बिहार में आरक्षण संशोधन विधेयक के जरिए इसकी सीमा 75 प्रतिशत तय कर दी गई। अनरिजर्व कोटे में सिर्फ 25 फीसदी सीटें बच गई है। बिहार में कोटे के अंदर भी कोटे की व्यवस्था नीतीश सरकार ने की है। ऐसे में जनरल कैटेगरी के अभ्यर्थियों के लिए मामूली सीटें बचेंगी। शैक्षणिक से लेकर नौकरी तक में ये नियम लागू होगा। मगर, सवाल उठता है कि कानून की नजर में इस आरक्षण का भविष्य क्या है?
पटना: तो अंततः आरक्षण की सीमा को बढ़ाने के लिए विधानसभा से आरक्षण संशोधन विधेयक 2023 पास हो गया। अब इस संशोधन के बाद बिहार में आरक्षण की सीमा 75 प्रतिशत तय कर दी गई। अब मात्र 25 प्रतिशत ही अनारक्षित सीटें रह गई हैं। राज्य सरकार के इस संशोधन विधेयक को पास करने के बाद कई तरह के सवाल खड़े किए जा रहे हैं। न्यायालय की ओर से 50 प्रतिशत आरक्षण के दायरे को क्या ये पार किया जा सकता है? क्या ये अधिकार राज्य सरकार को है कि वो आरक्षण की सीमा को घटा या बढ़ा सके? क्या न्यायालय में इसे चुनौती दी जा सकती है?
क्या बिहार में आरक्षण की सीमा तय हो जाएगी?
इस संशोधन के बाद सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति को 20 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति को दो प्रतिशत आरक्षण मिलेगा। अब ओबीसी और ईबीसी की बढ़ी जनसंख्या को देखते नीतीश सरकार ने दोनों समुदायों को एक साथ 43 प्रतिशत आरक्षण देने का निर्णय लिया है। इसके अलावा आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए जो 10 प्रतिशत आरक्षण मिल रहे थे, वो मिलता रहेगा। यानी कुल मिलाकर बिहार सरकारी नौकरियों में आरक्षण की सीमा 75 प्रतिशत तक कर दी गई है। अब अनारक्षित वर्ग के लिए 25 प्रतिशत आरक्षण शेष रह गया है।
क्या आरक्षण संशोधन विधेयक 2023 पास करने के बाद आरक्षण की सीमा तय हो जाएगी? जी नहीं। अभी तो इसे राज्यपाल के पास भेजा जाएगा। संभव है राज्यपाल कुछ सुझाव दें या उन्हें उचित लगे तो वे राष्ट्रपति के पास भेजें। अब राष्ट्रपति को निर्णय करना होगा कि इस संशोधन को स्वीकृति दी जाए या नहीं?
संशोधित आरक्षण पर तमिलनाडु में क्या हुआ ?
तमिलनाडु में 1990 में आरक्षण की सीमा 69 प्रतिशत कर दी गई। लेकिन इंदिरा साहनी मामले के फैसले ने कुल आरक्षण को 50 प्रतिशत की सीमा के भीतर सीमित कर दिया। मद्रास उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के मामले में आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए।
बाद में तमिलनाडु सरकार ने 1993 में विधेयक पेश किया। इस विधेयक को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई। इसके बाद तमिलनाडु के लिए 69 प्रतिशत आरक्षण पक्का हो गया। साथ ही ये कहा जाता है कि जयललिता ने इस अधिनियम को संविधान की नौवीं अनुसूची के तहत भी शामिल करा दिया। संविधान के अनुच्छेद 31-बी में कहा गया है कि नौवीं अनुसूची के तहत शामिल किसी भी अधिनियम को किसी भी अदालत या न्यायाधिकरण की ओर से अमान्य नहीं माना जाएगा।
क्या है बिहार के संशोधित आरक्षण का भविष्य?
वैसे करने को तो कोई भी इस आरक्षण को चुनौती दे सकता है। मगर, बिहार के संदर्भ में ये कहा जा सकता है कि ऐसा किसी राजनीतिक दल की ओर से संभव नहीं है। वैसे भी इसे सदन ने सर्वसम्मति से पास किया है। भाजपा ने इस संशोधन की पुरजोर वकालत की है। इसलिए उम्मीद है कि राज्यपाल सकारात्मक दृष्टि रख कर इसे राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं। अब राष्ट्रपति को अंततः निर्णय लेना है।
दिलचस्प तो ये है कि अभी देश चुनावी मुहाने पर खड़ा है। कोई भी सरकार या दल इसका विरोध करते नहीं दिख रहा है। देश में लोकसभा चुनाव होने हैं और 2025 में बिहार विधानसभा का चुनाव। ऐसे में बिरनी के खोते में कोई हाथ नहीं डालेगा। पिछड़ों की बढ़ती जनसंख्या के सापेक्ष मिल रहे आरक्षण के विरुद्ध प्रतिरोध की उम्मीद तो कम ही है। फिर भी राष्ट्रपति की सहमति तो लेनी होगी।
‘आरक्षण की सीमा बढ़ा सकती है राज्य सरकार’
संविधान विशेषज्ञ और राजनीतिक विश्लेषक आलोक कुमार पाण्डेय कहते हैं कि अनुच्छेद 15(4) और अनुच्छेद 16(4) के आधार पर पिछड़ों को आरक्षण प्रदान किया जा सकता है। वर्ष 1992 इंदिरा साहिनी केस में आरक्षण की सीमा अधिकतम 50 प्रतिशत रखी जा सकती है, मगर अपवाद स्वरूप ही बढ़ाया जा सकता है। अपवाद का आधार जनजातीय क्षेत्र या अत्याधिक पिछड़ापन हो सकता है।
102वें संविधान संशोधन और 342 (A) के तहत कोई भी राज्य सरकार के पास ये अधिकार नहीं कि वो आरक्षण को घटा या बढ़ा सके। 342 (A) के अनुसार राष्ट्रपति और राज्यपाल की सलाह पर अगर कोई जाति, सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ा है तो आरक्षण की सीमा बढ़ाई जा सकती है। मगर, राज्य सरकार केवल संशोधन बिल को कैबिनेट से पास करा सकती है। आगे राज्यपाल और राष्ट्रपति के यहां विचार के बाद ही इसे लागू किया जा सकता है।