पुण्यतिथि:देश,समाज,किसान और गरीब के लिए जीवनभर संघर्ष करते रहे चौधरी चरण सिंह

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और किसान मसीहा के रूप में विख्यात चौधरी चरण सिंह की आज 33वीं पुण्यतिथि है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ व उत्तर प्रदेश के भाजपा अध्यक्ष स्वतंत्रदेव सिंह ने शुक्रवार को ट्वीटर कर किसान मसीहा को श्रद्धांजलि अर्पित की। देश की आजादी से लेकर इंदिरा गांधी के आपातकाल तक और आजाद भारत में किसानों, गरीबों और समाज के दबे-कुचले लोगों की बेहतरी के लिए चौधरी चरण सिंह आजीवन संघर्ष करते रहे। इसी का परिणाम है कि उन्हें आज भी किसानों का सच्चा हितैषी और किसान नेता के रूप में याद किया जाता है। इंदिरा के आपात काल का तीखा विरोध करने वाले चौधरी चरण सिंह कांग्रेस के ही सहयोग से 28 जुलाई 1979 में देश के प्रधानमंत्री बने।

हालांकि उनका कार्यकाल बेहद छोटा रहा। राजनीतिक दांव-पेच के चलते करीब 5 महीने बाद ही 23 दिसंबर 1980 को चरण सिंह सरकार गिर गयी। वह देश के उप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री भी रहे। चौधरी चरण सिंह उत्तर प्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री भी रहे। समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव ने राजनीति ककहरा चौधरी चरण सिंह के सानिध्य में रहकर ही सीखा। चौधरी चरण सिंह को राम मनोहर लोहिया का विशेष सानिध्य प्राप्त था। वर्तमान समय में उनके पुत्र चौधरी अजीत सिंह केन्द्रीय मंत्री रह चुके हैं। जबकि उनके पोते जयंती चौधरी भी राजनीति में सक्रिय हैं। जयंत चौधरी राष्ट्रीय लोक दल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं।

चौधरी चरण सिंह का जन्म 23 दिसंबर 1902 को गाजियाबाद के हापुड. स्थित नूरपुर गांव में हुआ था। जाट परिवार में जन्मे चौधरी चरण सिंह के पिता चौधरी मीर सिंह एक किसान थे। मीर सिंह ने शुरूआत से ही बेटे की शिक्षा और संस्कारों पर काफी ध्यान दिया। आगरा विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री हासिल करने के बाद 1928 में युवा चौधरी चरण सिंह ने गाजियाबाद में वकालत शुरू की। यह वह समय था जब देश में आजादी का आंदोलन तीब्र हो गया था। 1929 में ही कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य का नारा दिया गया। जिससे प्रभावित होकर चरण सिंह ने गाजियबाद में कांग्रेस कमेटी गठित की और आजादी के आन्दोलन में सक्रिय हो गए। चरण सिंह भी कांग्रेस के सदस्य बन गए। कांग्रेस में उनकी छवि एक कुशल कार्यकर्ता के रूप में स्थापित हुई। इसी बीच चरण सिंह का विवाह जाट परिवार की बेटी गायत्री के साथ हो गया। 1937 के विधानसभा चुनाव में चौधरी चरण सिंह छत्रवाली विधानसभा क्षेत्र से निर्वाचित हुए।

उन्होंने छत्रवाली विधानसभा सीट से 9 वर्ष (अर्थात् 1946) तक क्षेत्रीय जनता का कुशलतापूर्वक प्रतिनिधित्व किया। देश की आजादी के बाद वह राष्ट्रीय स्तर के नेता तो नहीं बन सके, लेकिन राज्य विधानसभा में उनका प्रभाव स्पष्ट महसूस किया जाता था। आजादी के बाद 1952, 1962 और 1967 में हुए चुनावों में चौधरी चरण सिंह राज्य विधानसभा के लिए पुनः चुने गए। चरण सिंह की योग्यता से पार्टी का शीर्ष नेतृत्व भी प्रभावित रहा। पंडित गोविन्द वल्लभ पंत की सरकार में इन्हें पार्लियामेंटरी सेक्रेटरीशिप भी प्राप्त हुई। संसदीय सचिव की भूमिका में इन्होंने राजस्व, न्याय, सूचना, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य आदि विभागों के दायित्वों का निर्वहन पूरी निष्ठा के साथ किया।

