Karpoori Thakur Bharat Ratna: जननायक को भारत रत्न दे BJP ने खेला मास्टर स्ट्रोक, समाजवादी नेता की विरासत पर भगवा पार्टी का दावा मजबूत ?

लालू प्रसाद यादव भले ही खुद को जननायक कर्पूरी ठाकुर का सबसे बड़ा चेला बताते हों और नीतीश कुमार खुद को उनका सबसे बड़ा अनुयायी बताते हों, लेकिन बीजेपी मरणोपरांत कर्पूरी ठाकुर को ये सम्मान देकर अति-पिछड़ों में यह संदेश देने में कामयाब हो गई है अति-पिछड़ों का सम्मान बस बीजेपी ही करती है.

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और सामाजिक न्याय के पुरोधा जननायक कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने का ऐलान तब हुआ जब एक दिन बाद उनकी जयंती मनाई जाने वाली थी. एक जननेता की जन्मशताब्दी की पूर्व संध्या पर देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मान की घोषणा वास्तव में उस शख्सियत का सबसे बड़ा सम्मान है जिन्होंने जीवनभर गरीबों, पिछड़ों और दलितों के न्याय के लिए संघर्ष किया और उस वर्ग को एक मुकाम दिलाने की ठानी. लिहाजा इस सम्मान का प्रभाव केवल कर्पूरी ठाकुर की शख्सियत तक सीमित नहीं रह जाता बल्कि उस आभामंडल के लाभार्थियों तक भी पहुंचता है जिन्होंने कर्पूरी ठाकुर की वैचारिकी और संघर्षशीलता से सीख हासिल की.

गौर करने वाली बात ये है कि कर्पूरी ठाकुर का निधन सन् 1988 में हो गया था. तब से लेकर सन् 2024 तक करीब 35 साल बीत गये. उनकी समाजवादी वैचारिक विरासत की बुनियाद पर बिहार में कई सियासी दिग्गजों ने मुखर राजनीति की और सत्ता पर काबिज भी हुये. लेकिन उनके योगदान को सम्मान मिलने में करीब चार दशक गुजर गये. यही वजह है कि उनके बेटे रामनाथ ठाकुर ने मीडिया को भावुक कर देने वाला बयान दिया. उन्होंने कहा कि उनके पिता को वाजिब सम्मान मिलने में 34 साल लग गये. इसके बाद उन्होंने सरकार को आभार जताया.

सम्मान का परफेक्ट टाइम

पुरस्कार और सम्मान ऐसी उपलब्धि होती है जो अक्सर बहुत कम ही लोगों को उनके जीवनकाल में सही समय पर मिल पाती है लेकिन जो सिस्टम उसे इस सम्मान से नवाजता है, वह अपने लिए कोई ना कोई परफेक्ट टाइम की तलाश जरूर कर लेता है. मुहावरों में इसे मौके पर चौका कहते हैं. कर्पूरी ठाकुर को बिहार का जननायक यूं ही नहीं कहा जाता. इसकी मजबूत बुनियाद है. लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान जिस वक्त राजनीति में अपने वजूद के स्पेस के लिए मौके की ताक में थे, उस वक्त कर्पूरी ठाकुर पिछड़ों को सम्मान दिलाने के लिए सड़कों पर नारे बुलंद कर रहे थे. युवाओं में जोश भर रहे थे. उन्हें हक दिला रहे थे.

हां, कर्पूरी ठाकुर के बेटे रामनाथ ठाकुर जेडीयू के वरिष्ठ नेता हैं, वो राज्यसभा सांसद हैं. उनका कहना है कि उन्होंने सरकार से अपने पिता के योगदान को देखते हुए भारत रत्न सम्मान देने की मांग की थी. और कोई आश्चर्य नहीं कि बिना देरी किये और बिना किसी आंदोलन या विवाद के भारत सरकार की ओर से कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने का ऐलान भी कर दिया गया. तो इसके पीछे के मकसद को समझना मुश्किल नहीं. सियासत पानी की तरह साफ कभी नहीं होती.

सम्मान की प्रासंगिकता के संकेत

मौका कर्पूरी ठाकुर के जन्म शताब्दी वर्ष का है, लिहाजा इस सम्मान की अपनी प्रासंगिकता बनती है जिस पर कोई सवाल नहीं उठा सकता लेकिन जिस बिहार की राजनीति की मुख्यधारा में ओबीसी फैक्टर काफी अहमियत रखता है वहां इस प्रासंगिकता की भी अपनी एक अलग ही प्रासंगिकता है, जिससे इनकार नहीं किया जा सकता. पिछले कुछ महीने से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव की सरकार ने पिछड़े वर्ग का मुद्दा जोर शोर से उठाया है और मोदी सरकार के सामने इस मुद्दे पर एक बड़ी चुनौती पेश करने की कोशिश की है. जातिगत जनगणना का आंकड़ा जारी करना उनका सबसे बड़ा दांव था.

