क्रूर पूंजीवाद के स्वर्ण युग में प्रवेश कर रहा है भारत

इस दौर को भारत में क्रूर पूंजीवाद का स्वर्णिम युग कहा जाए तो कोई अतिशयक्ति नहीं होगी। जिस प्रकार सरकार सत्ता के ढांचे का कारपोरेटीकरण करती जा रही है उससे अब इस आशंका को बल मिलने लगा है की सरकार देश के संसाधनों का उपयोग समाज या राष्ट्र के लिए नहीं अपितु कुछ कारपोरेट घरानों के लिए कर रही है। मसलन दुनिया भर में वैश्विक महामारी कोरोना का कोहराम है। इस दौर में केंद्र सरकार लगातार ऐसे डरने दे रही है जिससे कारपोरेट घरानों को फायदा होता दिख रहा है। जिस भारत में साल भर में तकरीबन 90 लाख मौतें होती है, जिनमें अधिकांश का कारण टीबी, मलेरिया और स्वशन तंत्र की बीमारी है। वह भी सहमा हुआ है।आसन्न चुनौतियों से इतर भारत में भी कोरोना का ‘खौफ’ सर चढ़कर बोल रहा है। कोविड-19 कोरोना वैश्विक महामारी है, खौफ होना लाजमी है।मगर सवाल यह है कि भारत में अमीरों से गरीबों में आने वाली इस बीमारी के खौफ और दुष्परिणाम का भागी सिर्फ गरीब कोह क्यों बनाया जा रहा है। इस खौफ की आड़ में जो दूसरी महामारी फैली है उसका क्या होगा, इस पर सरकार कतई गंभीर नहीं दिख रही है।

देश के एक बड़े तबके में भविष्य को लेकर असमंजस बना हुआ है। चिंता हर चेहरे पर साफ पढ़ी जा सकती है। कंपनियों के आंकड़े उठाकर देखें धरा धर छटनी जारी है। विशेषज्ञों की राय भी जुदा-जुदा है। कोई बड़ी तबाही का अंदेशा जताते हुए इटली और अमेरिका से भी बुरे हालात होने की बात करता है, तो किसी का कहना यह है कि भारत में इसका असर बहुत कम होगा। घर-घर में कोई महामारी विशेषज्ञ बना है तो कोई विषाणु विज्ञानी। सोशल मीडिया पर कोरोना के लक्षण, प्रकोप, इलाज और नुकसान के लेकर तरह तरह के सच-झूठ वायरल सर्वविदित हैं। भय के इस माहौल में धरा धर सिद्धांतें गधे जा रहे हैं। कोई योग से कोरोना ठीक करने की बात कर रहा है तो कोई गोमूत्र, गंगोट और गाय के गोबर को कोरोना का अचूक दवा बता रहा है। फेसबुक और व्हाट्सएप जैसे सामाजिक अंतर थाना माध्यम पर इस प्रकार के लाखों पोस्ट प्रतिदिन डाले जा रहे हैं। ताली ताली घंटी का दौर समाप्त हो चुका है। अब विशुद्ध रूप से कर्मचारियों की वेतन कटौती हो रही है। 31 मार्च 2021 तक के लिए सारे विकास काम पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। सत्ता पक्ष के द्वारा चीख चीख कर एक ही बात कही जा रही है कि भारत की अर्थव्यवस्था मेजो गिरावट आई है उसके लिए एकमात्र कोविड-19 नामक महामारी जिम्मेदार है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा संकटकाल में एकता, एकजुटता का परिचय देने और कोरोना के खिलाफ मोर्चे पर डटे स्वास्थ्य एवं पुलिसकर्मियों के सम्मान में अपने घरों की बालकनी या आंगन में आकर थालियां, घंटी और शंख बजाने या दीये जलाने की अपील पर भी बिना सिर पैर की कहानियां गढ़ गयीं। पूरे लॉकडाउन सोशल डिस्टेंसिंग और लॉकडाउन को धता बताते हुए मास्क, सेनेटाइजर और राशन बांटते फोटो खिंचाने और वीडियो बनाने की समाजसेवियों और राजनेताओं में होड़ मची रही। क्या सत्ता पक्ष या विपक्ष किसी ने भी लॉकडाउन का कड़ाई से पालन नहीं किया। जहां एक और झारखंड सरकार के मंत्री आलमगीर आलम ने अपने क्षेत्र के मजदूरों के लिए लॉक डाउन की खुली धज्जियां उड़ाई वहीं पूरे देश में भाजपा कार्यकर्ताओं ने मोदी आहार का वितरण कर यह साबित कर दिया लॉक डाउन जैसी बात केवल सामान्य लोगों के लिए खास को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। देश का खास तबका आसन्न खतरे से जानबूझकर बेेखबर बना रहा है। जबकि हकीकत यह है कि देश कोरोना के साथ-साथ एक नयी ‘महामारी’ के मुहाने पर पहुंच चुका है। एक ऐसी महामारी जिससे देश का शायद ही कोई राज्य, कोई जिला बचे। यह महामारी है कोरोना के नाम पर होने वाली लूट, मुनाफाखोरी, भ्रष्टाचार, शोषण और अत्याचार से फैलने वाली भुखमरी, गरीबी और बेरोजगारी की है।

बीमारियों या महामारी से संघर्ष भारत के लिए कोई नया नहीं है। महामारियों से जूझने और उनसे पार पाने का भारत का लंबा इतिहास रहा है। आजादी के पहले से भारत तमाम महामारियों से जूझता रहा है। भारत ने हैजा, चेचक, हेपेटाइटिस, मलेरिया, सार्स, स्पेनिश प्लू, इंसेफेलाइटिस, प्लेग, एचआईवी एड्स और स्वाइन प्लू का सामना तो किया ही इसके अलावा डेंगू, चिकनगुनिया, टाइफस जैसे रोगों के अलावा चमगादड़ों से होने वाले संक्रमण निपाह वायरस से भी मोर्चा लिया। दुनिया भर में चेचक के तो अकेले 60 फीसदी मामले भारत में रिपोर्ट किए गए थे।

पूरी दुनिया में कोरोना वायरस मानव संकट है लेकिन भारत में यह उससे भी आगे मानवाधिकार संकट बनकर भी उभरा है। सवाल तो बहुत सारे हैं लेकिन सबसे अहम सवाल यह है कि आखिर सरकार ने करोना संक्रमण का खौफ दिखा केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल को क्यों लगाई? दरअसलसवा, सौ करोड़ से अधिक आबादी वाले जिस देश में हर साल तकरीबन 90 लाख लोग मरते हों वहां असल सवाल कोराना से होने वाली मौतों का नहीं बल्कि बेराजगारी और भुखमरी का हो जाता है। कई आखि अभी आने बाकी हैं।अभी बहुत दिनों पुरानी बात नहीं है जब कोरोना महामारी के खौफ से हमने महानगरों से हजारों की भीड़ को पैदल अपने घरों की ओर लौटते देखा। कोई सैकड़ों किलोमीटर ठेले को ठेलते हुए घर लौटा तो कोई 1700 किलोमीटर साइकिल चलाकर। बिहार की एक बेटी ने तो कमाल ही कर दिया। अपने बीमार पिता को साइकिल पर लादकर 12:00 सौ किलोमीटर की यात्रा की और घर पहुंच गई। इस भीड़ में कई लोग ऐसे थे जिन्होंने भूख के कारण रास्ते में दम तोड़ दिया, तो किसी के प्राण घर पहुंचकर निकल गए।

आज देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती अपने घरों को लौटती यही भीड़ है। इस देश की चिंता लगभग 50 करोड़ की वो आबादी है जिसकी दैनिक औसत आय बीस से तीस रुपए मात्र है। ‘अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कोरोना काल के दौरान असंगठित क्षेत्र के लगभग 40 करोड़ श्रमिक बेरोजगार हो जाएंगे। इसमें से अस्सी प्रतिशत से अधिक लोग जिंदा रहने के लिए सरकारी राशन पर आश्रित होंगे। सच्च तो यह है कि असंगठित ही नहीं संगठित क्षेत्र की बड़ी-बड़ी कंपनियां भी अपने भविष्य को लेकर बेहद परेशान है।

