1971 में शरणार्थियों से बढ़ा था भारत का बजट, इंदिरा गांधी ने डाक टिकटों से जुटाए थे पैसे

CAB को लेकर असम की चिंताएं बढ़ती जा रही हैं। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के तमाम भरोसों के बावजूद आम असमवासियों को अंदेशा है कि इस बिल के अमल में आने के बाद असम आप्रवासियों, अवैध घुसपैठियों और शरणार्थियों से भर जाएगा। उन्हें आशंका है कि इससे उनकी सांस्कृतिक और भाषाई पहचान को क्षति पहुंचेगी। असमियों की इस चिंता की मूल वजह इतिहास के उन पन्नों में छिपी है, जिसमें 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद असम-बांग्लादेशी शरणार्थियों से पट गया था।

उस समय शरणार्थियों के लगातार बढ़ते खर्च से केंद्र सरकार परेशान हो गई थी। इससे निबटने के लिए न केवल उसे पांच पैसे-दस पैसे के विशेष स्टांप जारी करने पड़े थे और कुछ नए टैक्स भी लगाने पड़े थे, जिन्हें रिफ्यूजी रिलीफ टैक्स (RRT) या बांग्लादेश टैक्स कहा जाता था।

बांग्लादेश में पाकिस्तान की सेना ने ऑपरेशन सर्चलाइट चला रखा था। इसके तहत बांग्लादेशी नेताओं और आम लोगों को निशाना बनाकर उनका कत्ल किया जा रहा था। उनकी महिलाओं से बलात्कार हो रहा था और सड़कों पर खून बह रहा था। इससे बचने के लिए बांग्लादेशी नागरिकों, जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों शामिल थे, को भारत भाग कर आना पड़ रहा था।

अंतराष्ट्रीय बाध्यताओं के चलते भारत ने अपनी सीमा शरणार्थियों के लिए खोल दी थी, लेकिन लाखों की संख्या में लगातार भारत आ रहे शरणार्थियों को भोजन देना भी सरकार के लिए भारी पड़ रहा था। बढ़ते खर्च को देखते हुए भारत सरकार को अपना बजट भी 1971-72 और 1972-73 में 2192 करोड़ से बढ़ाकर 2839 करोड़ करना पड़ा था। इस बढ़े हुए खर्च को पूरा करने के लिए ही सरकार को RRT लगाना पड़ा था।

बढ़ते खर्च से निबटने के लिए ही केंद्र सरकार ने पांच पैसे और दस पैसे के विशेष स्टांप जारी किये थे। ये विशेष स्टांप नासिक के छापेखाने में तैयार किये जा रहे थे। भारत के पास उस समय तक 3000 बड़े डाकखानों की एक विशाल व्यवस्था थी, जिसके जरिये इसे बेचा जाना था। लेकिन नासिक से इन स्टांप को देश के कोने-कोने तक में लगातार पहुंचा पाना भी बड़ा काम था। अंततः डाकखानों के मुख्य अधिकारी को ही हस्तलिखित स्टांप जारी करने की अनुमति दी गई थी। जनता इस समस्या से बखूबी परिचित थी और वह लगातार इसमें अपना सहयोग दे रही थी। इस स्टाम्प से उस समय भी मिलिट्री वालों, नेत्र दिव्यान्गों और विशेष सेवा में लगे अधिकारियों को राहत दी गई थी।

7 दिसंबर 1970 को पाकिस्तान में पहली बार फेडरल लेवल के आम चुनाव कराए गये थे। पूरे पाकिस्तान में 313 सीटें थीं, जिनमें 169 पूर्वी पाकिस्तान और 144 पश्चिमी पाकिस्तान में थीं। इस चुनाव में आवामी लीग पार्टी को पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) में 169 में 167 सीटें प्राप्त हुईं। ज्यादा प्रभुत्व वाले पंजाब और सिंध के नेता बंगाली मुसलमानों की इस जीत को पचा नहीं पाए। इसके परिणामस्वरूप आवामी लीग के स्पष्ट बहुमत के बाद भी उसे सरकार बनाने का मौका नहीं मिला। दोनों पक्षों में इस मुद्दे पर काफी चर्चा के बाद भी कोई हल नहीं निकला।

