राजनीतिक हथियार बना आरक्षण, बदले जाएं तौर-तरीके ताकि पात्र लोगों को ही मिल सके उसका लाभ

मंडल राजनीति की उपज माने जाने वाले दलों ने आरक्षण को एक राजनीतिक हथियार बना लिया है। बिहार में बीते तीन दशक से भी अधिक समय से जाति और आरक्षण की राजनीति करने वाले दल ही सत्ता में हैं। उन्हें बताना चाहिए कि आखिर उनके इतने लंबे समय तक सत्ता में रहने के बाद भी राज्य में एससी-एसटी और अति पिछड़े और पिछड़े वर्गों की स्थिति कमजोर क्यों है?

बिहार सरकार ने जब जातियों के सर्वक्षण के आंकड़े जारी किए थे तो यही संकेत मिला था कि वह और उनके राजनीतिक सहयोगी जाति आधारित राजनीति के एजेंडे को नई धार देना चाहते हैं। इसका प्रमाण पिछले दिनों तब मिला, जब बिहार विधानसभा में आरक्षण की सीमा बढ़ाने वाले विधेयक को पेश किया गया।

जातिगत आरक्षण की सीमा को 50 से 65 प्रतिशत करने वाले इस विधेयक को पारित करने के पहले जाति सर्वेक्षण के जरिये हासिल आंकड़ों के आधार पर यह बताया गया कि अनुसूचित जाति (एससी), जनजाति (एसटी), अति पिछड़ों, पिछड़ों और सामान्य वर्ग की आर्थिक स्थिति क्या है? इस पर आश्चर्य नहीं कि बिहार में जाति सर्वे के आंकड़े सामने आने के बाद से देश भर में जातीय जनगणना कराने की मांग तेज हो गई है।

इसी के साथ आरक्षण सीमा बढ़ाने की भी मांग हो रही है। ऐसी मांग करने वाले दल एससी-एसटी और पिछड़े वर्ग को एक वोट बैंक के रूप में देख रहे हैं। जनगणना के साथ जातियों की गणना कराने में हर्ज नहीं, लेकिन उसका उद्देश्य जाति की राजनीति को बल देना अथवा अपनी-अपनी सुविधा से विभिन्न जातीय समूहों को वोट बैंक बनाना नहीं होना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से फिलहाल यही हो रहा है।

मंडल राजनीति की उपज माने जाने वाले दलों ने आरक्षण को एक राजनीतिक हथियार बना लिया है। बिहार में बीते तीन दशक से भी अधिक समय से जाति और आरक्षण की राजनीति करने वादल ही सत्ता में हैं। उन्हें बताना चाहिए कि आखिर उनके इतने लंबे समय तक सत्ता में रहने के बाद भी राज्य में एससी- एसटी और अति पिछड़े और पिछड़े वर्गों की स्थिति कमजोर क्यों है?

स्वतंत्रता के बाद जब संविधान तैयार किया गया तो उसमें एससी और एसटी वर्गों के लिए आरक्षण तय किया गया। यह आरक्षण दस वर्षों के लिए था, क्योंकि डा. भीमराव आंबेडकर ने इतनी अवधि के लिए ही आरक्षण को उपयुक्त माना था। वह स्वयं दलित वर्ग से आते थे। उनका मानना था कि दस वर्ष में एससी- एसटी मुख्यधारा में आ जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। बिहार का जाति सर्वे भी यही बता रहा है कि एससी-एसटी और ओबीसी आरक्षण से दलित-पिछड़े वर्गों का वैसा उत्थान नहीं हो सका, जैसा अपेक्षित था। इन स्थितियों में विचार इस पर होना चाहिए कि आरक्षित वर्गों के सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन को प्रभावी ढंग से कैसे दूर किया जाए, लेकिन इसके बजाय आरक्षण सीमा बढ़ाने की मांग हो रही है।

