अमेरिका में महंगाई, दुनिया की चिंता गहराई.. क्या फिर आएगी मंदी और बढ़ेगी बेरोजगारी?

रूस-यूक्रेन (Russia-Ukraine War) जरूर लड़ रहे हैं लेकिन बम अमेरिका (Inflation in America) में फूट रहे हैं. ये कोई लड़ाई में इस्तेमाल होने वाला बम नहीं बल्कि महंगाई का बम है. अमेरिका में महंगाई का आलम ये है कि वहां की सरकार और सेंट्रल बैंक जिसे फेडरल रिजर्व कहते हैं वो एड़ी चोटी का जोर लगा चुके हैं लेकिन हालात काबू में नहीं आ रहे. कल जारी हुए महंगाई के ताजा आंकड़े देखें तो हालात काफी बिगड़ गए हैं.

अगस्त में रिटेल महंगाई दर बढ़कर 8.3% पहुंच गई है. इसके 8.1% रहने का अनुमान था. उम्मीद की जा रही थी कि दुनिया में कच्चे तेल के दाम गिरे हैं जिसके चलते अमेरिका में महंगाई भी घटेगी लेकिन हुआ बिल्कुल उलट. फ्यूल की महंगाई तो घटी लेकिन फूड, हाउसिंग, मेडिसीन ने मुसीबत बढ़ा दी. इन तीनों के दामों में जमकर उछाल आया. इन तीनों का पूरी महंगाई में आधा हिस्सा है. इसका असर ये हुआ कि कोर महंगाई दर 6.3 परसेंट पर पहुंच गई. कोर महंगाई दर में फूड और फ्यूल शामिल नहीं होते. इस आंकड़े पर भी नीति निर्माताओं पॉलिसी मेकर्स की नजर होती है.

मुसीबत खत्म होती नहीं दिख रही
महंगाई के इस आंकड़े के बाद अब फेडरल रिजर्व की नींद उड़ गई है. फेडरल रिजर्व की बैठक 20-21 सितंबर को होनी है. अनुमान था कि इस बैठक में फेडरल रिजर्व तीन चौथाई परसेंट ब्याज दरें बढ़ाएगा. लेकिन दिग्गज ब्रोकरेज कंपनी नोमुरा के मुताबिक फेडरल रिजर्व कम से कम 1 परसेंट दरें पक्का बढ़ाएगा. फेडरल रिजर्व के चेयरमैन साफ कह चुके हैं अभी उन्हें कुछ नहीं दिख रहा, पहला मकसद सिर्फ महंगाई काबू करना है फिर चाहे ग्रोथ की कुर्बानी क्यों ना देनी पड़े. बताते चलें कि फेडरल रिजर्व का महंगाई का लक्ष्य 2 परसेंट है और अभी अमेरिका में महंगाई 8.6 परसेंट है. Ansid कैपिटल के मैनेजिंग पार्टनर अनुराग सिंह के मुताबिक महंगाई की बस आगे भाग रही है और उसे पकड़ने के लिए फेडरल रिजर्व पीछे भाग रहा है और चाहकर भी पकड़ नहीं पा रहा.

खुद मंदी चाहता है अमेरिका
क्या आपने कभी सुना है कि कोई देश खुद अपनी अर्थव्यवस्था को बैठाना चाहता है.. नहीं ना, लेकिन अमेरिका में ऐसा नहीं है. बाइडेन सरकार और फेडरल रिजर्व दोनों चाहते हैं कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था मंदी में चली जाए. दोनों का मानना है कि ऐसा करके ही गर्म भट्टी की तरह जल रही अर्थव्यवस्था को ठंडा किया जा सकता है. इस कदम के जरिए ही महंगाई के दानव को काबू में लाया जा सकता है. लेकिन कोई भी कदम काम नहीं आ रहा. फेडरल रिजर्व लगातार दरें बढ़ाकर अर्थव्यवस्था से नकदी सोख रहा है. इस साल तीन बार फेडरल रिजर्व दरों में बढ़ोतरी कर चुका है. दूसरे तरीकों से भी कोरोना के वक्त डाली गई नकदी को लगातार वापस लिया जा रहा है. लेकिन काम कुछ नहीं आ रहा. अमेरिकी अर्थव्यवस्था कुछ ठंड़ी पड़ी है लेकिन उतनी नहीं जितनी सरकार चाहती है.

अमेरिका में महंगाई ने सबकी मुश्किल बढ़ाई
अब सवाल पैदा होता है कि अमेरिका में महंगाई बेकाबू है तो दुनिया टेंशन में क्यों है. ऐसा इसलिए क्योंकि अमेरिका दुनिया की अर्थव्यवस्था का बिग बॉस है. वहीं से ही दुनिया का आर्थिक पहिया चलता है. वो छींक भी मारता है तो बाकी दुनिया को फ्लू हो जाता है. चलिए आपको बताते हैं कि दिक्कत कहां हैं.

  1. ब्याज दरें बढ़ेंगी
    अमेरिका में महंगाई बढ़ेगी तो मजबूरन फेडरल रिजर्व ब्याज दरें बढ़ाएगा. फेड दरें बढ़ाएगा तो उससे कदमताल करते हुए बाकी देशों के सेंट्रल बैंक भी कर्ज महंगा करेंगे. यानि सीधे हमारी आपकी EMI बढ़ जाएगी.
  2. दुनिया में मंदी
    अमेरिका दुनिया का बॉस है और वो खुद अर्थव्यवस्था को बैठाना चाहता है. अमेरिका बैठेगा तो उसपर निर्भर बाकी देश भी बैठ ही जाएंगे. यानि दुनिया में भी मंदी का खतरा बढ़ेगा
  3. बेरोजगारी बढ़ने का खतरा
    मंदी बढ़ेगी तो नौकरियां कहां से आएंगी. जो हैं उनपर भी खतरा मंडराएगा. कंपनियों की भी मजबूरी है. दुनिया में धंधा ही मंदा हो जाएगा तो कारोबार कहां से बढ़ेगा. यानि कारोबार नहीं तो नौकरी नहीं.
  4. महंगाई और बढ़ेगी
    ब्याज दरों और डॉलर में सीधा रिश्ता होता है. ब्याज दरें बढ़ेंगी तो डॉलर और मजबूत होगा. भारत जैसे दूसरे विकसित देशों के लिए एनर्जी, दूसरी कमोडिटी इंपोर्ट करना महंगा हो जाएगा. क्योंकि दुनिया में ज्यादातर ट्रेड डॉलर में होता है तो सीधे-सीधे महंगाई और बढ़ जाएगी.
  5. कर्जदार देशों पर आफत
    श्रीलंका, पाकिस्तान, लाओस, वेनेजुएला, गिनी जैसे देश जो पहले ही कर्ज की मार झेल रहे हैं. आगे उनकी मुसीबत और बढ़ेगी. डॉलर महंगा यानि कर्ज उतरना और महंगा. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक 94 देशों के 160 करोड़ लोग खाद्य, एनर्जी, फाइनेंस की किल्लत से जूझ रहे हैं. डॉलर महंगा हुआ तो इन सबका जीना और मुहाल हो जाएगा.

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यही सब कारण है कि पूरी दुनिया और सारे फाइनेंशियल मार्केट की नजर सिर्फ और सिर्फ अमेरिका पर टिकी हैं. यहीं से तय होता कि बाकी दुनिया का आगे का हाल क्या होगा.

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