रील लाइफ में रियलिटी का तड़का है मनोज वाजपेयी की “भोंसले”

कहानी शुरू होती है मुंबई की एक चॉल से। जहाँ रहते हैं गणपतराव भोंसले। एक बुजुर्ग पुलिस कॉन्सटेबल जो अब रिटायर हो चुके हैं। पूरी जिंदगी ड्यूटी की। इस शहर का शोर, शून्य, इसकी निरर्थकता को देखते हुए। इसलिए हमेशा चुप रहते हैं। अंदर ही अंदर घुटते रहते हैं। कोई समाज या परिवार नहीं है। उनके बगल वाले कमरे में एक नॉर्थ इंडियन लड़की सीता आकर रहने लगती है, अपने छोटे भाई लालू के साथ। खत्म होते जा रहे जीवन में भोंसले का कैसे इनसे अपनेपन का एक धागा जुड़ता है। और कैसे भोंसले इनके प्रति अपनी ड्यूटी पूरी करते हैं, ये फ़िल्म में आगे दिखता है।

‘भोंसले’ को डायरेक्ट किया है देवाशीष मखीजा ने। चार साल पहले उन्होंने 11 मिनट की एक शॉर्ट फिल्म बनाई थी – ‘तांडव’. ‘भोंसले’ उसी का विस्तार कही जा सकती है, या ‘तांडव’ का पार्ट 2 कही जा सकती है। ‘तांडव’ में वो एलीमेंट भी हैं जो हमें ‘भोंसले’ में दिखाई देते हैं और ‘भोंसले’ की बैकस्टोरी का अंदाजा भी। कैसे उसका एक परिवार था, एक बेटी थी। कैसे वो एक नॉन-करप्ट आदमी था इस वजह से साथी पुलिसवाले उससे परेशान होते थे। ड्यूटी के दौरान शहर के शोर और लाइफ के कोलाहल के उसके दिमाग पर पड़ने वाले असर को भी देख सकते हैं।

‘भोंसले’ में पोलिटिकल एलीमेंट मराठी मानूस का मसला उठा रहे होते हैं, वहीं ‘तांडव’ में वे हिंदुस्तान को हिंदू राष्ट्र बनाने की बात कर रहे होते हैं। दोनों फिल्मों में बस मेन कैरेक्टर के नाम का फर्क है, ‘तांडव’ में उसका नाम तांबे था, और अब आई फीचर फिल्म में गणपतराव भोंसले।

‘तांडव’ का सार वॉल्टेयर का ये कथन था कि आदमी हर उस पल में आज़ाद है, जिसमें वो होना चाहता है।

एक्टर्स की बात करें तो मनोज बाजपेयी ने फ़िल्म में गणपत भोंसले का रोल किया है। उनका खामोश प्रदर्शन अचूक है। ‘शूल’ और ‘गली गुलियां’ से लेकर भोंसले तक उनका फेस स्ट्रक्चर साइलेंट कैरेक्टर्स को प्ले करने में अतिरिक्त मदद करता है। पात्र अंदर से कैसे घुट रहा है, उसका दिमाग तनाव से फट रहा है, ये सिर्फ चेहरा देखकर पता चलता है। इप्शिता चक्रवर्ती सिंह ने सीता का रोल किया है। ये किरदार एक किस्म की उर्वरकता और सृजनात्मकता से भरा है। ठीक भोंसले के उलट जो बंजर ज़मीन जैसा है, जिसमें कुछ उगता दिखता नहीं। लालू का रोल विराट वैभव नाम के यंग एक्टर ने किया है। चॉल में मराठी मानूस के नाम पर लोगों को अपने पक्ष में करने की कोशिश करते टैक्सी ड्राइवर विलास का रोल संतोष जुवेकर ने किया है।

अब ‘भोंसले’ को लेकर मन में कुछ ऑब्जर्वेशंस आते हैं वो कुछ यूं हैं –

[1.] आइसोलेशन, निरर्थकता, विखंडन ये इस फिल्म के प्रतिनिधि भाव हैं। एक द्रवित करने वाला भाव इंसानी संभाल, केयर और रिश्तों का भी है।

[2.] फ़िल्म का म्यूजिक सादा और रिफ्रेशिंग है। बहुत ज्यादा इमोशनल ओरिएंटेशन भी नहीं करने की कोशिश करता है। जहां इंसानी भावों को टटोलने का इशारा करना हो, वहां ओरिएंटेशन जैसा कुछ होता है।

