भारत में 1975 के आपातकाल को कहा जाता है लोकतंत्र का काला अध्याय, जानिए क्यों?

आपातकाल, EMERGENCY. हिंदी और अंग्रेजी के ये दो शब्द 2014 के बाद भारतीय राजनीति में आम हो गए हैं. इन दोनों शब्दों को मौके-दर-मौके या यूं कहें कि हर मौकों पर इतनी चर्चा की जाती है कि आज के बच्चे भी इनसे परिचित हो गए हैं. यह बात दीगर है कि उन्हें इस आपातकाल या फिर इमरजेंसी के बारे में भले ही जानकारी न हो. उन्हें यह बताना भी जरूरी है कि आखिर आज के दौर में करीब-करीब प्रत्येक राजनीतिक मंचों पर आपातकाल या इमरजेंसी की इतनी चर्चा क्यों की जाती है और उससे भी ज्यादा जरूरी यह है कि इस आपातकाल को भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय क्यों कहा जाता है?

कब लगा आपातकाल
आज से ठीक 47 साल पहले 25 जून 1975 को भारत में आपातकाल लागू करने की घोषणा की गई थी. यह आपातकाल पूरे देश में 21 महीने के लिए लगाया था. उस समय कांग्रेस की नेता इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं. मीडिया की रिपोर्ट्स और इतिहासकारों द्वारा बताया जाता है कि तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने इंदिरा गांधी के कहने पर संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल लागू करने का ऐलान किया था. आजादी के बाद देश में लागू होने वाले आपातकालों में 25 जून 1975 वाले या इंदिरा गांधी वाले आपातकाल को विवादास्पद और अलोकतांत्रिक करार दिया गया. इसे लागू करने की घोषणा के बाद राजनीतिक तौर पर इंदिरा गांधी के घोर विरोधी और आपातकाल की मुखालफत करने वाले जयप्रकाश नारायण या जेपी ने इसे भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का काला अध्याय कहा था.

आपातकाल लगाने के तात्कालिक कारण क्या हैं?
इतिहासकारों और मीडिया की रिपोर्ट्स की मानें, तो भारत में वर्ष 1967 से 1971 के बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संसद में बहुमत के बूते सत्ता और राजनीति का ध्रुवीकरण कर दिया था. बताया जाता है कि प्रधानमंत्री सचिवालय से ही सत्ता संचालित की जाती थी और उसी सचिवालय के अंदर सरकार की सारी शक्तियों को केंद्रित कर दिया गया था. कहा यह भी जाता है कि उस समय इंदिरा गांधी के प्रमुख सिपहसालार और प्रधान सचिव परमेश्वर नारायण हक्सर या पीएन हक्सर के हाथों में सत्ता की चाबी थी, क्योंकि इंदिरा गांधी पीएन हक्सर पर सबसे अधिक भरोसा करती थीं. इसके साथ ही, इंदिरा गांधी भारत की राजनीति और सत्ता पर वर्चस्व बनाए रखने के लिए कांग्रेस को ही दो भागों में विभाजित कर दिया. वर्ष 1971 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी को गरीबी हटाओ के नारे पर प्रत्याशित जीत मिली. इसके चार साल के बाद वर्ष 1975 में 1971 के आम चुनाव में धांधली के आरोप में इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले के बाद भारतीय राजनीति में गरमाहट पैदा हो गई. हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी पर छह साल तक कोई भी पद संभालने पर प्रतिबंध लगा दिया गया. इसके बाद 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लगा दिया गया.

राजनारायण ने इंदिरा गांधी की जीत को दी थी चुनौती
वर्ष 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी ने अपने प्रतिद्वंद्वी राजनारायण को शिकस्त दी थी. चुनाव के नतीजे घोषित होने के चार साल बाद राजनारायण ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी. अपनी याचिका में उन्होंने दलील दी कि चुनाव में इंदिरा गांधी ने सरकारी तंत्र का इस्तेमाल किया है, निर्धारित सीमा से अधिक पैसे खर्च किए और मतदाताओं को लुभाने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया. अदालत ने राजनारायण के इन आरोपों को सही करार दिया और इंदिरा गांधी के खिलाफ अपना फैसला सुनाया, जिसमें उन्हें छह साल तक के लिए किसी पद को संभालने पर रोक लगा दी गई.

