बिहार में चल रही सियासी उथल-पुथल अपने परिणाम तक पहुंच गई है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पहले एनडीए से नाता तोड़ा. अपने पद से इस्तीफा दिया. प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के साथ चले गए. फिर अन्य पार्टियों के साथ मिलकर राज्यपाल के सामने नई सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया. इसके साथ ही भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड फिर अलग हो गई. पिछले 20 साल में ऐसा दूसरी बार हुआ है. इससे पहले 2015 के विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियों के बीच खटास आई थी. तब नीतीश अपने विरोधी खेमे राजद के साथ महागठबंधन बनाकर अलग हो गए थे. महज 2 साल बाद वे फिर ‘पलट’ कर भाजपा के करीब आए. जुलाई 2017 में एनडीए सत्ता में आई.
दोनों दलों का यह ‘साथ’ बिहार विधानसभा चुनाव के समय परवान पर था. यह चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता की पृष्ठभूमि में हुआ. वहीं, बिहार में नीतीश कुमार की छवि और परफॉर्मेंस दांव पर थे. भाजपा इस बार पूरे तेवर के साथ मैदान में थी. जानकारों का भी अंदाजा था कि पार्टी सत्ता की दावेदार है. नीतीश कुमार भी यह जानते थे. लेकिन एनडीए ने गठबंधन धर्म को ऊपर रखा. नीतीश कुमार सीएम पद के दावेदार बने. मगर चुनाव जीतना आसान न था. इसके लिए नीतीश को पीएम मोदी के ‘इमेज’ की जरूरत थी. चुनाव से पहले नीतीश-विरोधी ‘सुर और स्वर’ उन्होंने भांप लिए थे. चुनावी नतीजे आए तो अनुमान सही साबित हुए. राजद भले 75 सीटों के साथ पहले नंबर की पार्टी बना, लेकिन भाजपा ने 74 सीटें हासिल कर लीं. वहीं जेडीयू को 43 सीटों के साथ तीसरे नंबर पर रहना पड़ा. यानी एनडीए में जदयू अब ‘बड़ा भाई’ नहीं रह गया. पीएम मोदी का नाम और उनका साथ नीतीश के काम आया. एनडीए की तरफ से उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. इसके लिए पीएम मोदी को धन्यवाद भी दिया.
विधानसभा चुनाव के आंकड़ों पर करें गौर
पीएम मोदी के नाम पर एनडीए ने यह चुनाव जीता था और नीतीश कुमार को छठी बार सीएम की कुर्सी मिली थी, यह जनादेश से स्पष्ट हो गया था. इसे जरा विस्तार से समझें. बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 110 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे. इनमें से 74 सीटों पर उसे जीत हासिल हुई थी. कुल वोट प्रतिशत था 67%. वहीं, जेडीयू ने 115 सीटों पर चुनाव लड़ा था. मगर चुनाव परिणाम आए तो पार्टी के खाते में सिर्फ 43 सीटें ही आईं. जेडीयू को महज 37 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट दिया था. भाजपा के मुकाबले खुद को बड़ा साबित करने के लिए ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़कर भी जदयू, एनडीए में दूसरे नंबर पर ही रहा. यह चुनाव परिणाम दरअसल नीतीश कुमार के प्रति 2020 में एंटी-इन्कम्बेंसी का असर था. उस समय के मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो विपक्षी उम्मीदवार तेजस्वी यादव के मुकाबले भी नीतीश कुमार कमजोर दिख रहे थे. कई जानकारों ने तो इस चुनाव परिणाम को ‘पीएम मोदी की जीत’ ही बताया था. साथ ही यह भी कि कैसे नीतीश पहली बार इतने ‘बेअसर’ दिखे.
नीतीश को पता था पीएम मोदी का जादू
बिहार चुनाव के समय और उसके परिणाम का अंदाजा नीतीश कुमार को भी था. वे भी पीएम मोदी के प्रति जनता के आकर्षण को समझते थे. यही वजह रही कि चुनावी नतीजों के बाद नीतीश कुमार ने ऐसी ही प्रतिक्रिया भी दी. उन्होंने ट्वीट किया था- ‘जनता मालिक है. उन्होंने एनडीए को जो बहुमत प्रदान किया, उसके लिए जनता-जनार्दन को नमन है. मैं पीएम नरेंद्र मोदी जी को उनसे मिल रहे सहयोग के लिए धन्यवाद करता हूं.’ बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों ने प्रमाणित कर दिया था कि पीएम मोदी के ‘काम’ को जनता पसंद करती है. नीतीश कुमार डेढ़ दशक से प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर थे, मगर उन्हें भी चुनावी जीत के लिए मोदी-नाम का सहारा लेना पड़ा था.
भाजपा को मिला था जनादेश, बाकी सब पीछे
बिहार के ताजा घटनाक्रम को सही ठहराने के लिए विधानसभा चुनाव के आंकड़े पेश किए जा रहे हैं. यह साबित करने की कोशिश हो रही है कि नीतीश कुमार ने राजद के साथ मिलकर जनादेश का समर्थन किया है. लेकिन चुनावी आंकड़ों पर गौर करें तो यह बात सीधे तौर पर गलत साबित होती है. 2020 के चुनाव में डाले गए वोट प्रतिशत को देखें तो भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर सामने आती है. 2015 में भले ही राजद, जदयू और कांग्रेस ने वोट प्रतिशत में भाजपा से बाजी मारी थी. लेकिन 2020 में यह आंकड़ा एकदम उलट रहा. इस चुनाव में भाजपा ने कुल 74 सीटें जीतकर 67 प्रतिशत वोट हासिल किए थे. वहीं उसकी सहयोगी जदयू को 39 फीसदी से कम वोट मिले थे. सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाली पार्टी राजद को सीटें भले 75 मिली थीं, लेकिन वोट प्रतिशत 50.6% ही था. वहीं इन सभी में कांग्रेस का प्रदर्शन सबसे खराब रहा, जिसे कुल 28 फीसदी वोट और 20 सीटें मिली थीं. ऐसे में यह कहना लाजिमी है कि जनता ने भाजपा के पक्ष में ही जनादेश दिया था.