चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर (Prashant Kishore) बिहार से अच्छी तरफ वाकिफ हैं और ये राज्य उनका गृह राज्य है. चूंकि वे अब रणनीतिकार से जल्द ही राजनेता बनने की राह में आगे बढ़ रहे हैं इसलिए बिहार की राजनीति (Bihar Politics) को और बेहतर तरीके से समझना उनके लिए जरूरी है. क्योंकि वे बिहार की सियासत की उस नाव में सवार होने जा रहे हैं जहां जाति की राजनीति का उतार-चढ़ाव चुनावी नैया को पार लगाता है.
बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार (Nitish Kumar) और लालू प्रसाद यादव (Lalu Prashad Yadav) जैसे कद्दावर नेता पिछले 30 सालों से सक्रिय हैं लेकिन पीके की पहचान सिर्फ एक रणनीतिकार और सलाहकार के तौर पर है. बिहार से अपने सियासी संग्राम की घोषणा करने के बाद प्रशांत किशोर पश्चिमी चंपारण के गांधी आश्रम से 3 हजार किलोमीटर की पदयात्रा की शुरुआत करेंगे. इस दौरान प्रशांत किशोर राज्य के विभिन्न इलाकों में जाकर हर वर्ग, जात और समुदाय के लोगों से मिलेंगे.
बिहार के राजनीतिक विश्लेषक, जो कि प्रशांत किशोर के काम को साल 2015 से करीब से देख रहे हैं. उनका यह अनुमान है कि पीके 2024 के लोकसभा चुनाव और 2025 के बिहार चुनावों से कुछ हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे में प्रशांत किशोर के पास पर्याप्त समय है कि वे बिहार की जनता के मूड और जातिगत समीकरणों को गहराई से आकलन करें और आगे चलकर बनाने या गिराने में अहम भूमिका निभा सकें.
प्रशांत किशोर ने नीतीश-लालू से बनाई दूरी
फिलहाल पीके अकेले इस सियासी सफर पर निकल पड़े हैं और नीतीश व लालू प्रसाद यादव दोनों से पर्याप्त दूरी बनाए हुए हैं. हालांकि वे बहुत सावधानी बरत रहे हैं ना तो उन्होंने राज्य में नीतीश कुमार के विकास कामों को नकारा है और ना ही लालू प्रसाद के शासन में दलित और गरीबों के सशक्तिकरण से इनकार किया है.
ऐसे में बड़ा सवाल है कि आखिर प्रशांत किशोर बिहार में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव को कैसे चुनौती देंगे? वे बिहार में बदलाव की बात करेंगे, अन्य विकसित राज्यों की तरह बिहार में विकास का वादा करेंगे. हालांकि इसके लिए उन्हें कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी.
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प्रशांत किशोर बिहार में अपनी राजनीतिक यात्रा की शून्य से शुरुआत करने के लिए तैयार हैं लेकिन उनके पास अरविंद केजरीवाल की तरह पार्टी बनाने और आंदोलन का कोई अनुभव नहीं है.
पिछली बार बिहार में जन आंदोलन का उदय 1974 में हुआ था जब जय प्रकाश नारायण के आंदोलन ने इंदिरा गांधी को एक बड़ी चुनौती दी थी. लालू और नीतीश उस आंदोलन के समय उभरे नेता थे और उन्होंने अपने सफल राजनीतिक करियर में उस युग से बहुत कुछ सीखा है.
लेकिन प्रशांत किशोर जिस वक्त बिहार की राजनीति में दस्तक देने की कोशिश कर रहे हैं वह समय बड़ा महत्वपूर्ण है. दलितों के नेता रामविलास पासवान नहीं रहे, लालू स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे हैं और नीतीश अपने करियर के अंतिम चरण में हैं. एक नए बिहार का वादा करते हुए पीके राज्य में 58% युवा मतदाताओं को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं.