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गलवान हिंसा के 1 साल बाद चीन-भारत में होड़ और दुविधा बढ़ी, 5 संकेत

जून 2020 में गलवान घाटी (Galwan valley) में भारत और चीनी सैनिकों के बीच की झड़प को अक्सर द्विपक्षीय संबंधों (bilateral relations)के इतिहास में ‘वॉटरशेड मोमेंट्स’ यानी टर्निंग प्वाइंट कहा जाता है. चार दशकों में पहली बार इन दो देशों के बीच सरहद पर मुठभेड़ में सैनिकों ने अपनी जान गंवाई. एक साल बाद कुछ समीकरण बदले हैं लेकिन तनाव कम नहीं हुआ है. बल्कि दोनों ही पक्षों के बीच होड़ और दुविधा बढ़ गई है. यह पांच तरह से साफ नजर आता है.

सबसे पहले, 13 महीने के टकराव और 11 दौर की बातचीत का नतीजा क्या निकला- दोनों पक्षों ने सिर्फ आंशिक रूप से पैंगोंग झील का इलाका छोड़ा है. पूर्वी लद्दाख में गतिरोध कायम है, और दोनों पक्ष एकदम अलग-अलग मकसद से बातचीत करना चाहते हैं.

भारत चाहता है कि सैन्य वापसी हो, और युद्ध की आशंका धीरे धीरे कम हो, पर चीन इसका उलट चाहता है. वह चाहता है कि युद्ध की आशंका कम हो, इसके बाद सैन्य वापसी की जाए. यह ऐसा ही है, जैसे गाड़ी को घोड़े के आगे लगाया जाए. चीन की इस जिद के पीछे चाइनीज पीपुल्स लिबरेशन आर्मी का कूटनीतिक पैंतरा ही है.

अप्रैल में चीन की तरफ से संक्षिप्त और दो टूक बयान आया. उसने भारत से कहा कि वह सरहद के इर्द-गिर्द “तनावमुक्ति और शांति की मौजूदा स्थिति का आनंद उठाए” जोकि इस बात का संकेत भी था कि वह अप्रैल 2020 की स्थिति को बहाल करने की इच्छा नहीं रखता. इस बीच भारतीय स्रोतों ने मीडिया को बताया कि पीएलए का रवैया पहले जैसा कठोर हो गया है.

पूर्वी लद्दाख में हालात चीन के सैन्य दुस्साहस की सीमा और कमियां दर्शाते हैं. लेकिन मौजूदा स्थिति को देखते हुए जब तक चीनी नेतृत्व यह नहीं मानता कि उसके पास समझौता करने की पर्याप्त वजह है, वह टस से मस होने वाला नहीं है.

गलवान घाटी की झड़पों से पहले भी भारत का कूटनीतिक तबका चीन के उभार को भारत के लिए चुनौती मानता था. इसके अलावा सर्वेक्षणों से प्रदर्शित होता था कि चीन के प्रति भारतीयों का दृष्टिकोण कभी बहुत सकारात्मक नहीं रहा. वह धीरे-धीरे खराब ही हो रहा है. 2019 में सिर्फ 23 प्रतिशत लोग ही चीन के प्रशंसक थे. गलवान की लड़ाई के बाद आम लोगों और व्यापारी समुदायों ने भी खुशी-खुशी चीनी सामान को बॉयकॉट करने के अभियान में हिस्सा लिया. भले ही यह नाखुशी और न बढ़ी हो, लेकिन इसका स्तर तो बरकरार रहने की उम्मीद है.

महत्वपूर्ण तरीके से भारत के सैन्य योजनाकारों को इस बात से तसल्ली है कि सार्वजनिक स्तर पर चीन का खतरा महसूस किया जा रहा है. दूसरी तरफ चीन में पचास और साठ के दशक के बाद ऐसा पहली बार हुआ है कि मुख्यधारा के मीडिया में भारत को खतरा बताया जा रहा है.
फरवरी 2021 में चीन ने सार्वजनिक स्तर पर यह माना था कि गलवान घाटी की झड़पों में उसके चार सैनिक मारे गए. हालांकि यह कुछ असामान्य था. इसके बाद मीडिया को इन सैनिकों का महिमामंडन करने की इजाजत दी गई. उदाहरण के लिए अप्रैल की शुरुआत में यह सूचना दी गई कि किंगमिंग फेस्टिवल में इन सैनिकों को सम्मानित किया जाएगा. इस हफ्ते की शुरुआत में चीन के नेशनल ब्रॉडकास्टर सीसीटीवी पर की फाबाओ से साथ बातचीत का प्रसारण किया गया. फाबाओ पीएलए के जिनजिआंग मिलिट्री कमांड का रेजिमेंटल कमांडर है. गलवान झड़प के दौरान उसे सिर में चोट लगने की बात कही गई थी.

