस्ती करने के लिए I.N.D.I.A नाम से गठबंधन बनाया, और अब 2024 के लिए एक और मुद्दे से उन्हें परिवर्तन की उम्मीद नजर आने लगी है. आज बात जातिगत जनगणना की. 1 अगस्त को पटना हाईकोर्ट ने राज्य में जातिगत जनगणना पर लगी रोक को हटा लिया.
कोर्ट ने बिहार सरकार की ओर से जातिगत जनगणना कराए जाने के आदेश को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया है. इसके साथ ही अब ये साफ हो गया कि बिहार में जातिगत जनगणना जारी रहेगी. हाईकोर्ट से हरी झंडी मिलते ही पिछड़ों की राजनीति करने वाले नेताओं की बांछे खिल गई हैं. बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने भी तुरंत अपने सभी जिलाधिकारियों को पत्र भेज प्रायॉरिटी बेस्ड पर कास्ट बेस्ड सेंसेस यानी जातिगत जनगणना करवाने के लिए कहा है. अब ऐसा माना जा रहा है कि कास्ट बेस्ड इस सेंसेस को हरी झंडी मिलने से 2024 की लड़ाई पूरी तरह बदल सकती है…
भारत की राजनीति में जाति सबसे बड़ी सच्चाई है. सभी राजनीतिक दल जाति के आधार पर ही सियासी नफे-नुकसान का आंकलन करते हैं. किसी भी दल की हार या जीत तय करने में जाति की बड़ी भूमिका होती है. यही वजह है कि समय-समय पर कई सियासी दल जातिगत गणना कराए जाने की पैरवी कर चुके हैं. जातिगत जनगणना से मतलब ये स्पष्ट करना है कि देश या राज्य में किस जाति के कितने लोग रहते हैं. इसके साथ ही उनका सामाजिक और शैक्षणिक स्तर क्या है?
आपको बता दें कि देश में शेड्यूल कास्ट और शेड्यूल ट्राइब की जातिगत गणना होती आई है. साल 2011 की जनगणना के अनुसार देश में शेड्यूल कास्ट यानी अनुसूचित जाति की हिस्सेदारी लगभग 16.6 फीसदी है, वहीं शेड्यूल ट्राइब यानी अनुसूचित जनजाति की बात करें तो इनकी आबादी लगभग 8.6 फीसदी है. इन दोनों को मिला दिया जाए तो ये देश की 25 फीसदी से ज्यादा आबादी है. इन आंकड़ों के जरिए ही केंद्र और राज्यों की सरकारें समाज के इस तबके लिए कल्याणकारी योजनाओं को लागू करती है. लेकिन देश में पिछड़ी जातियों की जनसंख्या कितनी है? उनकी शैक्षणिक और सामाजिक स्थिति कैसी है? इसके बारे में कोई भी सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं है.
साल 1980 में आई मंडल कमीशन की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में ओबीसी की आबादी 52% है. वहीं साल 2006 में हुए नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन के सर्वे में ओबीसी की जनसंख्या 41% बताई गई. यही वजह है कि भारत में ओबीसी यानी अन्य पिछड़े वर्ग की सटीक संख्या पर लगातार बहस चल रही है, कई लोगों का मानना है कि ये ओबीसी की आबादी मंडल आयोग या राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा दिए गए आंकड़ों से कहीं ज्यादा है. यही सवाल अगड़ी जातियों के संदर्भ में भी उठता है. ऐसे में यदि अन्य पिछड़ी जातियों या सभी जातियों की जनगणना की जाती है, तो इसमें बहुत परेशानी आने वाली नहीं है.
अब आपको बताते हैं कि बिहार में जातिगत जनगणना से 2024 की लड़ाई पर क्या असर हो सकता है? राजनीति के जानकारों की मानें तो बिहार में जातिगत सर्वे को मिली हरी झंडी से वोटों का गणित बदल सकता है. दरअसल जातिगत जनगणना के समर्थन और विरोध की सियासत के पीछे भी यही गणित काम कर रहा है. देश में ओबीसी की राजनीति करने वाले दलों को साल 2014 के बाद से पिछड़े वर्ग से आने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वजह से काफी नुकसान झेलना पड़ा है. आंकड़ों की मानें तो साल 2009 के लोकसभा चुनाव में जहां बीजेपी को करीब 22 फीसदी ओबीसी वोट मिले थे, वहीं 2019 के चुनाव में ये आंकड़ा 44 फीसदी पर पहुंच गया.
OBC वोट पर बीजेपी की मजबूत होती पकड़ का नतीजा ये रहा कि बिहार में लालू यादव की आरजेडी, नीतीश कुमार की जेडीयू जैसी पार्टियां कमजोर होती चली गईं. इसके साथ ही यूपी में समाजवादी पार्टी की जमीन भी कमजोर हुई है. अब तो ओडिशा की सत्ताधारी बीजू जनता दल को भी ये डर सताने लगा है. यही वजह है कि बीजेडी ने अपने राज्य में भी जातिगत सर्वे करवाने का काम शुरू कर दिया है. दरअसल इन सभी पार्टियों का बेस वोटर ओबीसी है, इसीलिए ये अपने-अपने राज्य में जातिगत जनगणना कराने की पैरवी कर रही हैं.
कुछ जानकार तो बिहार में हो रही जातिगत जनगणना को मंडल और कमंडल की लड़ाई के रूप में भी देख रहे हैं. दरअसल 2024 चुनाव से पहले अयोध्या में राम मंदिर का उद्घाटन होना है. इसके साथ ही केंद्र सरकार लगातार यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर एक्टवि मोड में दिख रही है. बीजेपी शासित कई राज्य सरकारें तो इसे लागू करने पर सहमति भी जता चुकी है. यही वजह है कि 2024 के चुनाव से पहले बीजेपी अपने हिंदू अस्मिता के मुद्दे से समझौता करने के मूड में नहीं है. वहीं इसकी काट करने के लिए ही लालू-नीतीश जैसे विपक्षियों ने ये जातिगत जनगणना का मु्द्दा उठाया है. ये स्थिति ठीक वैसी ही है जैसी मंडल और मंदिर आंदोलन के समय उपजी थी.
बता दें कि साल 2014 के पहले तक बीजेपी को विपक्षियों द्वारा ब्राह्मण-बनियों की पार्टी कहा जाता था. लेकिन साल 2014 में पिछड़े वर्ग से आने वाले नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर बीजेपी ने एक नया वोट बैंक खड़ा कर दिया. वो वोट बैंक है हिंदू वोट बैंक. बीजेपी ने यूपी और बिहार में पिछड़ों, अगड़ों और दलितों में बंटे हिंदू समाज को एक करने का काम किया और उसे ये विश्वास दिलाया कि जब बात हिंदू अस्मिता की आएगी, तो पार्टी कोई समझौता नहीं करेगी. बीजेपी ने लोकसभा चुनाव 2014 में यूपी और बिहार में प्रचंड जीत हासिल की, इस जीत में बड़ा योगदान उन ओबीसी जातियों का रहा जो पहले लालू-मुलायम-नीतीश के खेमों में बंटी हुई थी.
2014 में बीजेपी ने बिहार में कुशवाह समाज की पार्टी रालोसपा और रामविलास पासवान की एलजेपी के साथ गठबंधन कर चुनावी ताल ठोकी थी. नतीजा ये रहा था कि प्रदेश की 40 में से 31 सीटें इस गठबंधन के खाते में गई थी. अकेले बीजेपी ने ही 22 सीटों पर जीत दर्ज की और पार्टी को राज्य में 30 प्रतिशत वोट मिले थे. जानकारों की मानें तो बीजेपी ने ओबीसी की उन जातियों की गोलबंदी पर काम किया जो लालू-मुलायम-नीतीश के कोर वोटरों से इतर थीं. अब इसी फार्मूले को ध्यान में रखते हुए लालू-नीतीश ने जातीय जनगणना का शगूफा छोड़ा है. ताकि पीएम मोदी के चेहरे पर बीजेपी के साथ गोलबंद गैर यादव, गैर कुर्मी ओबीसी वोट बैंक में सेंध लगाई जा सके.
वैसे तो जातिगत जनगणना की मांग देश के कई राजनीतिक दल कर रहे हैं लेकिन जातिगत सर्वे शुरू करने की पहल सबसे पहले बिहार में हुई. जानकारों का मानना है कि इससे नीतीश कुमार का कद राष्ट्रीय राजनीति में और मजबूत होगा. बता दें कि कि पटना और बेंगलुरु के बाद अब विपक्षी गठबंधन I.N.D.I.A की मुंबई में तीसरी बैठक होनी है, ये बैठक अगस्त महीने के अंतिम सप्ताह में हो सकती है, इस बैठक से पहले पटना हाईकोर्ट द्वारा जातिगत सर्वे शुरू कराने का ये फैसला नीतीश कुमार के लिए संजीवनी साबित हो सकता है.
बता दें कि बिहार में जातिगत सर्वे इसी साल जनवरी महीने में शुरू हुआ था. सर्वे का आधे से ज्यादा काम पूरा हो चुका है. लेकिन बाद में मामला कोर्ट चला गया और हाईकोर्ट ने सर्वे पर रोक लगा दी थी. लेकिन अब जैसे ही हाईकोर्ट ने इसे हरी झंडी दिखा दी, काम फिर से शुरू हो गया है. सूत्रों की मानें तो बिहार सरकार जातिगत जनगणना सर्वे रिपोर्ट विधानसभा के शीतकालीन सत्र के दौरान सदन में पेश कर सकती है.