Family Politics : पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण… कैसे दम तोड़ रही फैमिली पॉलिटिक्स

महाराष्ट्र की सियासत के बेताज बादशाह कहे जाने वाले एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने अपनी सियासी विरासत बेटी सुप्रिया सुले को क्या सौंपी, उनके भतीजे अजित पवार ने बगावत का झंडा बुलंद कर दिया. एनसीपी के 40 विधायकों के साथ अजित पवार बीजेपी गठबंधन सरकार में शामिल हो गए हैं. इसके चलते शरद पवार की सियासी वारिस मानी जा रही सुप्रीम सुले की राजनीति खतरे में पड़ती दिख रही है. महाराष्ट्र का यह पहला सियासी परिवार नहीं है, जिसे राजनीतिक वर्चस्व के चलते चुनौतियां का सामना करना पड़ रहा हो बल्कि यूपी से लेकर हरियाणा, बिहार और दक्षिण भारत तक की परिवारवादी सियासत पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं.

भारत में वंशवादी राजनीति का दबदबा नॉर्थ से लेकर साउथ तक कायम है, लेकिन सियासी परिवारों की सियासत पर खतरा मंडराने लगा है. पवार परिवार की तरह महाराष्ट्र में ठाकरे परिवार पहले ही सियासी हाशिए पर है तो यूपी में मुलायम कुनबे में चाचा और भतीजे की लड़ाई पूरे देश ने देखी है. वहीं बिहार में रामविलास पासवान के निधन के साथ ही उनके बेटे चिराग पासवान और भाई पशुपति पारस के बीच एलजेपी दो धड़ों में बंट गई. इसी तरह से हरियाणा में चौटाला, पंजाब में बादल और तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार में सियासी संग्राम छिड़ चुका है.

ठाकरे परिवार की महाराष्ट्र में पावर कम
महाराष्ट्र की सियासत में ठाकरे परिवार की एक समय तूती बोलती थी, लेकिन मौजूदा दौर में सियासी अंधेरा छाया हुआ है. सत्तर के दौर में बाल ठाकरे ने शिवसेना का गठन किया और भले ही वो पूरी जिंदगी कोई भी चुनाव नहीं लड़े, लेकिन उनकी मर्जी के बगैर महाराष्ट्र में एक पत्ता भी नहीं हिलता था. बाल ठाकरे ने अपने सियासी वारिस भतीजे राज ठाकरे के बजाय बेटे उद्धव ठाकरे को सौंपा तो राज ठाकरे ने शिवसेना से अलग होकर अपनी पार्टी बना ली. उद्धव ठाकरे ने खुद को साबित किया, लेकिन एकनाथ शिंदे की बगावत के बाद उनकी सियासत हाशिए पर है. उद्धव को पार्टी और सरकार दोनों से हाथ धोना पड़ा है.

राज ठाकरे पहले से हाशिए पर हैं तो अब उद्धव ठाकरे की राजनीति पर भी खतरे के बादल छा गए हैं. शिवसेना के दिग्गज नेताओं की पूरी फौज उद्धव ठाकरे का साथ छोड़कर एकनाथ शिंदे के साथ चली गई है. मुंबई के नेता ही उद्धव के साथ बचे हैं. इस तरह से सांसद और विधायकों में ज्यादातर शिंदे के साथ हैं और उद्धव के सामने अपने पिता की विरासत को बचाए रखने की चुनौती है. वहीं शिवसेना के दोनों धड़ों के लिए महाराष्ट्र में सर्वाइव करना मुश्किल हो गया है.

मुलायम कुनबे पर संकट के बादल गहराए?
देश में सबसे बड़ा सियासी कुनबा मुलायम सिंह यादव का है, जिनमें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से लेकर संसद में एक समय में परिवार के पांच सदस्य हुआ करते थे. अब वक्त ये आ गया है कि संसद में महज 2 सदस्य ही बचे हैं. मुलायम सिंह के सियासी वारिस अखिलेश यादव हैं, जिनकी शिवपाल यादव के साथ राजनीतिक अदावत पूरे प्रदेश ने ही नहीं बल्कि देश ने देखी है. अखिलेश जब से पिता की विरासत संभाल रहे हैं, तब से सपा को सियासी नुकसान ही उठाना पड़ रहा है. सूबे की सत्ता से बाहर हुए छह साल हो चुके हैं, दो लोकसभा और दो विधानसभा चुनाव सपा हार चुकी है. इतना ही नहीं कन्नौज, आजमगढ़, इटावा, फिरोजाबाद और बदायूं जैसी लोकसभा सीट पर मुलायम परिवार के सदस्यों को बीजेपी से मात खानी पड़ी है. इस तरह से सूबे में सपा भले ही मुख्य विपक्षी दल के तौर पर हो, लेकिन अखिलेश की राजनीति पर संकट के बादल गहराए हुए हैं?

