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Caste Census Benefits: जातीय जनगणना कराने पर क्यों आमादा हैं नीतीश-लालू? जानें… किसका होगा फायदा और किसे होगा नुकसान

जातीय जनगणना (Caste Census In Bihar) को लेकर बिहार में चाहे NDA हो या महागठबंधन, यूं कहिए कि RJD हो या JDU… इसे दोनों ही अपनी जीत बता रहे हैं। सवाल ये है कि आखिर क्यों नीतीश और लालू (Caste Census Meaning in Hindi) इसे कराने के लिए आमादा हैं? आखिर जातीय जनगणना के बाद ऐसा क्या हासिल होने वाला है जिसकी चाहत की ‘एडवांस बुकिंग’ तक चल रही है? आखिर क्यों जातीय जनगणना को लेकर बिहार में हर बात पर अलग राय रखने वाली पार्टियों की सोच एक जैसी है? आखिर ‘जात की बात’ (Caste Census Benefits) में ऐसा क्या है जिसमें बिहार के दलों को सियासी संजीवनी नजर आ रही है। आइए आपको बारी-बारी से बताते हैं।

‘जात की बात’ क्यों?
नीतीश कुमार और लालू यादव का इस पर तर्क है कि जातीय जनगणना के बाद वर्तमान स्थिति में किस जाति के कितने लोग हैं और उनकी क्या हालत है, ये स्पष्ट हो जाएगा। इससे आरक्षण का लाभ देने में भी सहूलियत होगी। वहीं केंद्र में सत्ताधारी पार्टी बार-बार सरदार वल्लभ भाई पटेल के उस बयान का हवाला देती है जिसमें उन्होंने 1952 में स्पष्ट तौर पर देश का गृहमंत्री रहते हुए संसद में कहा था कि ‘अगर हम जातीय जनगणना करते हैं तो देश का सामाजिक तानाबाना टूट जाएगा।’ यही कारण है कि बाद में भी सामाजिक-आर्थिक गणना होने के बाद भी उसे सार्वजनिक या फिर प्रकाशित नहीं किया गया।’

Caste Census: आज नहीं 140 साल से चल रही है ‘जात की बात’ 1881, 1931, द्वितीय विश्वयुद्ध और फिर 2011…

जातीय जनगणना के फायदे
जातीय जनगणना की बात करें तो इससे फायदे जरूर हैं। इन फायदों की बात बारी-बारी से करते हैं।
1-नए आंकड़े देंगे स्पष्ट जानकारी- अभी के दौर में बिहार में अलग-अलग जातियां अपनी तादाद को करीब-करीब कहकर बताती हैं। जैसे यादव करीब 16 फीसदी हैं तो ब्राह्मण तकरीबन 6 फीसदी और फलां जातियां इतनी। लेकिन इस जनगणना के बाद तस्वीर एकदम साफ हो जाएगी। करीब-करीब का फासला बिल्कुल ही खत्म हो जाएगा।
2- हर 10 साल की जनगणना में जाति शामिल नहीं- देश में हर एक दशक यानि 10 साल में एक बार जनगणना कराई जाती है। इसमें अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों की गिनती होती है, लेकिन पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग की गिनती के आंकड़े जारी नहीं किए जाते हैं। जातीय जनगणना से सरकार को विकास की योजनाओं का खाका खींचने में मदद मिलती है। यूं समझिए ये भी विकास का एक पैमाना ही है। लेकिन इसमें जाति के शामिल न होने से कई बार दिक्कतें भी सामने आती हैं। खासतौर पर बिहार में जहां जाति ही सबकुछ है। इस जनगणना से बिहार में विकास का ये पैमाना दुरुस्त हो जाएगा।
3-आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्थित का जायजा- जातीय जनगणना के बाद ये भी साफ हो सकता है कि कौन सी जाति आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्तर पर पिछड़ी हुई है। ऐसे में उन जातियों तक इसका सीधा लाभ पहुंचाने के लिए नए सिरे से योजनाएं बनाई जा सकती हैं। उन जातियों को समाज में उचित जगह दिलाने की कोशिश में ये जनगणना मददगार साबित होगी।