आपातकाल लागू होने के बाद की स्थिति
25 जून 1975 को भारत में आपातकाल के ऐलान के साथ ही सबसे पहले प्रेस पर सेंसरशिप लागू कर दिया गया. इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी के आदेश पर देश में नसबंदी कार्यक्रम की शुरुआत की गई. नागरिकों के सभी मौलिक अधिकारों को समाप्त कर दिया गया. सरकार के खिलाफ आवाज उठाने वाले राजनेताओं को जेल में डाला जाने लगा. ऐसे में ही, जयप्रकाश नारायण ने सरकार की नीतियों और आपातकाल के खिलाफ आंदोलन शुरू किया गया, जिसका नेतृत्व जयप्रकाश नारायण उर्फ जेपी ने की. इस आंदोलन के दौरान अपने भाषणों में जयप्रकाश नारायण ने आपातकाल को भारत के लोकतांत्रिक इतिहास की काली अवधि या काला अध्याय कहा. हालांकि, 21 महीने बाद 21 मार्च 1977 को आपातकाल को हटा लिया गया.

आपातकाल के आंदोलन में जेपी रहे मुख्य चेहरा
आपातकाल की बात की जा रही हो और उसमें जयप्रकाश नारायण या जेपी के नाम की चर्चा न हो, तो बेमानी हो जाती है. इंदिरा गांधी या यूं कहें कि पूरे गांधी परिवार और कांग्रेस के खिलाफ आवाज बुलंद करने वालों में जयप्रकाश नारायण प्रमुख चेहरा थे. उन्हें जेपी आंदोलन का जनक भी कहा जाता है. आज भारतीय राजनीति के प्रमुख नेताओं में लालू प्रसाद यादव, जॉर्ज फर्नांडीज, अरुण जेटली, रामविलास पासवान, शरद यादव, डॉ सुब्रमण्यम स्वामी जैसे कई नेताओं और छात्र नेताओं का उदय हुआ. इंदिरा गांधी ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, राजनारायण, लालकृष्ण आडवाणी, चौधरी चरण सिंह, मोरारजी देसाई, नानाजी देशमुख, एचडी देवगौड़ा, वीएम तारकुंडे, लालू प्रसाद यादव, जॉर्ज फर्नांडीज, अरुण जेटली, रामविलास पासवान, शरद यादव, डॉ सुब्रमण्यम स्वामी आदि को जेल में डाल दिया.

प्रेस और अभिव्यक्ति की आजादी पर सेंसरशिप
भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में इस बात की चर्चा मिलती है कि इंदिरा गांधी ने जब देश में आपातकाल की घोषणा की थी, हिंदी के अखबार जनसत्ता ने अपने संपादकीय पन्ने पर संपादक के कॉलम को खाली छोड़ दिया था. इसका खामियाजा यह रहा कि अखबार के इस विरोध के बाद उसके संपादक को जेल भेज दिया गया. इसके साथ ही, करीब 327 पत्रकारों को जबरन जेल में डाल दिया गया और करीब 3801 अखबारों को जब्त किया गया. इतना ही नहीं, 290 अखबारों के सरकारी विज्ञापन बंद कर दिए गए. टाइम पत्रिका और गार्जियन अखबार के 7 अंतरराष्ट्रीय पत्रकारों को भी भारत से बाहर निकाल दिया गया. भारतीय प्रेस परिषद को भी भंग कर दिया गया. पीटीआई, यूएनआई, हिंदुस्तान समाचार और समाचार भारती जैसी न्यूज एजेंसियों का विलय एक ही समाचार एजेंसी बनाई गई. सरकार ने सेंसरशिप कमेटी बना दी. उस दौरान तत्कालीन सूचना-प्रसारण मंत्री इंद्रकुमार गुजराल ने जब संजय गांधी के आदेशों को मानने से इनकार कर दिया, तो उन्हें कैबिनेट से बाहर कर दिया गया.

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