कांग्रेस बंटी है, बिखरी है, आपस में लड़ी है और भाजपा के सामने अकेले खड़ी है… 24 में कैसे लड़ेगा कमज़ोर हाथ?

यह साहसिक है कि कांग्रेस अकेले दम पर भाजपा और मोदी सरकार को चुनौती दे रही है. विपक्ष से यही उम्मीद भी करती है जनता. लेकिन हाथ कमजोर है. मुट्ठी खुली हुई है और उंगलियों में तालमेल नहीं है. ऐसे कैसे लड़ेगी कांग्रेस 2024 की लड़ाई?

राजनीति और युद्ध में बहादुरी से ज्यादा समझदारी की ज़रूरत होती है. वरना अच्छे-अच्छों को छकाने वाला योद्धा भी आखिरकार अभिमन्यु साबित होता है. वो एक दिन और एक समय के लिए सबके सामने चमक तो सकता है लेकिन पैर टिकाने के लिए हौसले के साथ-साथ रणनीति और सूझ की भी ज़रूरत होती ही है. सूझ का कृष्ण लेकिन अभी कांग्रेस को मिला नहीं है और राजनीति का रण अपने नए फाइनल की दहलीज पर है.

कांग्रेस बंटी हुई है. संगठन से लोग रूठकर या अवसर देखकर जाते रहे हैं. जाने के क्रम को रोकना और रुके हुए लोगों को साधकर रखना, एकमत और एकजुट रखना ही नेतृत्व का पहला कर्तव्य है. बाकी लड़ाई लड़ने से पहले ये अंतर्कलह से कुनबे को निकालना ज़रूरी है ताकि लोग आपकी मंशा और मजबूती पर संदेह न करें.

संगठन बिखरा है क्योंकि शीर्ष नेतृत्व या गांधी परिवार की भाषा और राज्यों में कांग्रेस सरकारों और नेताओं की भाषा में तालमेल नहीं है. न ही राहुल की बात को झंडा बनाकर आखिरी गली-मोहल्लों में लड़ने वाले कार्यकर्ताओं को बनाने, जुटाने और प्रबंधित करने की दिशा में कोई बड़ा और सतत प्रयास देखने को मिला है.

जहां पार्टी का प्रभाव है या सत्ता है वहां पार्टी विरोधियों से ज्यादा आपस में लड़ती नज़र आती है. अक्सर ऐसा संदेह होता है कि ये किसी विचार और पार्टी के लिए लड़ रहे हैं या कि सत्ता में अपने हिस्से के टुकड़े के लिए. इन तस्वीरों से धारणाएं और विश्वास, दोनों ही बिखरते हैं.

राहुल बेशक अकेले मोदी और संघ को ललकार रहे हैं. लेकिन ललकारने भर से तो युद्ध नहीं जीता जा सकता. न फौज तैयार है और न रथ. योद्धाओं में एक संगठित प्रयत्न और प्रबंधित रणनीति दिखती नहीं. इसलिए लड़ाइयां अल्पस्वासी साबित होती हैं. ललकार सामने खड़ी ढालों से टकराकर गूंज तो रही हैं, लेकिन कुछ बदल नहीं पा रही है. और ऐसे में जीतने की जल्दी से पहले कांग्रेस में सुधार की बेचैनी पैदा होना ज़रूरी है. बिखरा घर, पिछली सदी के घिस चुके नारे और कमज़ोर संगठन इस बेचैनी के बिना सुधरने वाले नहीं हैं.

राजस्थान की हार

पांच साल में अशोक गहलोत ने राजस्थान में बहुत से सकारात्मक काम भी किए. कई मामलों में वो देश के सामने उदाहरण पेश करते नज़र आए. खुद प्रधानमंत्री ने उनके कामकाज की तारीफ की. लेकिन इन पांच वर्षों में जनता को केवल कुनबे की कलह दिखी. ठीक वैसे ही जैसी 2012 से 2017 के दौरान अखिलेश सरकार में यूपी के लोगों ने देखी. अपनी खुद की सीमाओं और असमंजस में उलझी कांग्रेस आखिर के दो वर्षों में जब थोड़ा स्पष्ट होने लगी, तब भी वो न तो उस कलह को सुलझा सके और न ही स्थिरता का संदेश दे सके.