तीसरा, चीन के मीडिया में राष्ट्रवादी लहर हिलोरे ले रही है. यह घरेलू स्तर की चर्चा का ही नतीजा है. शी जिनपिन बड़े नेता के रूप में उभरे जरूर हैं लेकिन इसे लेकर भी टकराव है. परिणाम के तौर पर पार्टी राष्ट्रवाद और विचारधारा पर दोगुना जोर दे रही है. सरकारी स्तर पर बार-बार इस बात को दोहराया जा रहा है कि आत्मनिर्भरता और राजनैतिक वफादारी कायम रखी जाए. क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता बरकरार रखी जाए. चीन की राजनैतिक-आर्थिक व्यवस्था सर्वोत्तम है और पश्चिम के साथ शीतयुद्ध जैसी प्रतिस्पर्धा बनी रहनी चाहिए.

इसी के साथ माओ जेडोंग के बाद शी बेजोड़ तरीके से ताकतवर हुए जिसने विदेश नीति में टॉप लेवल डिजाइन को पुख्ता किया. इससे विदेश नीति में फीडबैक की गुंजाइश कम हुई और परिवर्तन की संभावनाएं भी. यह सब तब हुआ, जब चीन खुद को ऐसी विश्वव्यापी अर्थव्यवस्था के रूप में देखता है जिसका कोई जोड़ नहीं है. उसके हिसाब से वैश्विक अर्थव्यवस्था में वह परम आवश्यक है और उसे अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए.

चूंकि चीन खुद को एक बड़ी ताकत के रूप में देखता है, खतरा पैदा कर सकता है और लगातार सैन्य क्षमता बढ़ा रहा है, इसीलिए उसके लिए अपनी ताकत का उपयोग करना जोखिम भरा हो गया.

चौथा, भारत में नीति निर्धारकों ने अमेरिका और दूसरे साथी देशों के साथ संतुलन बनाते हुए स्पष्ट रुख अपनाया. उसने इस बात पर जोर दिया कि सीमा विवादों को द्विपक्षीय संबंधों के दूसरे पहलुओं से अलग करके नहीं देखा जा सकता. विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने पिछले ही महीने इस बात को दोहराया है. उन्होंने कहा कि भारत के पास अपनी ताकत बढ़ाने का पूरा अधिकार है. साथ ही यह भी याद दिलाया कि “सीमा पर तनाव और दूसरे क्षेत्रों में समन्वय, किसी भी स्थिति में जारी नहीं रह सकते.”

पिछले साल चीन इन प्रस्तावों पर गुस्सा जाहिर कर चुका है. भारत पश्चिम की तरफ मुड़ा है और चीन इसे अमेरिका के साथ अपनी कूटनीतिक प्रतिस्पर्धा और भारत एवं चीन के क्षेत्रीय टकराव के लिहाज से देख रहा है. फिर भी चीनी विश्लेषक इस बात पर बंटे हुए हैं कि भारत और अमेरिका किस हद तक अपने हितों और अरमानों में तालमेल बैठा सकते हैं.

सीमा विवाद पर चीन का तर्क यह है कि यह मुद्दा “इतिहास की तह में दबा हुआ है और इसे द्विपक्षीय संबंधों में उचित जगह मिलनी चाहिए.” इस तरह चीन इस बात को स्वीकार नहीं करता कि पूर्वी लद्दाख में उसकी कार्रवाई ने द्विपक्षीय संबंधों को नुकसान पहुंचाया है, या वह सचमुच अपनी नीति पर दोबारा से सोचना चाहता है.

चीन ने अपनी मैन्यूफैक्चरिंग क्षमता पर जोर दिया है, जोकि उसके हिसाब से विश्वव्यापी सप्लाई चेन्स में मुख्य भूमिका निभाती है और व्यापारिक संबंधों के लिए महत्वपूर्ण है. इस प्रकार चीन मानता है कि वह भारत के लिए आर्थिक भागीदार के तौर पर बहुत जरूरी है. बेशक, डॉलर वैल्यू के हिसाब से कोविड-19 महामारी और लद्दाख में तनाव के बावजूद भारत-चीन व्यापार संबंध पनपे हैं. लेकिन यह समझना भी बेवकूफी होगी कि ऐसा नहीं होना चाहिए. क्योंकि पूर्ण आर्थिक विघटन न तो संभव है, न ही ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए.

हां, निश्चित रूप से कि भारत के नीति निर्धारक चीन पर आर्थिक निर्भरता को कम करने की इच्छा रखते हैं, वह भी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में.
भारत के 5जी इकोसिस्टम से चीन को बाहर रखने का हालिया फैसला, इसका उदाहरण है. पर ऐसे में इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि लचीलापन और वैकल्पिक क्षमता निर्माण तुरत-फुरत में नहीं किया जा सकता. बेशक, राजनैतिक इच्छाशक्ति दिखाई दे रही है, फिर भी इसमें समय लगेगा, और यह भी देखना होगा कि हम किस हद तक इसमें सफल होते हैं.

पांचवां, इन सबके बावजूद दोनों देशों के बीच का भूगोल और उनकी महत्वाकांक्षाएं संरचनात्मक समीकरण तैयार करने का काम करती रही हैं. पड़ोसी के रूप में दोनों के पास कोई और चारा नहीं है. इसी तय होता है कि दोनों कौन सा कदम उठाएंगे.

पिछले साल पीएलए के दुस्साहस ने इस बात का संकेत दिया था कि बीते कुछ दशकों से विवादित सीमा पर यथास्थिति बरकरार रहने वाली नहीं. दूसरी तरफ हिंद महासागर क्षेत्र में भारत की अनुकूल स्थिति और वहां चीन के बढ़ते कदमों ने दोनों देशों के बीच एक नई गतिशीलता पैदा की है.

इसी के साथ ऐसे कई क्षेत्र हैं जहां दोनों के हित एक समान हैं. जैसे भारत हांगकांग, तिब्बत और शिनजियांग पर चीन की नीति पर टिप्पणी करने में हमेशा सतर्कता बरतता रहा है. ताइवान हो या कोविड-19 की उत्पत्ति की जांच का मामला, भारत ने हमेशा संयम बनाए रखा है.

हाल ही में ब्रिक्स विदेश मंत्रियों ने बहुपक्षीय प्रणाली पर अपने बयान में कहा था कि वे “अधिक निष्पक्ष और समावेशी, प्रतिनिधित्वपरक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था कायम करना चाहते हैं जोकि अंतरराष्ट्रीय कानून और संयुक्त राष्ट्र चार्टर पर आधारित हो. सभी देशों की संप्रभुता का ख्याल रखे, उनकी क्षेत्रीय अखंडता और हितों एवं चिताओं का सम्मान करे.”

उल्लेखनीय है कि भारत ऐसी बातों पर विश्वास रखता है और क्वाड की ‘नियम आधारित व्यवस्था’ की अस्पष्ट अवधारणा का समर्थन करता है. इसी तरह विश्व व्यापार और जलवायु परिवर्तन के मसलों पर भी भारत और चीन में समानताए हैं.

फिर भी इस संबंध में कुछ खास मुद्दों पर ही परस्पर समन्वय होगा और यह व्यावहारिकता पर आधारित होगा. हां, इनमें से किसी के भी कारण दोनों देश एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी नहीं बनेंगे. अगर शी जिनपिंग भारत के प्रति चीन के रवैये को बदलने को तैयार हों, खासकर सीमा के मसले पर, तो इसमें कुछ हद तक बदलाव हो सकता है. फिर भी उम्मीद के भरोसे रहना, कोई अच्छी नीति नहीं है.

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