हाशिए पर हरियाणा का चौटाला परिवार?
हरियाणा की राजनीति में एक समय चौधरी देवीलाल और बाद में उनके ओम प्रकाश चौटाला का सियासी वर्चस्व हुआ करता था, लेकिन अब चौटाला परिवार दो धड़ों में बंट चुका और पार्टी भी पूरी तरह से बिखर चुकी है. चौधरी देवीलाल और ओम प्रकाश चौटाला हरियाणा के मुख्यमंत्री रह चुके हैं, उनकी पार्टी इनोलो थी. चौटाला परिवार की विरासत अभय चौटाला और अजय चौटाला के बीच बंट गई. ऐसे में अभय चौटाला पूरी तरह से हरियाणा की सियासत में हाशिए पर पहुंच गए, क्योंकि उनके सिवा कोई दूसरी विधायक नहीं है. अजय चौटाला के बेटे दुष्यंत चौटाला ने 2019 में 10 सीटें जीतकर बीजेपी से गठबंधन कर लिया और डिप्टीसीएम बन गए, लेकिन बीजेपी ने उन्हें अब किनारे लगाने के मन बना लिया है.

बीजेपी ने 2024 के लोकसभा चुनाव में हरियाणा में अकेले मैदान में उतरने का फैसला किया है, जिसके चलते दुष्यंत के लिए सियासी संकट गहरा गया. वहीं, भजनलाल परिवार की सियासत पहले से ही संकट से गुजर रही है, उनके बेटे कुलदीप बिश्नोई ने बीजेपी का दामन थाम लिया है और अपने बेटे को अपनी सीट से विधायक बना लिया है. लेकिन, इससे ज्यादा अब उनकी राजनीतिक हैसियत नहीं रह गई है. इसी तरह से बंसीलाल की विरासत किरण चौधरी संभाल रही हैं, लेकिन उनका सियासी प्रभाव भी बहुत ज्यादा नहीं रह गया. ऐसे में हरियाणा की परिवारवादी राजनीति पर खतरा साफ दिख रहा है.

लालू परिवार पर भी संकट के बादल
बिहार की राजनीति में लालू परिवार की सियासी ताकत जगजाहिर है, लेकिन उनकी विरासत को लेकर सियासी घमासान भी है. लालू के सियासी वारिस के तौर पर डिप्टीसीएम तेजस्वी यादव को माना जा रहा है, लेकिन बड़े बेटे तेज प्रताप यादव भी अपना दम दिखाने से पीछे नहीं हट रहे हैं. तेज प्रताप यादव बिहार सरकार में मंत्री है, लेकिन तेजस्वी यादव के साथ उनके सियासी टकराव की खबर भी आए दिन आती रहती है. इसके अलावा लालू यादव की बड़ी बेटी मीसा भारती, जो राज्यसभा सांसद हैं. मीसा भारती को भी लालू यादव के वारिस के तौर पर माना जा रहा था. बिहार में भले ही आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी हो, लेकिन लंबे अर्से तक सत्ता से बाहर रही है. ऐसे में आरजेडी से आधी सीटों वाले नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार करना पड़ा है.

बादल-कैप्टन परिवार पर गहराया संकट
पंजाब की राजनीति में दो सियासी परिवारों का लंबे समय तक दबदबा रहा है, जिसमें एक बादल परिवार तो दूसरा कैप्टन अमरिंदर सिंह की फैमिली. पंजाब के दोनों ही परिवारों ने लंबे समय तक राज किया है, लेकिन अब बादल और कैप्टन परिवार की सियासत हाशिए पर पहुंच गई है. छह सालों से बादल परिवार सत्ता से बाहर और प्रकाश सिंह बादल का भी निधन हो चुका. ऐसे में बादल परिवार की सियासी विरासत संभाल रहे सुखबीर बादल के लिए राजनीतिक संकट खड़ा हो गया है. वहीं, 2022 का चुनाव कैप्टन अमरिंदर सिंह के लिए भी मुसीबत का पहाड़ लेकर आया, उन्हें मुख्यमंत्री पद की कुर्सी से हटने के साथ-साथ विधानसभा का चुनाव भी हारना पड़ा है. अमरिंदर की पत्नी परनीत कौर के सामने अपनी संसदीय सीट बचाए रखने की चुनौती है. कैप्टन ने कांग्रेस छोड़कर अपनी पार्टी बनाई और बीजेपी का दामन थाम लिया है.

