ममता बनर्जी ने राज्य विधानसभा चुनाव में जबरदस्त जीत हासिल कर तीसरी बार राज्य की सत्ता तो हासिल कर ली, मगर नन्दीग्राम से उनकी हार अब भी उनका पीछा नहीं छोड़ रही है। अगर उन्हें 4 नवम्बर तक विधानसभा की सदस्यता नहीं मिली तो उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ेगी, जिसके आसार निर्वाचन आयोग की कोरोना महामारी के टलने तक उपचुनाव टालने की घोषणा से साफ नजर आ रहे हैं।
उपचुनाव के लिए स्थिति अनुकूल हुई या नहीं, इसका फैसला भी केन्द्र सरकार के हाथ में है और केन्द्र सरकार तथा ममता के बीच छिड़े तुमुल संग्राम में फिलहाल युद्धविराम के आसार दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहे।
ममता की ही तरह उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत का भविष्य भी अधर में लटक गया है। तीरथ सिंह रावत को भी 10 सितम्बर तक विधानसभा की सदस्यता ग्रहण करनी है, जो कि समयाभाव के चलते कठिन लग रहा है।
तीरथ सिंह के लिए अतिरिक्त संकट यह भी है कि विधानसभा चुनाव के लिए एक साल से कम समय रह गया है और ऐसी स्थिति में कोई सीट खाली भी हो जाए तो भी उस पर उपचुनाव नहीं हो पाएगा, इसलिए राज्य में नेतृत्व परिवर्तन या फिर राष्ट्रपति शासन का ही विकल्प बच सकता है।
हालांकि मुख्य निर्वाचन आयुक्त सुशील चन्द्रा ने समाचार ऐजेंसी को दिए गए इंटरव्यू में दावा किया था कि आयोग का कोरोना महामारी के दौरान चुनाव कराने का अनुभव है इसलिए अगले पंजाब, उत्तराखण्ड, गोवा, उत्तर प्रदेश, हिमाचल और मणिपुर में विधानसभा चुनाव कराने में कोई दिक्क्त नहीं होगी मगर अयोग की 5 मई को जारी विज्ञप्ति में सीधे-सीधे कोराना महामारी का संकट टलने तक उप चुनाव टालने की स्पष्ट घोषणा भी की गई है।
इस घोषणानुसार आयोग ने 16 मई को प्रस्तावित पश्चिम बंगाल की जंगीपुर और शमशेरगढ़ सीटों पर चुनाव स्थगित कर दिए थे। आयोग की विज्ञप्ति में तीन लोकसभा क्षेत्रों और 8 विधानसभाओं की सीटों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि कुछ अन्य विधानसभा सीटें भी खाली हो गई हैं जिनकी रिपोर्ट आनी हैं। उन प्रतीक्षित रिक्तियों में पश्चिम बंगाल की भबानीपुर सीट भी है जिसे ममता के लिए टीएमसी के सोभनदेव चटोपाध्याय ने खाली किया है।
अगर नवम्बर तक भबानीपुर सीट पर उपचुनाव नहीं होता तो ममता के लिए विधानसभा की सदस्यता हासिल करने तक मुख्यमंत्री बने रहना संवैधानिक दृष्टि से संभव नहीं है।
इधर, जिस प्रकार ममता और केन्द्र की मोदी सरकार एक दूसरे को सबक सिखाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रहे, उसे देखते हुए ममता को एक दिन के लिए ही सही कुर्सी से अलग रखना भाजपा के लिए एक सुखद अनुभव हो सकता है।
संविधान के अनुच्छेद 164 (4) के प्रावधानों का लाभ उठाते हुए ममता बनर्जी गत 5 मई को बिना चुनाव जीते ही मुख्यमंत्री तो बन गईं, मगर इसी अनुच्छेद की इसी उपधारा में यह प्रावधान भी है कि अगर निरन्तर 6 माह के अन्दर गैर सदस्य मंत्री विधायिका की सदस्यता ग्रहण नहीं कर पाए तो उस अवधि के बाद वह मंत्री नहीं रह पाएगा। यही प्रावधान अनुच्छेद 75(5) में केन्द्रीय मंत्रिमण्डल के लिए भी है।
इस स्थिति में ममता के लिए आगामी 4 नवम्बर तक उपचुनाव जीतना अत्यन्त आवश्यक है और उपचुनाव भी तभी होंगे जब निर्वाचन आयोग चाहेगा। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 151(क) के अन्तर्गत भारत निर्वाचन आयोग को राज्य सभा, लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं की किसी भी सीट के खाली होने पर 6 माह की अवधि के अंदर उपचुनाव कराने होते हैं।
 
