भगवान राम ने वनवास काल में की 2260 किलोमीटर की यात्रा, अब इन इलाकों में पर्यटन तीर्थ विकसित करेगी छत्तीसगढ़ सरकार

Chhattisgarh News: पौराणिक मान्यता के अनुसार 14 साल के वनवास के दौरान प्रभु राम ने लगभग 10 वर्ष का समय छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) में गुजारा था. वनवास काल में उन्होंने छत्तीसगढ़ में प्रवेश कोरिया (Korea) के सीतामढ़ी-हरचौका से किया था. उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ते हुए वे छत्तीसगढ़ के अनेक स्थानों से गुजरे. सुकमा का रामाराम उनका अंतिम पड़ाव था. प्रभु राम वनवास काल के दौरान लगभग 2260 किलोमीटर की यात्रा की थी. ऐसे में छत्तीसगढ़ से जुड़ी भगवान राम के वनवास काल की स्मृतियों को सहेजने, संस्कृति और पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए सीएम भूपेश बघेल (CM Bhupesh Baghel) के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ सरकार (Chhattisgarh Government) ने राम वन गमन पर्यटन परिपथ परियोजना शुरू की गई है.

चंदखुरी के बाद अब शिवरीनारायण में भी विकास कार्य पूरा हो जाने से राज्य में पर्यटन तीर्थों की नयी श्रृंखला आकार ले रही है. रघुकुल शिरोमणि भगवान राम की जन्मभूमि अयोध्या है, लेकिन छत्तीसगढ़ उनकी कर्मभूमि है. वनवास काल के दौरान अयोध्या से प्रयागराज, फिर चित्रकूट और सतना गमन करते हुए भगवान राम ने दक्षिण कोसल यानी छत्तीसगढ़ के कोरिया जिले के भरतपुर पहुंचकर मवई नदी को पार कर दण्डकारण्य में प्रवेश किया. मवई नदी के तट पर बने प्राकृतिक गुफा मंदिर, सीतामढ़ी-हरचौका में पहुंचकर उन्होंने विश्राम किया.

इस तरह भगवान राम के वनवास काल का छत्तीसगढ़ में पहला पड़ाव भरतपुर के पास सीतामढ़ी-हरचौका को माना जाता है. छत्तीसगढ़ की पावन धरा में रामायण काल की अनेक घटनाएं घटित हुई हैं, जिसका प्रमाण यहां की लोक संस्कृति, लोक कला, दंत कथा और लोकोक्तियां हैं. कोरिया जिले का सीतामढ़ी भगवान राम के वनवास काल के पहले पड़ाव के नाम से भी प्रसिद्ध है. पौराणिक और ऐतिहासिक ग्रंथों में रामगिरि पर्वत का उल्लेख आता है. सरगुजा जिले का यही रामगिरि-रामगढ़ पर्वत है. यहां स्थित सीताबेंगरा-जोगीमारा गुफा को विश्व का सबसे प्राचीन रंगशाला माना जाता है. मान्यता है कि वन गमन काल में भगवान राम के साथ मां सीता ने यहां कुछ समय व्यतीत किया था, इसीलिए इस गुफा का नाम सीताबेंगरा पड़ा.

पहले चरण में इन जगहों को किया जा रहा है विकसित

राम वन गमन पर्यटन परिपथ के अंतर्गत पहले चरण में सीतामढ़ी-हरचौका (जिला कोरिया), रामगढ़ (जिला सरगुजा), शिवरीनारायण (जिला जांजगीर-चांपा), तुरतुरिया (जिला बलौदाबाजार-भाटापारा), चंदखुरी (जिला रायपुर), राजिम (जिला गरियाबंद), सप्तऋषि आश्रम सिहावा (जिला धमतरी), जगदलपुर (बस्तर) और रामाराम (जिला सुकमा) को विकसित किया जा रहा है. छत्तीसगढ़ में जांजगीर-चांपा जिले में प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण शिवनाथ, जोंक और महानदी का त्रिवेणी संगम स्थल शिवरीनारायण है. शिवरीनारायण धार्मिक, ऐतिहासिक और पौराणिक नगरी के रूप में प्रसिद्ध है.

इस विष्णुकांक्षी तीर्थ का संबंध शबरी और नारायण होने के कारण इसे शबरी नारायण या शिवरीनारायण कहा जाता है. यहां नर-नारायण और माता शबरी का मंदिर है, जिसके पास एक ऐसा वट वृक्ष है, जो पत्ते दोने के आकार के हैं. इस स्थान की महत्ता इस बात से पता चलती है कि देश के चार प्रमुख धाम बद्रीनाथ, द्वारका, जगन्नाथपुरी और रामेश्वरम के बाद इसे पांचवे धाम की संज्ञा दी गई है. यह स्थान भगवान जगन्नाथ का मूल स्थान है, इसलिए छत्तीसगढ़ के जगन्नाथपुरी के रूप में प्रसिद्ध है. यहां प्रभु राम का नारायणी रूप गुप्त रूप से विराजमान है, इसलिए यह गुप्त तीर्थधाम या गुप्त प्रयागराज के नाम से भी जाना जाता है.

राजा शबर ने करवाया था नर-नारायण मंदिर का निर्माण

शिवरीनारायण का मंदिर समूह दर्शनीय है. यहां की स्थापत्य कला और मूर्तिकला बेजोड़ है. यहां नर-नारायण मंदिर है, इसका निर्माण राजा शबर ने करवाया था. यह मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है. केशवनारायण मंदिर ईंटों से बना है, यह पंचरथ विन्यास पर भूमि शैली पर निर्मित है. यहां चंद्रचूड़ महादेव मंदिर, जगन्नाथ मंदिर भी दर्शनीय है. यह पुरी के जगन्नाथ मंदिर के समान दिखता है. शिवरीनारायण शहर से लगे ग्राम खरोद में ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व के अनेक मंदिर हैं, इनमें मुख्य रूप से दुल्हादेव मंदिर, लक्ष्मणेश्वर मंदिर, शबरी मंदिर प्रसिद्ध है.

पुरी की तर्ज पर रथ यात्रा का आयोजन

शिवरीनारायण शैव, वैष्णव धर्म का प्रमुख केन्द्र रहा है. यह स्थान भगवान जगन्नाथ का मूल स्थान होने के कारण यहां रथयात्रा का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है. ऐसी मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ की विग्रह मूर्तियों को यहीं से जगन्नाथपुरी ले जाया गया था. यहां पुरी की तर्ज पर रथ यात्रा का आयोजन होता है. इसमें छत्तीसगढ़ के अलावा अन्य राज्यों के साधु-संत और श्रद्धालु शामिल होते हैं. शोधार्थियों के अनुसार त्रेतायुगीन छत्तीसगढ़ दक्षिण कोसल और दण्डकारण्य के रूप में विख्यात था. दण्डकारण्य में प्रभु राम के वनगमन यात्रा की पुष्टि वाल्मीकि रामायण से होती है. शोधकर्ताओं के शोध से प्राप्त जानकारी अनुसार प्रभु राम ने उत्तर भारत से छत्तीसगढ़ में प्रवेश करने के बाद छत्तीसगढ़ में अलग-अलग स्थानों का भ्रमण करने के बाद दक्षिण भारत में प्रवेश किया गया था. इस लिए छत्तीसगढ़ को दक्षिणापथ भी कहा जाता है.

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