[3.] ‘भोंसले’ फिल्म का माहौल छोटी छोटी डीटेल्स से मिलकर बना है। जो इसके भीतर की दुनिया को बनाता है। चाहे वो स्नानघर में रखी साबुन की पतली खुर्चियां हों, रसोई के मुचे हुए बर्तन हों, गैस चूल्हे की जगह कैरोसीन का स्टोव हो या कमरे की पानी टपकती छत हो। भोंसले एक-दो रोटी का आटा ही लगाता है। उसकी दाल में दाना नहीं होता, कोरा पानी होता है। मनोरंजन या सूचना का एक ही साधन है, वो है बरसों पुराना रेडियो जो हमेशा रहता है। यूज़ एंड थ्रो वाले बाजारवादी चलन के उलट। इस दुनिया में खिड़की पर बैठा कौव्वा, कमरे के बाहर बैठा कुत्ता, अहाते की बिल्ली, बहुत सारे चूहे, कॉकरोच, डेंगू के मच्छर, फफूंद और इंसानी शरीर का ट्यूमर सब हैं। सब इस दुनिया को नेचुरल बनाते हैं। अंधेरा, सीलन, घुटन, डर, अदृश्य हिंसा इस फिल्म के बहुत ताकतवर और अल्टीमेट इमोशन हैं।

[4.] गणेश का रेफरेंस फिल्म में मुख्य है। जो हर जगह है। ये कहानी मुंबई के गणेशोत्सव के साथ शुरू होती है और उसी के साथ खत्म। ओपन ही ऐसे होती है कि गणेश की प्रतिमा को निर्मित किया जा रहा है, विसर्जित करने के लिए। ठीक उसके समानांतर भोंसले अपनी पुलिस की ड्यूटी को विसर्जित कर रहा होता है, नए अमूर्त रूप में निर्मित हो जाने के लिए। इसके अलावा जब भोंसले की मेडिकल रिपोर्ट आती हैं तो सिद्धिविनायक नाम की लैब से। अंत में गणेश की टूटी, विक्षत मूर्तियां समंदर के पानी में निढाल होती हैं, और भोंसले अपने आराध्य गणेश की ही हालत में।

[5.] फिल्मकार मखीजा और उनके राइटर साथी, इंटेंशनली दो समान हालात वाले मराठियों की कहानी कहते चलते है। पहला भोंसले है जो मानवतावादी है। लोकल वर्सेज़ आउटसाइडर यानी स्थानीय-बाहरी के मुद्दे में नहीं पड़ता है। उसने ये हद नहीं बना रखी। दूसरा है विलास जो स्थानीय-बाहरी की बात करके राजनीति में जाना चाहता है। दोनों के पैरेलल चलते हैं। दोनों वैसे ही थापियों से पीटकर कपड़े खुद धोते हैं। मिनिमल सरवाइवल है इनका।

एक सीन में भोंसले सीनियर अधिकारी तावड़े से मिलने जाता है तो हवलदार कहता है कि साब बिजी है अपॉइंटमेंट लेकर आओ। दूसरे में विलास अपने लोकल नेता भाऊ से मिलने जाता है तो उसे भी यही जवाब मिलता है कि वो अभी बिजी हैं कल आना। और दोनों ही अपनी अपनी उन सिचुएशन में एक ही काम करते हैं। वहीं डटे रहते हैं। बाहर ही इंतजार करने लगते हैं।

[6.] फिल्मकार मखीजा और उनके राइटर साथी, इंटेंशनली दो समान हालात वाले मराठियों की कहानी कहते चलते है। पहला भोंसले है जो मानवतावादी है। लोकल वर्सेज़ आउटसाइडर यानी स्थानीय-बाहरी के मुद्दे में नहीं पड़ता है। उसने ये हद नहीं बना रखी। दूसरा है विलास जो स्थानीय-बाहरी की बात करके राजनीति में जाना चाहता है। दोनों के पैरेलल चलते हैं। दोनों वैसे ही थापियों से पीटकर कपड़े खुद धोते हैं. मिनिमल सरवाइवल है इनका।