चौधरी चरण सिंह का राजनीतिक भविष्य 1951 में बनना आरम्भ हो गया था, जब इन्हें उत्तर प्रदेश में कैबिनेट मंत्री का पद प्राप्त हुआ। उन्होंने न्याय एवं सूचना विभाग सम्भाला। 1952 में डॉक्टर सम्पूर्णानंद के मुख्यमंत्रित्व काल में उन्हें राजस्व तथा कृषि विभाग का दायित्व मिला। वह जमीन से जुड़े नेता थे और कृषि विभाग उन्हें विशिष्ट रूप से पसंद था। चरण सिंह स्वभाव से भी कृषक थे। वह कृषक हितों के लिए अनवरत प्रयास करते रहे। 1960 में चंद्रभानु गुप्ता की सरकार में उन्हें गृह तथा कृषि मंत्रालय दिया गया।

उत्तर प्रदेश के किसानों के बन गए मसीहा
चौधरी चरण् सिंह उत्तर प्रदेश की जनता के मध्य अत्यन्त लोकप्रिय थे। इसीलिए प्रदेश सरकार में योग्यता एवं अनुभव के कारण उन्हें ऊँचा मुकाम हासिल हुआ। उत्तर प्रदेश के किसान चरण सिंह को अपना मसीहा मानने लगे थे। उन्होंने कृषकों के कल्याण के लिए काफी कार्य किए। समस्त उत्तर प्रदेश में भ्रमण करते हुए कृषकों की समस्याओं का समाधान करने का प्रयास किया। उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में कृषि मुख्य व्यवसाय था। कृषकों में सम्मान होने के कारण इन्हें किसी भी चुनाव में हार का मुख नहीं देखना पड़ा। उस समय तक उत्तर प्रदेश की सिंचाई व्यवस्था में सुधार की बहुत काफी आवश्यकता थी, इस कारण चरण सिंह कृषि के स्तर को बहुत ज्यादा उन्नत नहीं कर पाए। फिर भी उनका समर्पण असंदिग्ध था।

वह लोगों के लिए एक राजनेता से ज्यादा सामाजिक कार्यकर्ता थे। उन्हें भाषण कला में भी महारत हासिल थी। यही कारण है कि उनकी जनसभाओं में भारी भीड़ जुटा करती थी। 1966 में सुचेता कृपलानी की सरकार में उन्हें मंत्री पद तो प्राप्त हो गया लेकिन कम महत्त्वपूर्ण विभाग मिले। 1969 में कांग्रेस का विघटन हो गया। चौधरी चरण सिंह कांग्रेस (ओ) के साथ जुड़ गए। इनकी निष्ठा कांग्रेस सिंडीकेट के प्रति रही। फिर वह कांग्रेस (ओ) के समर्थन से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री निर्वाचित हो गए, लेकिन बहुत समय तक मुख्यमंत्री पद पर नहीं रहे।

किसान हितैषी निर्णयों में निभाई महत्वपूर्ण भूमिका
कांग्रेस के विभाजन का प्रभाव उत्तर प्रदेश राज्य की कांग्रेस पर भी पड़ा। केन्द्रीय स्तर का विभाजन राज्य स्तर पर भी लागू हुआ। कांग्रेसी नेता अपनी-अपनी निष्ठा के अनुसार इंदिरा कांग्रेस और सिंडीकेट कांग्रेस के साथ जुड़ गए। चूंकि चौधरी चरण सिंह इंदिरा गांधी के सहज विरोधी थे, इस कारण वह कांग्रेस (ओ) के कृपापात्र बन गए। जिस समय इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं, उस समय भी उत्तर प्रदेश संसदीय सीटों के मामले में बड़ा और महत्त्वपूर्ण राज्य था। फिर यह इंदिरा गांधी का गृह प्रदेश भी था। इस कारण उन्हें यह स्वीकार नहीं था कि कांग्रेस (ओ) का कोई व्यक्ति उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री रहे।

इसलिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 2 अक्टूबर, 1970 को उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया। चौधरी चरण सिंह का मुख्यमंत्रित्व जाता रहा। इससे इंदिरा गांधी के प्रति चौधरी चरण सिंह का रोष और दुर्भावना बढ़ गयी। लेकिन उत्तर प्रदेश की जमीनी राजनीति से चरण सिंह को बेदखल करना सम्भव नहीं था। वह उत्तर प्रदेश में भूमि सुधार के लिए अग्रणी पुरुष माने जाते थे। 1939 में कृषकों के कर्ज मुक्ति विधेयक को पारित कराने में चरण सिंह की निर्णायक भूमिका थी। 1960 में उन्होंने भूमि हदबंदी कानून को लागू कराने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

1977 में चुनाव के बाद जब केन्द्र में जनता पार्टी सत्ता में आई तो किंग मेकर जयप्रकाश नारायण के सहयोग से मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने और चरण सिंह को देश का गृह मंत्री बनाया गया। इसी के बाद मोरारजी देसाई और चरण सिंह के मतभेद खुलकर सामने आए। इस प्रकार 28 जुलाई, 1979 को चैधरी चरण सिंह समाजवादी पार्टियों तथा कांग्रेस (यू) के सहयोग से प्रधानमंत्री बनने में सफल हुए। काँग्रेस इं और सी. पी. आई. ने इन्हें बाहर से समर्थन प्रदान किया। यह तो स्पष्ट है कि यदि इंदिरा गांधी का समर्थन चैधरी चरण सिंह को न प्राप्त होता तो वह किसी भी स्थिति में प्रधानमंत्री नहीं बन सकते थे। राजनीति की विशेषता है कि इसमें स्थायी मित्रता एवं स्थायी शत्रुता का स्थान नहीं होता। विरोधी लोग भी मित्र बन जाते हैं और मित्र लोग विरोधी। राजनीति की यह विशेषता इस काल में खास तौर पर देखी जा सकती थी। कभी मोरारजी देसाई और चैधरी चरण सिंह जनता दल के स्तम्भ थे तथा परम मित्र भी।

प्रधानमंत्री रहते एक भी बार नहीं गए संसद
इंदिरा गांधी जानती थीं कि मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह के रिश्ते खराब हो चुके हैं। यदि चरण सिंह को समर्थन देने की बात कहकर बगावत के लिए मना लिया जाए तो जनता पार्टी में बिखराव आरम्भ हो जाएगा। इसलिए इंदिरा गांधी ने चौधरी चरण सिंह की प्रधानमंत्री बनने की भावना को हवा दी। चरण सिंह ने इंदिरा गांधी की बात मान ली। वह 28 जुलाई 1979 को प्रधानमंत्री बने। लेकिन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने यह स्पष्ट कह दिया कि वह लोकसभा में अपना बहुमत 20 अगस्त, 1979 तक सिद्ध करें। इस प्रकार विश्वास मत प्राप्त करने के लिए उन्हें मात्र 13 दिन ही मिले थे। लेकिन इंदिरा गांधी ने 19 अगस्त, 1979 को बिना बताए समर्थन वापस लिए जाने की घोषणा कर दी।

अब यह प्रश्न नहीं था कि चैधरी साहब किसी भी प्रकार से विश्वास मत प्राप्त कर लेंगे। वह जानते थे कि विश्वास मत प्राप्त करना असम्भव था। यहाँ पर यह बताना प्रासंगिक होगा कि इंदिरा गांधी ने समर्थन के लिए शर्त लगाई थी। उसके अनुसार जनता पार्टी सरकार ने इंदिरा गांधी के विरुद्ध जो मुकदमे कायम किए हैं, उन्हें वापस ले लिया जाए। लेकिन चैधरी साहब इसके लिए तैयार नहीं हुए थे। इस प्रकार की गलत सौदेबाजी करना चरण सिंह को कबूल नहीं था। इसीलिए उनकी प्रधानमंत्री की कुर्सी चली गयी। इस तरह संसद का एक बार भी सामना किए बिना चैधरी चरण सिंह ने प्रधानमंत्री पद का त्याग कर दिया।

