कोर्ट में अटक सकता है बिहार का 75 फीसदी आरक्षण, नीतीश सरकार के सामने बड़ी चुनौती

बिहार में लागू हुए 75 फीसदी आरक्षण को अदालत में चुनौती मिल सकती है। अगर मामला कोर्ट में गया तो नीतीश सरकार को इसकी जरूरत के बारे में मजबूत दलील देनी होगी। ऐसा न करने पर आरक्षण रद्द हो जाएगा।

बिहार में लागू हुए नए आरक्षण संशोधन विधेयक को कानूनी स्तर पर चुनौती अभी समाप्त नहीं हुई है। कानूनविदों का कहना है कि अगर 75 फीसदी आरक्षण वाले कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी गई, तो इसके गुण-दोष की समीक्षा नए सिरे से करते हुए कानूनी मानकों पर परखा जाएगा। इसमें अगर यह पास हो गया, तो यह लागू रह सकता है। अगर कानून के इस लिटमस टेस्ट में यह फेल हो जाता है, तो नीतीश सरकार को इसे वापस लेना पड़ सकता है। हालांकि, अभी इससे संबंधित कोई याचिका सुप्रीम कोर्ट में नहीं दी गई है।

हाईकोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता शमा सिन्हा का कहना है कि अगर 75 फीसदी आरक्षण कानून सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाती है, तो अदालत इससे जुड़े तीन पहलुओं की पड़ताल करेगी। नीतीश सरकार को यह बताना होगा कि किस अप्रत्याशित या असाधारण परिस्थिति को देखते हुए आरक्षण का दायरा बढ़ाया गया है। जाति आधारित आरक्षण को लेकर कुछ वर्ष पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने 1992 में इंदिरा सहनी के एक मामले में सुनवाई करते हुए अधिकतम 50 फीसदी की सीमा को निर्धारित कर दिया था। हालांकि इसमें यह भी कहा गया था कि किसी असाधरण या अप्रत्याशित परिस्थिति में इसे तोड़ा जा सकता है। ऐसे में नीतीश सरकार को इस परिस्थिति के बारे में विस्तार से कोर्ट को बताना होगा। इतनी मजबूत दलील देनी होगी कि 65 जातिगत फीसदी आरक्षण की नई व्यवस्था पूरी तरह से सत्यापित हो सके.

इसके अलावा आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट के स्तर से निर्धारित सभी मानकों के आधार पर इसे परखा जाएगा, अगर सभी मानकों पर यह खरा उतरता है, तो यह लागू रह जाएगा। साथ ही सुप्रीम कोर्ट यह भी देखेगा कि आरक्षण की यह नई व्यवस्था, कहीं से संवैधानिक मानदंडों या दायरों का हनन तो नहीं करती है। कोर्ट में मामला पहुंचने पर इन सभी मानकों पर परखने के बाद ही यह आगे टिका रहेगा, अन्यथा अन्य राज्यों की तरह यहां भी इसे वापस करना पड़ सकता है।

कुछ राज्यों में लग चुका है अड़ंगा

अतिरिक्त आरक्षण या किसी खास जाति विशेष को अधिक आरक्षण देने के प्रावधान को कई राज्यों ने लागू किया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में इसे चुनौती मिलने के बाद संबंधित राज्य सरकारों को इसे वापस करना पड़ा। कुछ राज्यों में इसमें कुछ संशोधन करके भी लागू किया गया है। इसमें झारखंड, कर्नाटक, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ जैसे कुछ राज्य खासतौर से शामिल हैं। हाल में मध्य प्रदेश सरकार ने ओबीसी आरक्षण को 14 प्रतिशत से बढ़ाकर 27 प्रतिशत करने की घोषणा की थी। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को नोटिस जारी किया था।

महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण के राज्य सरकार के आदेश और छत्तीसगढ़ में 4 वर्ष पूर्व ओबीसी आरक्षण को 14 से 27 फीसदी करने के सरकारी आदेश को सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया था। छत्तीसगढ़ में आरक्षण की सीमा बढ़ाने की घोषणा करने से 82 फीसदी तक आरक्षण कोटा पहुंच रहा था। हालांकि इस वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ में 59 प्रतिशत (ईडब्ल्यूएस के अलावा) आरक्षण की सीमा को मंजूरी दे दी है।

जाति के दायरे पर उठेगा सवाल

पटना जिला एवं सत्र न्यायालय के अधिवक्ता केडी मिश्रा का कहना है कि कानूनी रूप से इस नए विधेयक को चुनौती दी जा सकती है। आर्थिक रूप से पिछड़े समुदाय को जो 10 फीसदी आरक्षण दिया गया है, वह जाति आधार पर नहीं बल्कि आर्थिक आधार पर दिया गया है। इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने 10 फीसदी आरक्षण की इस व्यवस्था को लागू रखने का आदेश दिया था। परंतु इस बार आरक्षण का दायरा सिर्फ जाति को आधार बनाकर बढ़ाया गया है। इस तरह के अनेक आधार पर सुप्रीम कोर्ट में इस विधेयक को चुनौती दी जा सकती है।

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