राजस्थान को आप जलते और बिखरने देंगे और खुद देश जोड़ने चल पड़ेंगे तो जीत की मोहर कोई आपको क्यों न्योछावर करेगा. सचिन पायलट ने इन पांच वर्षों में कांग्रेस को जितना कमज़ोर किया, उतना शायद ही विपक्ष कर पाया हो. सवाल सचिन की महात्वाकांक्षा या गहलोत के हठ का है ही नहीं, सवाल संदेश का है जिसे लोगों के बीच सही करने के प्रति कांग्रेस के शीर्ष चेहरों की उदासीनता उसे घातक परिणति तक खींच लाई और अब परिणाम सामने हैं.

राजस्थान को आप जलते और बिखरने देंगे और खुद देश जोड़ने चल पड़ेंगे तो जीत की मोहर कोई आपको क्यों न्योछावर करेगा. सचिन पायलट ने इन पांच वर्षों में कांग्रेस को जितना कमज़ोर किया, उतना शायद ही विपक्ष कर पाया हो. सवाल सचिन की महात्वाकांक्षा या गहलोत के हठ का है ही नहीं, सवाल संदेश का है जिसे लोगों के बीच सही करने के प्रति कांग्रेस के शीर्ष चेहरों की उदासीनता उसे घातक परिणति तक खींच लाई और अब परिणाम सामने हैं.

टिकटों का बंटवारा टाला जाता रहा. संगठन का प्रमुख अपने ही मुख्यमंत्री की कुर्सी तोड़ता रहा. दिल्ली ने जयपुर के बादलों में न छत दी और न छाता. अकेला एक व्यक्ति आखिर क्या कर पाता. राजस्थान में कांग्रेस इतिहास बनाने से चूक गई और लोगों ने वोट पैटर्न का अपना इतिहास कायम रखा.

भोज और भामाशाह

मध्यप्रदेश को कांग्रेस के लिए पका आम बताने वालों की तादाद छोटी नहीं थी. शिवराज को जैसे साइडलाइन किया गया और पीएम मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ा गया, उससे स्पष्ट था कि भाजपा जीत के प्रति सहज नहीं थी.

लेकिन भाजपा की असहजता से ज्यादा बड़ा हो गया कांग्रेस का अतिविश्वास. और अतिविश्वास ले डूबा. प्रदेश के पुराने चेहरों को, जिन्हें जनता नकारती आ रही है, फिर से लोगों ने आने से रोक दिया.

ये कौन-सी समझदारी थी जहां परिपक्व और प्रभावशाली माने जाने वाले नेता अतिविश्वास में गोते लगाते दिखे. बैठकों, मंचों पर भी एक दूसरे से भिड़ते नज़र आए. अपने-अपने गैंग बनाकर प्रचार और प्रबंधन देखते रहे. ऐसे परिपक्व लोगों से बेहतर होता अगर पार्टी संगठन और चेहरों में नयापन लाती. जो कुछ करती वो किसी क्षेत्र, खानदान और खेमे की परिधि और पहचान से बड़ा होता, प्रादेशिक होता.

पिछले विधानसभा चुनाव के बाद सत्ता का खुमार मध्यप्रदेश की कांग्रेस में जो आया तो वापस गया ही नहीं. दंभ के दंगल में एक दूसरे पर मिट्टी उछालते नेता आखिर में एक शायद जीती जा सकने वाली बाज़ी को हारकर अब किनारे आ लगे हैं. शिवराज बाजीगर साबित हुए और कांग्रेस जीता हुआ खेल हारकर हाथ मल रही है.