लेकिन इसी धारा की उपधारा में यह भी स्पष्ट किया गया है कि, ‘‘परन्तु इस धारा की कोई बात उस दशा में लागू नहीं होगी, जिसमें -(अ) किसी रिक्ति से सम्बंधित सदस्य की पदावधि का शेष भाग एक वर्ष से कम है; या (ब) निर्वाचन आयोग केन्द्रीय सरकार से परामर्श करके, यह प्रमाणित करता है कि उक्त अवधि के भीतर ऐसा उप निर्वाचन करना कठिन है।’’
इन प्रावधानों पर गौर करें तो ममता बनर्जी और तीरथ सिंह रावत के लिए कुर्सी पर टिके रहना आसान नजर नहीं आता है। हालांकि ममता के पास अपने विधिवत् निर्वाचन तक अपने किसी विश्वस्त को मुख्यमंत्री बनाने का विकल्प खुला है। हालांकि बिहार में जीतन राम मांझी का उदाहरण ममता को डरा सकता है। मांझी ने बाद में इस्तीफा देने से मना कर दिया था।
उत्तराखण्ड में इस समय केवल गंगोत्री विधानसभा सीट रिक्त है जोकि 23 अप्रैल को भाजपा के गोपाल सिंह रावत के निधन के कारण रिक्त हुई है। विधानसभा का कार्यकाल 23 मार्च 2022 को पूरा हो जाएगा।
इस हिसाब गंगोत्री विधानसभा सीट के लिए एक साल से कम समय बचा हुआ है। ऐसी स्थिति में एक साल से अधिक समय की अनिवार्यता के चलते तीरथ सिंह रावत के लिए राज्य में कोई भी सीट नहीं है। ऐसी स्थिति में राज्य में कोई दूसरा ही व्यक्ति मुख्यमंत्री पद संभाल सकता है या फिर राष्ट्रपति शासन जैसे विकल्प पर विचार किया जा सकता है।
तृणमूल कांग्रेस के उपाध्यक्ष यशवन्त सिन्हा भी पश्चिम बंगाल में यथासमय चुनाव कराए जाने के बारे में अपनी आशंका टिवटर पर व्यक्त कर चुके हैं। जबकि निर्वाचन आयोग भी गत 5 मई को स्पष्ट कर चुका है कि महामारी की स्थिति को लेकर राज्यों तथा केन्द्र के आपदा प्रबंधन प्राधिकरणों से परामर्श के बाद ही आयोग देश में उपचुनाव कराने पर विचार करेगा।
हालांकि आयोग ने अपनी विज्ञप्ति में लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 151 (क) में वर्णित प्रावधान क्रमांक (ब) का उल्लेख भी नहीं किया जिसमें केन्द्र सरकार से परामर्श का उल्लेख है।
हाल ही में सम्पन्न विधानसभा चुनावों में कोविड से बचाव के लिए निर्धारित प्रोटोकाॅल का पालन न किए जाने से हुई छिछालेदर और मद्रास हाइकोर्ट द्वारा निर्वाचन आयोग के अधिकारियों के खिलाफ अपराधिक मामला दर्ज किये जाने के निर्देश के बाद तो अब आयोग फूंक-फूंक कर कदम रख रहा है।
ममता बनर्जी या तीरथ सिंह रावत के पास बिना चुनाव जीते दुबारा मुख्यमंत्री बनने का विकल्प नहीं बचा हुआ है। एस.आर. चौधरी बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य मामले में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ए.एस. आनन्द की अध्यक्षता वाली सुप्रीमकोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने 17 अगस्त 2001 को दिए फैसले में स्पष्ट किया कि विधानसभा के एक ही कार्यकाल में किसी गैर विधायक को दूसरी बार 6 माह तक के लिए मंत्री नियुक्त नहीं किया जा सकता।
उस समय तेज प्रकाश सिंह को राजिन्दर कौर भट्ठल ने बिना चुनाव जीते मंत्री बना दिया था। इससे पहले जगन्नाथ मिश्र बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में भी लगभग ऐसा ही फैसला आया था।
यही नहीं बी.आ. कपूर बनाम तमिलनाडु राज्य मामले में स्पष्ट हुआ था कि अगर कोई व्यक्ति चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित हो चुका हो तो उसे भी मंत्री या मुख्यमंत्री नियुक्त नहीं किया जा सकता। इसीलिए जयललिता पुनः मुख्यमंत्री नहीं बन सकीं।

