21 march 2022

क्या रावण पहला कांवड़िया था?

पिछले साल की तरह इस बार भी वहां कांवड़ यात्रा नहीं होगी। आप कांवड़ यात्रा के बारे में कितना जानते हैं. ये क्यों होती है. क्यों पिछले 03-04 दशकों में ये एक बड़ा धार्मिक आयोजन हो चुका है.

मोटे तौर पर कांवड़ यात्रा श्रावण मास यानि सावन में होती है, जो ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार जुलाई का वो समय होता है जबकि मानसून अपनी बारिश से पूरे देश को भीगा रहा होता है। इसकी शुरुआत श्रावण मास की शुरुआत से होती है और ये 13 दिनों तक यानि श्रावण की त्रयोदशी तक चलती है। इसका संबंध गंगा के पवित्र जल और भगवान शिव से है। इस बार ये यात्रा 22 जुलाई से प्रस्तावित थी।

सावन के महीने में कांवड़ यात्रा के लिए श्रृद्धालु उत्तराखंड के हरिद्वार, गोमुख और गंगोत्री पहुंचते हैं। वहां से पवित्र गंगाजल लेकर अपने निवास स्थानों के पास के प्रसिद्ध शिव मंदिरों में उस जल से चतुर्दशी के दिन उनका जलाभिषेक करते हैं। दरअसल कांवड़ यात्रा के जरिए दुनिया की हर रचना के लिए जल का महत्व और सृष्टि को रचने वाले शिव के प्रति श्रृद्धा जाहिर की जाती है। उनकी आराधना की जाती है। यानि जल और शिव दोनों की आराधना।

अगर प्राचीन ग्रंथों, इतिहास की मानें तो कहा जाता है कि पहला कांवड़िया रावण था। वेद कहते हैं कि कांवड़ की परंपरा समुद्र मंथन के समय ही पड़ गई। तब जब मंथन में विष निकला तो संसार इससे त्राहि-त्राहि करने लगा। तब भगवान शिव ने इसे अपने गले में रख लिया। लेकिन इससे शिव के अंदर जो नकारात्मक उर्जा ने जगह बनाई, उसको दूर करने का काम रावण ने किया।

रावण ने तप करने के बाद गंगा के जल से पुरा महादेव मंदिर में भगवान शिव का अभिषेक किया, जिससे शिव इस उर्जा से मुक्त हो गए। वैसे अंग्रेजों ने 19वीं सदी की शुरुआत से भारत में कांवड़ यात्रा का जिक्र अपनी किताबों और लेखों में किया।

लेकिन कांवड़ यात्रा 1960 के दशक तक बहुत तामझाम से नहीं होती थी। कुछ साधु और श्रृद्धालुओं के साथ धनी मारवाड़ी सेठ नंगे पैर चलकर हरिद्वार या बिहार में सुल्तानगंज तक जाते थे और वहां से गंगाजल लेकर लौटते थे, जिससे शिव का अभिषेक किया जाता था। 80 के दशक के बाद ये बड़े धार्मिक आयोजन में बदलने लगा। अब तो ये काफी बड़ा आयोजन हो चुका है।

आंकड़े कहते हैं कि वर्ष 2010 और इसके बाद हर साल करीब 1.2 करोड़ कांवड़िए पवित्र गंगाजल लेने हरिद्वार आते हैं और फिर इसे अपने माफिक शिवालयों में लेकर जाते हैं। वहां इस जल से भगवान शिव को पूजा – अर्चना के बीच नहलाते हैं। आमतौर पर कांवड़िए उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, ओडिसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड से अब हरिद्वार पहुंचने लगे हैं।

कांवड़िये इस तरह कांवड़ को लगातार यात्रा के दौरान अपने कंधे पर रखे होते हैं। बीच-बीच विश्राम करने के लिए इसे उतारकर यथोचित जगह पर रखते हैं। क्योंकि इसमें आने वाले श्रृद्धालु चूंकि बांस की लकड़ी पर दोनों ओर टिकी हुई टोकरियों के साथ पहुंचते हैं और इन्हीं टोकरियों में गंगाजल लेकर लौटते हैं। इस कांवड़ को लगातार यात्रा के दौरान अपने कंधे पर रखकर यात्रा करते हैं, इसलिए इस यात्रा कांवड़ यात्रा और यात्रियों को कांवड़िए कहा जाता है। पहले तो लोग नंगे पैर या पैदल ही कांवड़ यात्रा करते थे लेकिन अब नए जमाने के हिसाब से बाइक, ट्रक और दूसरे साधनों का भी इस्तेमाल करने लगे हैं।

आमतौर पर परंपरा तो यही रही है लेकिन आमतौर पर बिहार, झारखंड और बंगाल या उसके करीब के लोग सुल्तानगंज जाकर गंगाजल लेते हैं और कांवड़ यात्रा करके झारखंड में देवघर के वैद्यनाथ मंदिर या फिर बंगाल के तारकनाथ मंदिर के शिवालयों में जाते हैं। एक मिनी कांवड़ यात्रा अब इलाहाबाद और बनारस के बीच भी होने लगी है।

माना तो ये जाता है कि श्रावण की चतुर्दशी के दिन किसी भी शिवालय पर जल चढ़ाना फलदायक है लेकिन आमतौर पर कांवड़िए मेरठ के औघड़नाथ, पुरा महादेव, वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर, झारखंड के वैद्यनाथ मंदिर और बंगाल के तारकनाथ मंदिर में पहुंचना ज्यादा पसंद करते हैं। कुछ अपने गृहनगर या निवास के करीब के शिवालयों में भी जाते हैं।

Leave a Comment

Your email address will not be published.

बिहार के इन 2 हजार लोगों का धर्म क्या है? विश्व का सबसे अमीर क्रिकेट बोर्ड कौन सा है? दंतेवाड़ा एक बार फिर नक्सली हमले से दहल उठा SATISH KAUSHIK PASSES AWAY: हंसाते हंसाते रुला गए सतीश, हृदयगति रुकने से हुआ निधन India beat new Zealand 3-0. भारत ने किया कीवियों का सूपड़ा साफ, बने नम्बर 1