भटक गए भूपेश

भूपेश बघेल ने काफी सफलता से छत्तीसगढ़ की कमान संभालने का प्रयास किया. कम से कम उनके प्रचार तंत्र को देखकर तो ऐसा ही लगता है. भूपेश बघेल अपने कार्यकाल में कांग्रेस से आगे बढ़ते और भाजपा- केजरीवाल से सीखते हुए नेता की तरह प्रोजेक्ट किए जाते रहे. अपनी छवि को उन्होंने प्रचार और कामकाज, दोनों से साधने की कोशिश की. राजनीति जिस तौर- तरीके को अख्तियार कर चुकी है, उसमें ये ज़रूरी भी था.

लेकिन इतने मजबूत बनकर खड़े दिखाई देते बघेल को भी घर में ललकारने वालों से जूझना पड़ता रहा. दिल्ली में दस्तक दी जाती रहीं और बघेल सफाई पेश करने आते रहे. उससे भी चिंताजनक यह रहा कि आदिवासी बाहुल्य राज्य में आदिवासी वोट ही कांग्रेस से छिटक गया. इसे रणनीतिक कमज़ोरी ही कहेंगे कि आप दुनिया के सामने अपनी छवि संवारते रहे और अपने ही आधार के खिसकने की न तो आपको खबर हुई और न ही प्रयास हो सके.

कांग्रेस इन राज्य विधानसभा चुनावों में सबसे ज्यादा आश्वस्त छत्तीसगढ़ को लेकर ही थी. भाजपा बिना चेहरे के वहां प्रचार और प्रबंधन कर रही थी. लेकिन हारी हुई बाजी बताए जा रहे खेल में भाजपा ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी. बघेल ने केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप भी लगाया लेकिन ये विक्टिम कार्ड उनके अपने ही वोटरों के बीच फेल रहा. नतीजा सामने है. छत्तीसगढ़ ने बुरी तरह कांग्रेस को निराश किया है और भाजपा ने नाउम्मीदी के जंगल में कमल खिला दिया है.

इस दौरान कांग्रेस अपनी कोशिशों के दम पर इंडिया बना चुकी है. लेकिन इंडिया है कहां. चुनाव में तो नहीं दिखा. राजनीति और बयानों में भी नहीं. सामंजस्य और सद्भाव में भी नहीं. वोटों से लेकर सीटों तक, मुद्दों से लेकर मदद तक ये बस मिट्टी की मूरत बना रहा. राज्यों के चुनाव के बाद अब खींचतान का नया दंगल इस विपक्षी एकता का आंगन ही रहने वाला है.

कांग्रेस को दरअसल विपक्षी एकता की नहीं, पार्टी में एकता की ज़रूरत है. विपक्ष के सहयोग की नहीं, अपने नेताओं के बीच सहयोग और सामंजस्य की ज़रूरत है. दूसरे संगठनों की मदद से ज़्यादा अपने संगठन की ज़मीन पर मजबूत करने की ज़रूरत है. दूसरों से कृपाश्रित सीटों के बजाय पूरे दमखम से सभी सीटों पर खड़े होने और लड़ने की ज़रूरत है. दूसरों के साथ तालमेल के बजाय राज्यों और राज्य सरकारों में अपनी कलहों को एक ठोस और दूरदर्शी समाधान देने की ज़रूरत है.

कांग्रेस पार्टी के भीतर और प्रदेश स्तर पर कलह की ये कथाएं हिमाचल, कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात, सब जगह से सुनने को मिलती रहती हैं. ये कथाएं ऐसा नहीं कि कांग्रेस के लिए नई बात हो. ऐसा भी नहीं कि बाकी दल इससे बचे हुए हैं. लेकिन परिस्थितियां ऐसी नहीं हैं कि कांग्रेस इन कथाओं को अपनी धारणाओं का दर्पण बनने दे. बात फिर वहीं खड़ी है. देश एक बेचैन कांग्रेस चाहता है, बिखरी कांग्रेस नहीं. शुरुआत और जीत के बीच वही सबसे बड़ा फासला है.

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