दक्षिण के सियासी परिवार पर भी खतरा
दक्षिण भारत की सियासत में एक से बढ़कर एक सियासी परिवार हैं. साउथ के ज्यादातर राज्यों में फैमिली पॉलिटिक्स ही हावी है. आंध्र प्रदेश के सीएम जगन मोहन रेड्डी अपने पिता वाईएस राजशेखर रेड्डी से संभाली है, लेकिन उनकी बहन वाईएस शर्मिला ने पहले खुद की पार्टी बनाई और अब कांग्रेस का दामन थाम लिया है. सियासी वर्चस्व के चलते रेड्डी परिवार दो धड़ों के बीच बंट गई है. वहीं, तमिलनाडु की सियासत में करुणानिधि की विरासत संभाल रहे एमके स्टालिन सत्ता पर काबिज हैं, लेकिन उन्हें अपना सियासी वर्चस्व को स्थापित करने के लिए अपने भाइयों से दो-दो हाथ करना पड़ा है. करुणानिधि की बेटी कानिमोझी सासंद हैं, लेकिन करुणानिधि के दूसरे बेटे एमके अलागिरी बड़ी सियासी चुनौती बन गए हैं. अलागिरी ने स्टालिन को खुली चुनौती दी, लेकिन सफल नहीं हो सके.

हाशिए पर कर्नाटक का देवगौड़ा परिवार
कर्नाटक की सियासत में एक समय एचडी देवगौड़ा की तूती बोलती थी, लेकिन अब उनके परिवार की सियासत हाशिए पर पहुंच चुकी है. देवगौड़ा कर्नाटक के सीएम से देश के पीएम तक रह चुके हैं और उनकी विरासत संभालने वाले बेटे कुमारस्वामी भी दो बार मुख्यमंत्री रहे हैं. इसके बावजूद देवगौड़ा परिवार की सियासत पर संकट गहरा गया है. उनकी पार्टी जेडीएस इस चुनाव में अपने दुर्ग को भी बचाए नहीं रख पाई है. इसके अलावा देवगौड़ा के दूसरे बेटे भी कुमारस्वामी के सामने सियासी टकराव साफ दिखा है, जिसके चलते देवगौड़ा परिवार के लिए अपने राजनीति को बचाए रखने की चुनौती से जूझ रही है.

जम्मू-कश्मीर में फैमिली पॉलिटिक्स
जम्मू-कश्मीर की सियासत अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार के बीच सिमटी रही है. यही दोनों परिवार बारी-बारी से सत्ता पर काबिज होते रहे हैं, लेकिन अब दोनों ही परिवारों की राजनीति पर संकट गहरा गया है. जम्मू-कश्मीर से धारा 370 के खत्म होने के बाद अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार के लिए अपनी-अपनी सियासत को बचाए रखने की चुनौती खड़ी हो गई है. अब्दुल्ला परिवार की विरासत फारुख अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला संभाल रहे हैं जबकि मुफ्ती मोहम्मद सईद की राजनीतिक वारिस महबूबा मुफ्ती हैं. इन दोनों ही परिवार के सामने अब कश्मीर की सियासत में खुद को बचाए रखना मुश्किल हो गया है.

पवार परिवार में अब पावर की लड़ाई
महाराष्ट्र में शरद पवार के परिवार में पावर की लड़ाई में एनसीपी दो धड़ों में बंट गई है. शरद पवार ने अभी हाल ही में अपनी बेटी सुप्रिया सुले को एनसीपी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया तो भतीजे अजित पवार ने 40 विधायकों के साथ बगावत कर दी. शरद पवार अब बेटी सुप्रिया सुले के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हैं, जिसमें परिवार के ही सदस्य रोहित पवार भी साथ हैं, लेकिन छगन भुजबल, प्रफुल्ल पटेल जैसे नेता अजित पवार के साथ हैं. ऐसे में सुप्रिया सुले के लिए अपने पिता की विरासत को बचाए रखनी चुनौती खड़ी हो गई है, क्योंकि शरद पवार की परंपरागत सीट पहले ही एनसीपी गंवा चुकी हैं. ऐसे में साफ दिख रहा है कि देश में परिवारवादी सियासत पर संकट के बादल गहरा गए हैं?

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