UP Election Explainer

UP Election Explainer: क्या अब कोर वोटर भी नहीं रह गया मायावती के साथ! 15 सालों में 206 से 1 सीट पर सिमटी BSP

UP Election Explainer 2022: यूपी की सियासत में बसपा चीफ मायावती (Mayawati) का कद लगातार सिकुड़ रहा है. पार्टी को 403 सीटों में से सिर्फ एक सीट पर जीत मिली है. जबकि इस बार उसे 13 फीसदी वोट मिले हैं. बता दें कि साल 2007 में बसपा ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनायी थी. तब उसे 206 सीटें मिली थीं और उसका वोट शेयर 30 फीसदी से ज्यादा था. बसपा को 2012 में 80 सीटें मिली थीं और उसका वोट शेयर करीब 26 फीसदी रहा था, लेकिन इसके बाद से पार्टी लगातार सिकुड़ रही है.

बहुजन समाज पार्टी (Bahujan Samaj Party) का चुनावी इतिहास में अब तक का सबसे ओछा प्रदर्शन रहा है. किसी को यकीन नहीं हो पा रहा है कि बसपा यूपी विधानसभा (UP Election Results 2022) की 403 सीटों में से सिर्फ एक सीट जीत पायी है, लेकिन यही हकीकत है. 15 सालों में ही बसपा पूर्ण बहुमत की सरकार से फिसलकर सिर्फ एक सीट पर सिकुड़ गयी है. आखिर ऐसा हुआ क्यों?

UP Election Explainer: साल 1989 के पहले चुनाव से लेकर साल 2007 तक बसपा की सीटें हर चुनाव में बढ़ती चली गयीं. 2007 में उसे पूर्ण बहुमत भी मिला, लेकिन 2012 के बाद से हर चुनाव में वो सिमटती चली गयी.

यूं बढ़ी और फिर…
साल 1989 में अपने पहले चुनाव में बसपा को 10.72 फीसदी वोट के साथ 13 सीटें मिली थीं, लेकिन साल 2022 में 13 फीसदी वोट लेकर पार्टी सिर्फ एक सीट ही जीत सकी है. सोचने वाली बात तो ये भी है कि कांग्रेस को सिर्फ 3 फीसदी वोट मिले हैं यानी बसपा से 10 फीसदी कम, लेकिन फिर भी कांग्रेस ने बसपा से ज्यादा सीटें जीती हैं. जाहिर है बसपा के अंदर बहुत कुछ टूट गया है.

ये टूट बसपा के मूल वोटरों में भयंकर हुई है. मायावती (Mayawati) पर किताब ‘राइज एण्ड फॉल ऑफ मायावती’ लिखने वाले अजय बोस कहते हैं कि अब मायावती के साथ उसका जाटव वोटर भी मजबूती से जुड़ा हुआ नहीं है. नौजवान ने बसपा का साथ छोड़ दिया है. जाटव के अलावा दूसरे एग्रेसिव दलितों ने भी मायावती का साथ छोड़ दिया है. पश्चिमी यूपी में जो थोड़े बहुत मुसलमान बसपा के साथ थे वे भी अब उसके नहीं रहे. यही वजह है कि जीतने की शक्ति बसपा गंवा बैठी है. तो फिर ऐसे क्या कारण हैं जिससे मायावती इस राजनीतिक रसातल में पहुंच गयी.