एक सीन में भोंसले सीनियर अधिकारी तावड़े से मिलने जाता है तो हवलदार कहता है कि साब बिजी है अपॉइंटमेंट लेकर आओ। दूसरे में विलास अपने लोकल नेता भाऊ से मिलने जाता है तो उसे भी यही जवाब मिलता है कि वो अभी बिजी हैं कल आना। और दोनों ही अपनी अपनी उन सिचुएशन में एक ही काम करते हैं। वहीं डटे रहते हैं। बाहर ही इंतजार करने लगते हैं।

[8.] ये फिल्म बाहरी के नोशन का तिरस्कार करती है। कि जो पच्चीस तीस बरस से मुंबई में रह रहा है, वो बाहरी कैसे हो गया। भोंसले काका को जितना उनके साथी मराठी लोग नहीं संभालते, उतना सीता और लालू जैसे नॉर्थ इंडियन संभालते हैं।

[9.] COVID-19 के काल में अब जब सब सो-कॉल्ड ‘भय्ये’ लोग महाराष्ट्र से जा चुके हैं, अपने तथाकथित ‘देश’। तो मराठी मानुसों के उन विभाजनकारी नेताओं को खुशी होनी चाहिए। अब तो मराठी मानूस को काम पर लगना चाहिए। अश्योर करना चाहिए कि इंडस्ट्रीज़ वो संभाल लेंगे। क्योंकि भारत में ये चिंता जताई जा रही है कि अगर यूपी, राजस्थान, बिहार, बंगाल, झारखंड, एमपी, उड़ीसा के मजदूर बड़े शहरों में नहीं लौटे तो मैन्युफैक्चरिंग, कंस्ट्रक्शन, सर्विसेज़ और अन्य प्रमुख इकोनॉमिक सेक्टर रिवाइव नहीं कर पाएंगे और इकॉनमी की रिकवरी नहीं हो पाएगी। स्थानीयता के मुद्दे की बात करने वालों को अब स्थानीय लेबर से इंडस्ट्रीज़ को रिवाइव करके दिखाना चाहिए। अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रंप ने दिसंबर तक एच1-बी वर्क वीज़ा जारी करना बंद कर दिया है। क्योंकि नवंबर में राष्ट्रपति चुनाव हैं और इमिग्रेशन को उन्होंने हमेशा मुद्दा बनाया है। ट्रंप ने हमेशा कहा है कि अमेरिका में बेरोज़गारी से लेकर बढ़ते क्राइम के लिए बाहरी लोग जिम्मेदार हैं। उनकी बाहरियों वाली सूची में भारतीय भी आते हैं। मार्च 2021 में खत्म हो रहे करंट फाइनेंशियल ईयर के लिए संभवतः 1.84 लाख एच1-बी वर्क वीजा के लिए भारतीयों ने आवेदन किया था। समझने वाले समझेंगे कि ये बाहरी वाली पॉलिटिक्स एक बहुत बड़ा झूठ है और कहीं नहीं रुकता। दुनिया बनी ही इमिग्रेशन की वजह से है और आगे भी ये जारी ही रहेगा।

[10.] आखिरी बात ‘भोंसले’ के किरदार का गैर-इरादतन बदला लेने वाला जो एंगल है वो दिखाता है कि डायरेक्टर मखीजा का बुजुर्ग किरदारों से बदला लिवाने को लेकर कैसा फेसिनेशन है, जुनून है। क्योंकि दो साल पहले आई उनकी फिल्म ‘अज्जी’ में घुटनों के भयंकर दर्द से पीड़ित एक बुजुर्ग दादी अपनी 10 साल की पोती के रेप का बदला लेने निकलती है। अब ‘भोंसले’ में भी किरदार वैसा ही ऐजेड है। सिर्फ इस लिहाज से ‘भोंसले’ देखते हुए मेरे दिमाग में जो फिल्म सबसे पहले उभरी वो थी ‘इन ऑर्डर ऑफ डिसअपीयरेंस‘। 2014 में आई नॉरवेजियन एक्शन थ्रिलर। जिसमें स्टेलन स्कार्सगार्ड जैसे महीन एक्टर ने काम किया था। ये एक ऐसे उम्रदराज पिता की कहानी थी जो अपने बेटे की मौत का बदला हत्यारों से चुनचुनकर निकालता है। ज्यादा कमर्शियल ज़ोन में जाएं तो डेंजल वॉशिंगटन की ‘द इक्वलाइज़र’ सीरीज़ मन में आती है। हालांकि भोंसले कुल मिलाकर इन फिल्मों से काफी अलग है।

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