लाल फीताशाही और भ्रष्टाचार के प्रबल विरोधी
चौधरी चरण सिंह की व्यक्तिगत छवि एक ऐसे देहाती पुरुष की थी जो सादा जीवन और उच्च विचार में विश्वास रखता था। इस कारण इनका पहनावा एक किसान की सादगी को प्रतिबिम्बित करता था। एक प्रशासक के तौर पर उन्हें बेहद सिद्धान्तवादी और अनुशासनप्रिय माना जाता था। वह सरकारी अधिकारियों की लाल फीताशाही और भ्रष्टाचार के प्रबल विरोधी थे। चरण सिंह सामाजिक न्याय के पोषक और लोक सेवा भावना से ओत-प्रोत रहे। वह जिस कार्य को करने का मन बना लेते थे, फिर उसे पूरा करके ही रहते थे। चौधरी चरण सिंह राजनीति में स्वच्छ छवि रखने वाले इंसान थे। वह अपने समकालीन लोगों के समान गांधीवादी विचारधारा में विश्वास रखते थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गांधी टोपी को कई बड़े नेताओं ने त्याग दिया था लेकिन चैधरी चरण सिंह ने इसे जीवन पर्यन्त धारण किए रखा।

देहाती छवि वाले चरण सिंह ने कई अंग्रेजी किताबें लिखी
बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि चरण सिंह एक कुशल लेखक की आत्मा भी रखते थे। उनका अंग्रेजी भाषा पर अच्छा अधिकार था। उन्होंने अबॉलिशन ऑफ जमींदारी, लिजेण्ड प्रोपराइटरशिप और इंडियास पॉवर्टी एण्ड इट्स सोल्यूशंस नामक पुस्तकों का लेखन भी किया। जनवरी 1980 में इंदिरा गांधी का पुरागमन चरण सिंह की राजनीतिक विदाई का महत्त्वपूर्ण कारण बना, यद्यपि वह ग्रामीणों के परामर्शदाता बनकर लोक कल्याण करते रहे।

मृत्यु
लोक कल्याण के संघर्ष के बीच कई दशक बीत चुके थे। अब उम्र अपना असर दिखाने लगी थी। अन्ततः 29 मई, 1987 को उनकी जीवन यात्रा का रथ थम गया। 84 वर्ष से अधिक उम्र पाने वाला वह किसान नेता मृत्यु के आगोश में चला गया। वह गांधीवादी विचारधारा के साथ ही अन्त तक अपना जीवन निर्वाह करते रहे। उनमें देश के प्रति वफादारी का भाव था। वह कृषकों के सच्चे शुभचिन्तक थे। इतिहास में इनका नाम प्रधानमंत्री से ज्यादा एक किसान नेता के रूप में जाना जाएगा।

पुरखों ने 1887 की प्रथम क्रान्ति में लिया था भाग
कहा जाता है कि चौधरी चरण सिंह के पुरखे महाराजा नाहर सिंह ने 1887 की प्रथम क्रान्ति में विशेष योगदान दिया था। महाराजा नाहर सिंह वल्लभगढ़ के निवासी थे, जो कि वर्तमान में हरियाणा में आता है। महाराजा नाहर सिंह को दिल्ली के चाँदनी चौक में ब्रिटिश हुकूमत ने फाँसी पर चढ़ा दिया था। तब अंग्रेजों के खिलाफ क्रान्ति की ज्वाला को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए महाराजा नाहर सिंह के समर्थक और चौधरी चरण सिंह के दादा उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले के पूर्ववर्ती क्षेत्र में आकर बस बए थे।

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