  1. दो ध्रुवीय लड़ाई
    यूपी में पिछले तीन चुनावों से दो ही पार्टियों के बीच फाइट हो रही है. ऐसे में तीसरी पार्टी नदारद ही दिखती है. जब सपा बसपा में आमने-सामने की लड़ाई थी तब भाजपा सिकुड़ी हुई थी. अब सपा और भाजपा में लड़ाई हुई तो बाकी सभी सिमट गये.
  2. भाजपा से करीब दिखने का असर
    दो साल पहले राज्यसभा के चुनाव में मायावती ने कहा था कि यदि सपा को हराने के लिए भाजपा का भी साथ देना पड़े तो वो देंगी. वहीं से मायावती की भाजपा से नजदीकियों की चर्चा तेज होने लगी. तब से लेकर चुनाव के कुछ समय पहले तक हमेशा मायावती भाजपा सरकार पर लगभग मेहरबान रहीं. जाहिर है दलित और पिछड़े वर्ग का जो तबका भाजपा पर आरक्षण को खत्म करने का आरोप मढ़ता रहा है उसने मायावती का साथ छोड़ दिया. मुसलमान भी इस वजह से दूर होते चले गये. कुछ बेहद गरीब जाटव वर्ग तो भाजपा की लोकप्रिय योजनाओं पर भी लट्टू होकर मायावती से दूर हो गया.
  3. पूंजीपतियों को टिकट
    टिकट बंटवारे को लेकर मायावती की भूमिका को हमेशा कटघरे में खड़ा किया जाता रहा है. टिकट मिलने की आस में जी जान से जुटे कार्यकर्ता का अचानक टिकट काटकर मायावती ने किसी अजनबी पूंजीपति को दे दिया. ये घाव धीरे धीरे नासूर बनता गया.
  4. मूर्ति बन गयीं मायावती
    मायावती को बहनजी का नाम इसलिए दिया गया था क्योंकि राजनीति के शुरुआती दौर में उनका पब्लिक कनेक्ट बहुत बेहतर था. सत्ता में आने के बाद मायावती का ये पब्लिक कनेक्ट खत्म हो गया. कार्यकर्ताओं से उनका संवाद ठप हो गया या फिर उसके बीच में कोई माध्यम पैदा हो गया. इस चुनाव में भी मायावती ज्यादातर इनडोर मीटिंग से ही संतुष्ट रहीं. बसपा के कार्यकर्ता सबसे ज्यादा इससे आहत रहे हैं.
  5. सपा गठबंधन से अलगाव
    जिस सपा के साथ गठबंधन करके मायावती ने लोकसभा 2019 में 10 सीटें जीतीं उससे अकारण गठबंधन तोड़ लिया. यदि दोनों पार्टियां साथ लड़ी होतीं तो नतीजे कुछ और हो सकते थे. ऐसे ही एकतरफा फैसले मायावती पार्टी के भीतर भी लेती रही हैं. सारे बड़े नेता एक एक करके पार्टी छोड़ते गये.

मायावती को शायद मध्य मार्ग पसंद नहीं जो राजनीति में बहुत जरूरी माना जाता है. जाहिर है अलग अलग वोटर समूहों के टूटने से बसपा के जीतने के अवसर कम होते गये. बसपा कभी भी सिर्फ दलित वोट बैंक से नहीं जीती. इसीलिए कांशीराम ने पिछड़े नेताओं की गोलबन्दी कर रखी थी. ऊपर से मुसलमान और ब्राह्मण वोटरों का साथ बसपा के लिए वरदान साबित होता रहा. मायावती इन रसायनिक घटकों को सहेज नहीं पायीं, लेकिन अभी और बड़ा संकट बसपा के दरवाजे पर दस्तक दे रहा है. मायावती फिर से सक्रियता के पुराने दौर में लौट नहीं सकती. ऐसे में लगातार हारती जा रही पार्टी को कौन वोट देना चाहेगा. जाहिर है जाटव वोटर भी अपनी सहूलियत के हिसाब से सपा और भाजपा की ओर और तेजी से रूख कर लेगा. जबकि चन्द्रशेखर रावण अभी इस स्थिति में नहीं है कि इतने बड़े समूह को समेट सकें.

साल 2007 में बसपा ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनायी थी. तब उसे 206 सीटें मिली थीं और उसका वोट शेयर तीस फीसदी से ज्यादा था. अगले पांच साल की सरकार के बाद साल 2012 में बसपा सत्ता से तो बाहर हो गयी, लेकिन उसे 80 सीटें मिली थीं. उसके वोट शेयर में महज चार फीसदी की ही गिरावट आयी थी. अगले पांच साल बाद 2017 के चुनाव में मायावती की सीटें और कम हो गयीं. बसपा 19 तक ठहर गयी, लेकिन उसका वोट शेयर फिर भी 20 फीसदी के ऊपर बरकरार रहा. साल 2022 के चुनाव में तो ऐसी सुनामी आयी कि बसपा का नामोनिशान ओझल हो गया है. अब 12.8 फीसदी वोट शेयर के साथ सिर्फ एक सीट पर बसपा को संतोष करना पड़ा है. इस करारी शिकस्त के बाद मायावती ने अपने काडर को उम्मीद बंधाई है कि उन्हें अपना मनोबल नीचे नहीं करना है.

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