जातीय जनगणना के नुकसान
जाहिर है कि अगर किसी चीज का फायदा होता है तो उसके नुकसान भी। यूं ही थोड़े कहा गया है कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। ठीक इसी तरह से अगर जातीय जनगणना के फायदे हैं तो नुकसान भी। समझिए कैसे
1- राजनीतिक दलों की वोट बैंक बनकर रह जाएंगी जातियां- एक बार ये जनगणना आ जाएगी तो वो जातियां जो आजादी के दशकों बाद और 1931 की जनगणना के बाद अब पिछड़ी हुई पाई जाएंगी, वो राजनीतिक दलों के सीधे टार्गेट पर होंगी। यूं कहिए कि वोट बैंक, ऐसे में करीब-करीब सभी दल सिर्फ उसी वोट बैंक को हासिल करने की होड़ में लग जाएंगे। परिणाम ये होगा कि समावेशी यानि सबके विकास की अवधारणा को गहरी चोट पहुंचेगी। क्योंकि तब सामाजिक तराजू के पलड़े का बैलेंस बिगड़ने की स्थिति भी बन सकती है।
2- परिवार नियोजन कार्यक्रम को भी नुकसान की आशंका- जातीय जनगणना के बाद अगर किसी जाति या समाज को पता चला कि उनकी तादाद कम है, तो वो अपनी जनसंख्या बढ़ाने की होड़ में लग सकती हैं। जाहिर है कि इसका सीधा असर परिवार नियोजन कार्यक्रम पर पड़ेगा और जनसंख्या को काबू में रखने की कवायद को झटका लग सकता है। 1952 में तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इसी संदर्भ को भी जोड़ा था और सामाजिक तानाबाना टूटने की आशंका जाहिर की थी।

बिहार में अब सरकारी तौर पर ‘जात की बात’ यानि जातीय जनगणना पर काम शुरू हो चुका है। हालांकि अभी तो सुई सिर्फ नीतीश की सर्वदलीय बैठक पर ही आई है। लेकिन जल्द ही इस पर चर्चा और प्रक्रिया दोनों ही आगे बढ़ने की संभावना है। लेकिन सवाल ये है कि आखिर क्यों नीतीश और लालू दोनों ही राजनीति के दो ध्रुव होने के बाद एक मुद्दे पर राजी हैं? क्यों नीतीश ने इसे साख का मुद्दा बना लिया? आखिर जातीय जनगणना के बाद ऐसा क्या खास निकलने वाला है जिसको लेकर नीतीश अपनी राजनीतिक हठ छोड़ने को तैयार नहीं हैं? लेकिन इससे पहले ये भी जान लीजिए कि जातीय जनगणना कोई आज की बात नहीं बल्कि 140 साल पुरानी किताब है, जिसके पन्ने रह-रहकर उलटे जाते रहे हैं। तो चलिए, इस बार शुरू से नहीं बल्कि अभी से शुरू करते हैं।

नीतीश की हठ पर लालू भी क्यों राजी?
इसमें मजे की बात ये है कि हर बात पर अलग राय रखने वाले नीतीश और लालू दोनों ही इस पर एक साथ ताल ठोक रहे हैं। हाल ये हो गया कि राज्य में बीजेपी ने अपने स्टैंड को ताखे पर रख दिया और जेडीयू के साथ हो ली है। खैर, जातीय जनगणना को लेकर वैसे तो सरकारों का तर्क रहा है कि इससे एसी-एसटी और ओबीसी समेत उन पिछड़े वर्गों को आगे बढ़ाने में आसानी होगी जो अभी भी गरीबी या पिछले पायदान पर होने का दंश झेल रहे हैं। लेकिन सच तो यही है कि एक बार जातीय जनगणना हो जाने के बाद वोट बैंक का नए सिरे से जोड़-घटाव और गुणा-भाग करने में आसानी हो जाएगी। किस जाति के कितने वोट हैं और कहां ज्यादा ध्यान लगाना है, ये नेताओं और पार्टियों के लिए एकदम आसान हो जाएगा। लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है जो सीधे तौर पर OBC राजनीति से जुड़ता है।

140 साल पुरानी है ‘जात की बात’
अगर युवा पीढ़ी जातीय जनगणना को सिर्फ आज का मुद्दा या बात समझती है तो ये एक भ्रम है। ये बात एक सदी से भी ज्यादा पुरानी है। सन 1881 से ही जातीय जनगणना पर मंथन चलता आ रहा है। खुद सोच लीजिए कि तब से जब देश आजाद नहीं था और यहां ब्रितानिया हुकूमत यानि अंग्रेजों का शासन था। तब से लेकर अब तक 6 बार जनगणना कराई जा चुकी है और आखिरी जनगणना सिर्फ एक राज्य यानि कर्नाटक में कराई गई थी, हालांकि उसका नाम बदल दिया गया था। खुद गौर कीजिए इन आंकड़ों पर