25 मार्च 1971 को पाकिस्तानी सेना ने जनरल याहया खान के निर्देश पर पूर्वी पाकिस्तान में ऑपरेशन सर्च लाइट की शुरुआत कर दी। शेख मुजीबुर्रहमान को गिरफ्तार कर लिया गया। इससे एक तरफ नेताओं में विद्रोह की भावना भड़क उठी, वहीं आम आदमी अपनी जान बचाकर भागने को मजबूर हो गया।
23 अप्रैल 1971 को भारत ने संयुक्त राष्ट्र से शरणार्थियों की समस्या से निबटने में मदद मांगी। संयुक्त राष्ट्र की एक टीम ने मई 1971 में भारत का एक दौरा कर स्थिति का जायजा लिया। उस समय बांग्लादेशी शरणार्थियों के कैंप असम-त्रिपुरा ही नहीं, दिल्ली, यूपी के मेरठ, पश्चिम बंगाल और बिहार तक में फैले थे। लोगों की स्थिति भयावह थी। बिमारी और महामारी से लोग त्रस्त थे। ऐसे समय में भारत ने उन बांग्लादेशी मुस्लिमों की जान बचाने में अहम भूमिका निभाई जिन्हें धर्म के नाम पर ही हिन्दुस्तान से अलग किया गया था, लेकिन अपने ही सहधर्मियों के द्वारा उन पर अत्याचार किया जा रहा था।

शरणार्थियों को रोक पाना संभव नहीं था, लेकिन उनकी लगातार बढ़ती संख्या का भार भारत उठाने में सक्षम भी नहीं था। ऐसे में इंदिरा गांधी सरकार ने समस्या को उसकी मूल जगह पर ही निबटाने की युक्ति सोची। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 अप्रैल 1971 को विशेष इमरजेंसी मीटिंग बुलाई। इस मीटिंग में चीफ ऑफ इंडियन आर्मी स्टाफ फील्ड मार्शल मानेकशॉ भी शामिल थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनसे यह पूछा था कि क्या उन्हें यह मालूम है कि पूर्वी पाकिस्तान में नृशंस हत्याओं का दौर जारी है? और क्या इस स्थिति को रोकने के लिए पूर्वी पाकिस्तान में प्रवेश कर दिया जाना चाहिए। मानेक शॉ इस युद्ध के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे, लेकिन इंदिरा गांधी ने शरणार्थियों की समस्या को खत्म करने के लिए और पूर्वी पाकिस्तान में हो रहे अत्याचार को रोकने के लिए उन्हें पूर्वी पाकिस्तान में प्रवेश करने का आदेश दिया। इसके बाद जो हुआ वह एक इतिहास बन गया।

अमेरिका ने अपने मित्र देश पाकिस्तान की मदद के लिए आगे बढ़ने की कोशिश की। उसने अपने युद्धक फ्लोटीला को भेजा जिसके कारण दोनों देशों के बीच परमाणु युद्ध तक की आशंका जाहिर की जाने लगी। लेकिन इसी बीच USSR ने भारत से अपनी दोस्ती निभाई और अपनी सबमरीन भेज दी। इससे अमेरिका के बढ़ते कदम रूक गये।

महज 14 दिन के युद्ध के बाद पाकिस्तान को अपने 90000 सैनिकों के साथ भारत के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा। पाकिस्तान के लेफ्टिनेंट जनरल नियाजी और भारत के लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के बीच इसका समझौता हुआ। इस जीत के बाद इंदिरा गांधी की राजनीतिक छवि भारत में सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गई। भारत की जनता के बीच उन्हें ‘दुर्गा के अवतार’ के तौर पर देखा जाने लगा। हालांकि, अगर वे चाहतीं तो उसी समय कश्मीर का मुद्दा हमेशा के लिए वे खत्म कर सकती थीं, क्योंकि पाकिस्तान के 90000 सैनिक और उनके परिवार भारत के कब्जे में थे।

इन्हें छुड़ाने के लिए पाकिस्तानी सरकार पर बड़ा भारी दबाव था। अगर उसी दबाव का फायदा लेते हुए इंदिरा गांधी कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान को झुकने के लिए मजबूर करते हुए कोई समझौता कर लेतीं तो यह समस्या भी हमेशा के लिए खत्म हो जाती।

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