बीजेपी-जदयू की ढाई दशक पुरानी दोस्ती की चर्चा अभी इसलिए मौजूं है कि बिहार में चुनाव से पहले दोनों की दोस्ती की दुहाई फिर से दी जा रही है। BJP के वरिष्ठ नेता एवं डिप्टी CM सुशील मोदी ने जीत के लिए दोनों की दोस्ती को जरूरी बताया है और केंद्रीय मंत्री आरके सिंह ने भी कुछ इसी लाइन पर बातें कहीं हैं। यह महज संयोग हो सकता है कि दोनों दलों की दोस्ती के ढाई दशक भी पूरे होने जा रहे हैं। 1995 के नवंबर में मुंबई में दोनों दलों की मित्रता की बुनियाद पड़ी थी। तबसे दोनों के दिल दूसरे के लिए धड़कते रहे।
परस्पर विश्वास और विकास के संकल्प के साथ सरकार चलाते हुए पिछले करीब डेढ़ दशक में दोनों ने बिहार की आर्थिक तस्वीर और राजनीति की दशा-दिशा बदलने की कोशिश की है। बीच के करीब 2 साल महागठबंधन की राजनीति को अगर संक्रमण काल मानकर भुला दिया जाए तो दोनों दलों की दोस्ती में कभी तकरार, दीवार या दरार नहीं दिखी। अलग-अलग नजरिए से सरकार की कामयाबी-नाकामयाबी की समीक्षा की जा सकती है, लेकिन दोनों दलों की एकजुटता पर सवाल नहीं खड़े किए जा सकते हैं। बीजेपी-जदयू की एकजुटता उन गठबंधनों और दलों के लिए सबक की तरह है, जो 1-2 चुनाव लड़-हार कर ही बिखर जाते हैं। अपनी राह अलग कर लेते हैं।
दोस्ती की कहानी हार से शुरू हुई थी। 1994 में लालू प्रसाद से अलग होकर जार्ज-नीतीश ने समता पार्टी बनाई थी। 1995 के विधानसभा चुनाव में BJP और समता अलग-अलग चुनाव लड़ी और हारी। उसी साल मुंबई में 11 से 13 नवंबर के बीच बीजेपी का महाअधिवेशन था। इसी में अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री प्रत्याशी के रूप में प्रस्तुत किया जाना था। तब नीतीश कुमार ने लालू से अलग होकर अपनी अलग पार्टी बनाई थी। अध्यक्ष थे जार्ज फर्नांडीज, जिन्होंने Nitish Kumar को बीजेपी के उस अधिवेशन में बतौर पर्यवेक्षक भेजा था, जहां दोस्ती की पहली नींव पड़ी। तब जदयू अपने पुराने संस्करण में समता पार्टी के रूप में जाना जाता था। बीजेपी-जदयू की एकजुटता की पहली परीक्षा 1996 के लोकसभा चुनाव में हुई थी। जब झारखंड भी बिहार केसाथ था।
लोकसभा की कुल सीटें 54 हुआ करती थीं। दोनों ने मिलकर पहला चुनाव लड़ा और राज्य की 23 सीटें जीत लीं। बीजेपी को 18 और समता की झोली में 5 सीटें आईं। 1998 का नतीजा भी पक्ष में आया पर 1999 के लोकसभा चुनाव में केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग की सरकार बनवाने में बीजेपी-जदयू की दोस्ती की अहम भूमिका रही। समता पार्टी का तब जदयू के रूप में कायाकल्प हो चुका था। उसे अकेले 18 सीटों पर जीत मिली थी और कुल वोट के 20.77 फीसद मिले थे।
बीजेपी और समता (जदयू) का संकल्प एक था। मिशन एक था। हार-जीत में भी डिगे नहीं। लालू प्रसाद की सत्ता के सामने अड़े-खड़े रहे। कामयाबी भी ज्यादा दिनों तक दूर नहीं रही। 2000 के विधानसभा चुनाव में 7 दिनों के लिए लालू-राबड़ी को सत्ता से हटाकर नीतीश ने भविष्य का इशारा कर दिया था कि कामयाबी ज्यादा दूर नहीं है। हालांकि 2004 के लोकसभा चुनाव में दोनों को निराशा हाथ लगी। 40 में से 11 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। छह सीटें जीतकर जदयू बड़े भाई की भूमिका में आ गया। बीजेपी के खाते में 5 सीटें आई थीं। खराब प्रदर्शन के बावजूद न एकता टूटी, न हौसला। दोस्ती और एक-दूसरे की जरूरत गहरी होती गई। नतीजा दिखा फरवरी 2005 के विधानसभा चुनाव में, जब लालू-राबड़ी सत्ता से पूरी तरह बाहर हो गए। हालांकि सरकार बनाने का जनादेश राजग से भी दूर था। इसलिए राष्ट्रपति शासन लागू हुआ। आखिरकार उसी साल नवंबर के चुनाव में 15 सालों से राज करते आ रहे राजद को राजग ने उखाड़ फेंका।