सम्मान पर श्रेय लेने की मची होड़

बिहार में कर्पूरी ठाकुर का कद बड़ा था. ऐसे में चुनावी साल देखते हुए भारत रत्न का ऐलान होते ही श्रेय लेने की होड़ भी मच गई. बधाइयों का तांता लगना था. प्रधानमंत्री मोदी ने बधाई दी तो नीतीश कुमार ने अपनी मांग की याद दिलाते हुए पीएम का आभार जताया, उसके बाद तेजस्वी यादव ने भी अपनी पुरानी पोस्ट दोबारा शेयर कर याद दिलाया कि उनकी पार्टी ने ये मांग पहले ही की थी. इसके बाद बिहार के एक और पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव का बधाई संदेश तो और भी दिलचस्प था.

राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के बाद विपक्ष की राजनीति बेरंग है. बीजेपी विरोधी पार्टियां धर्म का काट जाति से खोजने की तैयारी कर रही थीं. इसमें उनके लिए अतिपिछड़ों के सबसे बड़े नेता कर्पूरी ठाकुर बड़ा सहारा थे. 24 तारीख को पटना में आरजेडी, जेडीयू और वामदल कर्पूरी ठाकुर की याद में बड़ा कार्यक्रम कर बीजेपी की तरफ छिटक रहे अति-पिछड़ों को साथ लाने की कवायद करने की तैयारी में थे.

लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की पार्टी के नेता इससे पहले उन्हें भारत रत्न देने की मांग कर माहौल भी बना रहे थे, लेकिन केंद्र सरकार ने सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार देने की घोषणा कर सभी सियासी सरगर्मियों पर पानी फेर दिया है. बीजेपी ने जो कार्ड खेला है, उसका जवाब विरोधियों के पास फिलहाल नहीं दिख रहा है.

क्यों जरूरी हैं कर्पूरी ठाकुर ?

देश के पहले उपमुख्यमंत्री और दो बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर नाई जाति से थे. यहां जननायक को जाति से जोड़ने की हिमाकत नहीं एक मजबूरी है, क्योंकि बिहार की राजनीति की बात बिना जाति के नहीं हो सकती है. बिहार की राजनीति का हर गुणा-भाग जाति पर ही आधारित होता है. इसलिए इसका जिक्र जरूरी हो जाता है. बिहार में नाई (हज्जाम) समाज की आबादी दो प्रतिशत से भी कम है.

इसके बाद भी कर्पूरी क्यों जरूरी हैं? वामपंथी हों या दक्षिणपंथी, मध्यमार्गी कहने वाली कांग्रेस या कथित समाजवाद की राजनीति करने वाले लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की पार्टी आरजेडी और जेडीयू. ये सभी पार्टियां कर्पूरी ठाकुर की राजनीतिक विरासत के लिए हाय-तौबा उनकी मौत के 36 साल बाद भी क्यों कर रही हैं? तो इसका जवाब है कर्पूरी ठाकुर का बिहार की राजनीति में सबसे बड़ा अति-पिछड़ा नेता होना है.

100 जातियों के नेता हैं जननायक कर्पूरी ठाकुर

कर्पूरी ठाकुर छोटी-छोटी आबादी वाली 100 से अधिक जातियों के नेता थे या कहें मृत्यु के बाद भी हैं. ये जातियां भले ही अकेले कोई बड़ी राजनीतिक हैसियत नहीं रखती हैं, लेकिन मिलने के बाद करीब 29 प्रतिशत वोट का बड़ा पैकेट तैयार करती हैं और इन्हें साधने के लिए बीजेपी ने जो मास्टर स्ट्रोक खेला है, उसका फायदा बीजेपी को लोकसभा चुनाव में मिल सकता है.

UPA सरकार में मंत्री थे लालू यादव, फिर भी नहीं दिला पाए ये सम्मान

लालू प्रसाद यादव भले ही खुद को कर्पूरी ठाकुर का सबसे बड़ा चेला बताते हों और नीतीश कुमार खुद को उनका सबसे बड़ा अनुयायी बताते हों, लेकिन बीजेपी अति-पिछड़ों में यह संदेश देने में कामयाब हो गई है कि अति-पिछड़ों का सम्मान बस बीजेपी ही करती है. लालू प्रसाद यादव यूपीए की केंद्र सरकार में मजबूत केंद्रीय मंत्री थे. इसके बाद भी वह जननायक कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न नहीं दिला पाए.

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