विश्व खाद्य कार्यक्रम की मानें तो दुनिया भुखमरी की महामारी के कगार पर है। हाल ही में इसके निदेशक डेविड विस्ले ने आगाह किया है कि कुछ ही महीनों में दुनिया में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या में भारी इजाफा हो सकता है। डब्लूएफपी के ही मुताबिक अभी दुनिया में हर रात 82 करोड़ 10 लाख लोग भूखे पेट सोते हैं। तकरीबन 13 करोड़ 50 लाख लोग भुखमरी या उससे बुरी स्थिति का सामना कर रहे हैं। मोटा आंकलन यह है कि वर्ष 2020 के अंत तक दुनिया भर में भुखमरी का सामना करने वालों की संख्या दोगुनी हो जाएगी। डब्लूएफपी का ही ऐसा मानना है कि वर्ष 2020 तक भुखमरी का सामना करने वालों की संख्या 26 करोड़ 50 लाख से ज्यादा होगी।

सच यह है कि आसन्न महामारी अमीरी और गरीबी के फासले को और गहरा करने जा रही है। अनुमान सही निकले तो हालात गंभीर होंगे क्योंकि भारत महामारी के इस दौर में प्राथमिकता तय नहीं कर पाया है। सच यह है कि जिस तरह के विषाणु संकट से अमेरिका और यूरोप जूझ रहे हैं, हमारे देश का हैल्थ सिस्टम उस तरह के संकट से निपटना तो दूर, सामना करने की स्थिति में भी नहीं है। सच पूछिए तो हमारे देश का स्वास्थ्य तंत्र ही बेहद कमजोर है। सरकार को तो मानो पता ही नहीं कि करना क्या है, क्या करे, मेडिकल इमरजेंसी पर काम करे या भुखमरी पर, अफवाहों पर नियंत्रण करे या सांप्रदायिकता पर।
दुनिया की आधी आबादी कोरोना वायरस के डर से लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग पर है। वैश्विक अर्थव्यवस्था रसातल में पहुंच चुकी है, कई देश बर्बादी के मुहाने पर हैं। इस बीच डबलूएचओ, जी-20 और संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी वैश्विक संस्थाओं पर सवाल उठाए जा रहे हैं। दुनिया के तमाम देशों के बीच सहयोग समन्वय स्थापित करने में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका भी बेहद कमजोर साबित हुई है। भारत का नेतृत्व कहीं ना कहीं किसी ने किसी पूर्वाग्रह में फंसा हुआ दिख रहा है।

महासंकट के वक्त हालात किस करवट बैठेंगे, नहीं कहा जा सकता लेकिन भारत के लिए स्थितियां तब तक मुफीद नहीं होंगी जब तक 50 करोड़ आबादी को केंद्र में रखकर नयी योजना नहीं बनाई जाती लेकिन सरकार में इसको लेकर कहीं कोई गंभीर विमर्श दिखाई नहीं दे रहा है। इसीलिए ऐसा लगता है की भारत में क्रूर पूंजीवाद का स्वर्णिम दौर प्रारंभ हो गया है।अमीरी और गरीबी में फासला तो पहले भी रहा है लेकिन इसके बढ़ने की पूरी आशंका है। ऐसा यदि होता है तो उसका फायदा दुश्मन देश उठाने में बाज नहीं आएंगे।

देश की आधी से ज्यादा संपत्ति मात्र एक फीसदी लोगों के कब्जे में है, नब्बे फीसदी आबादी के हिस्से 25 फीसदी संपत्ति भी नहीं है। आजादी के वक्त जिस खेती पर हमारी निर्भरता पचास फीसदी थी उस जमीन पर भी चंद कारपोरेट घरानों की गिद्ध दृष्टि है। ऐसे में अगर ईमानादारी, समझदारी और राजनैतिक पूर्वाग्रहों से हटकर काम नहीं किया गया तो भारत को अपनी पहचान के लिए भी बड़ी कीमत चुकानी होगी।

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