भारत में जातीय जनगणना का इतिहास

भारत में पहली बार 1881 में जनगणना- भारत में पहली बार जातीय जनगणना 1881 में हुई थी। तब देश आजाद नहीं था और यहां अंग्रेजों का राज था। उस वक्त भारत की आबादी आज की एक चौथाई से भी कम यानि 25.38 करोड़ थी। तब से हर 10 साल पर जातीय जनगणना कराई जाने लगी।

1931 की जातीय जनगणना- साल 1931 में आखिरी बार जातीय जनगणना के आंकड़े जारी किए गए थे। ये एकीकृत बिहार-ओडिशा के समय हुई थी, तब राज्य में 23 से ज्यादा जातियां थीं। 1931 की जनगणना में सबसे ज्यादा यादव (34.55 लाख), फिर दूसरे नंबर पर ब्राह्मण (21 लाख) और भूमिहार ब्राह्मण (9 लाख लोग) थे। इसके अलावा 14.52 लाख कुर्मी, 14.12 लाख राजपूत, 12.96 लाख चर्म उद्योग से जुड़े लोग, 12.90 लाख पासवान समुदाय, 12.10 लाख तेली, 10.10 लाख खंडैत और 9.83 लाख जुलाहे थे।

1941 की जनगणना- सन 1941 में भी जातीय जनगणना कराई गई, ये पूरी भी हुई लेकिन उस वक्त द्वितीय विश्वयुद्ध चरम पर था, लिहाजा ये रिपोर्ट जारी ही नहीं हो पाई।

1951 की जनगणना- आजादी के बाद 1951 में देश की जनगणना फिर से कराई गई। जातिगत जनगणना का समर्थन करने वालों का तर्क है कि उस साल से अनुसूचित जाति औ जनजातिवार आंकड़े जारी किए जाते हैं जबकि OBC का आंकड़ा नहीं मिलता। 90 के दशक में वीपी सिंह की सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू कर दी थीं और पिछड़ों को आरक्षण दिया था। उसमें 1931 की जनगणना को आधार मानते हुए तब देश में 52 फीसदी ओबीसी का अनुमान लगाया गया था।

2011 में यूपीए सरकार ने कराई थी जातीय जनगणना- एक समय था जब 2011 में कांग्रेस की यूपीए सरकार ने जनगणना कराई थी। उस साल यानि2011 की जनगणना में भी जाति का आंकड़ा जुटाया गया था। सबकुछ तैयार था लेकिन कुछ कारणों का हवाला देकर इसे पब्लिश यानि सार्वजनिक किया ही नहीं गया। कहा तो जाता है कि 2011 की जनगणना में करीब 34 करोड़ लोगों के बारे में मिली जानकारी ही गलत है।

2015 में कर्नाटक में जातीय जनगणना- इसके बाद जब बीजेपी की NDA सरकार ने जातीय जनगणना पर अपनी राय अलग रखी तो 2015 में कर्नाटक में कांग्रेस की सिद्धारमैया की सरकार ने अपने खर्च पर जातीय जनगणना कराई। लेकिन संवैधानिक वजहों से इसका नाम सामाजिक-आर्थिक और शिक्षा सर्वेक्षण रखा गया। इसके लिए राज्य यानि कर्नाटक सरकार ने अपने खजाने से 162 करोड़ रुपए खर्च किए। लेकिन इसे भी अब तक जारी नहीं किया गया है। माना जा रहा है कि आनेवाले चुनावों में इसका बड़ा मुद्दा बनना तय है।

जातीय जनगणना की वाकई में जरूरत है या नही?
ये सवाल भी बड़ा अहम है। 90 साल से देश को पता नहीं है कि यहां किस जाति के कितने लोग हैं। यानि इस दौरान न जाने कितने लोग जन्मे और न जाने कितने ही मृत हुए। राजनीतिक तर्क चाहे जो भी हों लेकिन समाज के कई तबके ऐसा सोचते हैं कि उन्हें इस बात की जानकारी रखने का हक है कि उनकी आबादी कितनी है। अब सवाल उठता है कि क्या बिहार में भी अगर… फिर से हम लिख रहे हैं कि अगर जातीय जनगणना होती है तो क्या वो सार्वजनिक की जाएगी या उसका हाल भी कर्नाटक की रिपोर्ट की तरह ही होगा।

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