1990 के दशक में वीपी सिंह सरकार ने मंडल आयोग की रपट लागू कर अन्य पिछड़े वर्गों यानी ओबीसी को आरक्षण प्रदान किया। ओबीसी आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक तो माना, लेकिन यह भी स्पष्ट किया कि जातिगत आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती। इसके बाद पिछले लोकसभा चुनाव के पहले मोदी सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए दस प्रतिशत आरक्षण का प्रविधान किया। सुप्रीम कोर्ट ने इसे भी मान्यता प्रदान की । इस तरह आरक्षण अब 60 प्रति हो गया है। इसके बाद भी विभिन्न दल और वर्ग आरक्षण की मांग करते रहते हैं।

उदाहरणस्वरूप महाराष्ट्र में मराठा नेता अपने समुदाय के लिए आरक्षण मांग रहे हैं। क्या यह कहा जा सकता है कि जिस महाराष्ट्र में देश भर के लोग नौकरी करने जाते हैं, वहां का समस्त मराठा समाज आर्थिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़ा और आरक्षण का हकदार है? यदि देश भर में आरक्षित वर्ग की जातियों की गणना की जाए तो उनका प्रतिशत बिहार की तरह 60-70 प्रतिशत के करीब निकलेगा ।

आरक्षित वर्गों को शिक्षा संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया जाता है। कोई भी समझ सकता है कि सरकारी नौकरियां इतनी नहीं हैं कि सभी आरक्षित वर्गों को समाहित और संतुष्ट किया जा सके। निःसंदेह यह नहीं माना जा सकता एससी-एसटी और ओबीसी वर्ग की हर जाति के सभी लोग सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं और वे मुख्यधारा में शामिल नहीं हो सके हैं, लेकिन कई दल यही साबित करने की कोशिश कर रहे हैं।

यह सही है कि अतीत में दलित-पिछड़ी जातियों की उपेक्षा और अनदेखी हुई, लेकिन आज ऐसा नहीं है। इसके बाद भी वोट बैंक की राजनीति के चलते यह सिद्ध करने की कोशिश हो रही है कि आरक्षण ही दलित-पिछड़े वर्गों के उत्थान का एक मात्र उपाय है। यह सही है कि देश को फिलहाल आरक्षण की आवश्यकता है, लेकिन उसके तौर-तरीके बदलने की जरूरत है, ताकि पात्र लोगों को ही उसका लाभ मिल सके।

आज जब देश अमृतकाल में प्रवेश कर चुका है और प्रधानमंत्री मोदी अगले 25 वर्षों में देश को विकसित राष्ट्र बनाने के लिए संकल्पबद्ध हैं, तब जाति, पंथ, क्षेत्र और भाषा की राजनीति से बचा जाना चाहिए। यह राजनीति समाज को बांटने का काम करती है और लोगों में भारतीयता का बोध जगाने में बाधा बनती है। अच्छा होगा कि सभी दल इस पर विचार करें कि वंचित- पिछड़े और दबे-कुचले लोगों को ही आरक्षण का लाभ कैसे मिले? उन्हें आरक्षण के अतिरिक्त भी अन्य उपाय करने होंगे, क्योंकि सरकारी नौकरियां सभी को नहीं दी जा सकतीं। वे ऐसा करने के बजाय उच्चतम न्यायालय की ओर से तय आरक्षण सीमा की अनदेखी करके जाति की राजनीति कर रहे हैं।

क्योंकि सरकारी नौकरियां सभी को नहीं दी जा सकतीं। वे ऐसा करने के बजाय उच्चतम न्यायालय की ओर से तय आरक्षण सीमा की अनदेखी करके जाति की राजनीति कर रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट कई बार आरक्षण बढ़ाने वाले फैसलों को खारिज कर चुका है, फिर भी कई दल उसकी पहल करते रहते हैं। ऐसा करके वे लोगों को बरगलाने का ही काम करते हैं। वे वंचित- पिछड़े तबकों को यह समझाने में लगे रहते हैं कि आरक्षण उनके उत्थान का एक मात्र तरीका है। वर्तमान परिस्थितियों में राजनीतिक दलों के लिए ज्यादा जरूरी यह है कि वे अपने-अपने राज्यों में उद्योग-धंधों का विकास करें, जिससे ज्यादा से ज्यादा लोग रोजगार हासिल कर सकें।

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