Akhilesh Yadav’s decision : यूपी विधानसभा में अखिलेश यादव नेता प्रतिपक्ष की भूमिका में रहेंगे तो सीधे भाजपा से लड़ते दिखेंगे. दो साल बाद साल 2024 में लोकसभा के चुनाव हैं. ऐसे में अखिलेश की यूपी के सदन से दूरी राजनीतिक नज़रिये से बेहतर नहीं कही जा सकती. वह भी तब जब कांग्रेस की प्रियंका गांधी ने यूपी में ताकत झोंक रखी है. अब अखिलेश यादव का फैसला चाहे जो हो, लेकिन ये तो तय है कि या तो करहल में विधानसभा का या आजमगढ़ में लोकसभा का उपचुनाव तय है.
भले ही यूपी में समाजवादी पार्टी सत्ता से दूर रह गई, लेकिन अखिलेश यादव के लिए थोड़ी तसल्ली की बात ये होगी कि उनकी मेहनत से पार्टी को पिछले चुनाव की तुलना में लगभग तीन गुनी ज्यादा सीटें मिली हैं. जाहिर है वोट शेयर भी बढ़ा होगा. सरकार तो नहीं बन पाई लेकिन अखिलेश यादव के लिए ये फैसला करना बड़ी जद्दोजहद का होगा कि वे अब क्या चुनेंगे. वे सांसद रहेंगे या फिर विधायक? वे फिर से दिल्ली के सदन में बैठेंगे या फिर यूपी विधानसभा में विपक्षी दल के नेता के तौर पर बैठना पसंद करेंगे?
अखिलेश यादव का राजनीतिक इतिहास देखें तो ये साफ झलकता है कि वे विधायकी ही छोड़ेंगे और लोकसभा के सदस्य बने रहेंगे. अखिलेश यादव इससे पहले कभी भी विधानसभा का चुनाव नहीं लड़े थे. जब 2012 में समाजवादी पार्टी ने यूपी में सरकार बनाई थी तब भी अखिलेश यादव लोकसभा के सांसद थे. वे कन्नौज से सांसद थे. इस्तीफा देकर मुख्यमंत्री बने और फिर विधानपरिषद से विधायक बने. वे पहली बार चुनाव लड़कर विधायक बने हैं. ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि क्या अखिलेश यादव विधायक बने रहेंगे या फिर विधायकी छोड़कर सांसद बने रहना पसंद करेंगे.
इतिहास गवाह है कि अखिलेश यादव कभी विपक्षी विधायक के तौर पर यूपी की विधानसभा में नहीं बैठे. उनका राजनीतिक कैरियर साल 2000 में शुरू हो गया था. तब वे कन्नौज से सांसद बने थे. सूबे में वैसे तो तब राजनाथ सिंह की भाजपा सरकार थी. बाद में जब 2003 में मुलायम सिंह की सरकार बनी. तब अखिलेश सांसद थे लेकिन तब भी उन्होंने विधानसभा की राजनीति नहीं की. उस समय वे चाहते तो विधायक और मंत्री बन सकते थे. लेकिन वे यूपी विधानसभा से दूर ही रहे. इसी वजह से लगता है कि अखिलेश यादव सांसद बने रहेंगे और विधायकी छोड़ देंगे.
Akhilesh Yadav’s decision : सपा को भले ही 2017 से ज्यादा सीटें मिली हैं, लेकिन अब उसके सामने पहले से ज्यादा चुनौती और अवसर दोनों पैदा हो गए हैं. चुनौती इस बात की कि सपा को लीड कौन करेगा. भाजपा की बढ़ती ताकत के बीच दिल्ली की यात्रा पार्टी के लिए भारी पड़ेगी. किसी क्षेत्रीय दल के लिए 10 साल तक सत्ता से बाहर रहते हुए अपने काडर का मनोबल ऊंचा रखना बड़ी चुनौती होती है. और अवसर इस बात का है कि लंबे समय बाद सपा के वोट शेयर में बढ़ोतरी हुई है. बसपा और कांग्रेस लगभग खत्म सी दिखाई दे रही है. ऐसे में बसपा के वोटबैंक को समेटने का अवसर अखिलेश यादव के पास भरपूर है.
Akhilesh Yadav’s decision : इस विधानसभा में भी उन्होंने नारा दिया था कि समाजवादी और अम्बेडकरवादी साथ आ जाएं. अब उस नारे को जमीन पर उतारने का भरपूर अवसर उनके पास है. यदि वे विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष की भूमिका में रहेंगे तो सीधे भाजपा से लड़ते दिखेंगे. दो साल बाद साल 2024 में लोकसभा के चुनाव हैं. ऐसे में अखिलेश यादव की यूपी के सदन से दूरी राजनीतिक नज़रिये से बेहतर नहीं कही जा सकती. वह भी तब जब कांग्रेस की प्रियंका गांधी ने यूपी में ताकत झोंक रखी है. अब अखिलेश यादव का फैसला चाहे जो हो, लेकिन ये तो तय है कि या तो करहल में विधानसभा का या आजमगढ़ में लोकसभा का उपचुनाव तय है.