देश के समतामूलक और लोकतांत्रिक ढांचे को तोड़ने की कोशिश कर रहा है यह पीएफआई

पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) , अपने कार्यकर्ताओं के दिल्ली दंगों के सिलसिले में गिरफ्तार होने के कारण फिर से ख़बर में हैI इसके पूर्व संगठन पर उत्तर प्रदेश और असम में दंगों से जुड़े होने का भी आरोप हैI हालांकि संगठन इन दंगों में अपनी किसी भी भूमिका से इनकार करता रहा है, यह आम तौर पर जनता के लिए और विशेष रूप से संगठन के अनुयायियों के लिए प्रासंगिक है की वो संगठन के कामकाज को गहराई से देखें और संगठन की गतिविधियों का लाभ किन्हें मिल रहा है इसपर विचार करे।

यह याद रखने की जरूरत है कि पीएफआई का डीएनए राष्ट्रीय विकास मोर्चा (एनडीएफ) का है, जो केरल का अरबी बहावी मुस्लिम सांप्रदायिक संगठन है, जिसके सदस्य कई हत्याओं के मामलों में शामिल रहे हैं। यह संगठन 1990 तथा 2000 के दशक के दौरान चरमपंथी गतिविधियों मैं भी शामिल रहा है। आपको बता दें कि एनडीएफ पर 2003 के मराड दंगों में भी शामिल होने का आरोप लगाया गया था, जो केरल के हालिया इतिहास क सबसे वीभत्स घटना मानी जाती है। बाद में एनडीएफ ने 2006 में संभवत: सिमी (SIMI) के समान प्रतिबंध के डर से पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया में रूप में अपनी नयी पहचान बना ली। पूर्ववर्ती NDF से पीएफआई के पार्टी के झंडे की समानता भी इस बात को दर्शाती है। इसके संविधान (वेबसाइट में उपलब्ध) के अनुसार, पीएफआई, एक धर्मनिरपेक्ष संगठन है और इसका लक्ष्य एक समतावादी समाज की स्थापना करना है, जिसमें सभी स्वतंत्रता, न्याय और सुरक्षा का आनंद लें सके तथा इसकी सदस्यता भारत के सभी नागरिकों (जो इसके उद्देश्यों से सहमत है) के लिए खुली है। हालाँकि, इसका धर्मनिरपेक्षतावादी चेहरा तब बेपर्दा हो जाता है, जब इसके राष्ट्रीय स्तर या राज्य स्तर पर अपने किसी भी कार्यकारी सदस्य के साथ साथ अपने नेतृत्व का चयन यह मुस्लिम समुदाय से बाहर से नहीं करता है। यह संगठन केवल घोर सांप्रदायिक ही नहीं है अभी तू क्षेत्रवादी पूर्वाग्रह से ग्रस्त है। मसलन, इसके राष्ट्रीय कार्यकारी समिति (एनईसी) पैनल में दक्षिण भारत के तीन राज्यों जैसे केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु की बहुलता तथा इनके बाहर से किसी भी सदस्य को शीर्ष निर्णय लेने वाले निकाय में नहीं चुना जाना इसके दक्षिण भारतीय क्षत्रिय मानसिकता का सबूत है।

पीएफआई ने चुनावी राजनीति के माध्यम से सत्ता में आने के उद्देश्य से सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआई) को उतारा है। SDPI राष्ट्रीय कार्यसमिति में PFI के कई सदस्यों की मौजूदगी दोनों संगठनों के बीच संबंधों को दर्शाता है। इसके वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष एम.के. फैजी खुद पूर्व में पीएफआई के एनईसी सदस्य रह चुके हैं।

पीएफआई कई अन्य फ्रंट संगठन को भी चलाता है जैसे की राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन (NCHRO) । (NCHRO) का गठन 2007 में हुआ था जिसका लक्ष्य उन व्यक्तियों और संगठनों का एक मंच तैयार करना जो पार्टी-वोट-राजनीति से परे मानवाधिकारों के लिए लड़ रहे हों। इससे पहले, यह केरल राज्य में मानव अधिकार संगठन (CHRO) के परिसंघ के नाम पर कार्य कर रहा था। वास्तव में CHRO केरल में मानवाधिकार आंदोलन के फेडरेशन का पुन: अवतार था, जो 1997 में PFI के केरल स्थित अग्रदूत एनडीएफ की पहल पर बना था। वास्तव में एनडीएफ ने इस निकाय की परिकल्पना इसलिए की थी ताकि अन्य मानवाधिकारों के उल्लंघन पर अधिकारियों का ध्यान केन्द्रित कर सके जबकि वह स्वयं कई मानव अधिकार उल्लंघन में लिप्त था। एनसीएचआरओ (NCHRO) की कार्यकारी समिति के कई सदस्य पीएफआई के नेता हैं, जिनमें इसके वर्तमान महासचिव पी. कोया भी शामिल हैं, जो पीएफआई के एनईसी के सदस्य हैं।

यह कितना हास्यास्पद है की एक संगठन, जिसपर केरल में एक प्रोफेसर के हाथ काटने का आरोप सिद्ध हो चुका हो और कई मानवाधिकार हनन के मामले चल रहे हो, ऐसे संगठन के लोग मानवाधिकार की रक्षा को लेकर संगठन चला रहे हैं। यह लोग खुद को एनसीएचआरओ (NCHRO) के माध्यम से मानवाधिकार चैंपियन होने का स्वांग रच रहे हैं। पीएफआई का नाम कई विवादास्पद मामलों में बार-बार आया है, हाथ काटने के मामले के अलावा, इसके कार्यकर्ताओं को नारथ आर्म्स प्रशिक्षण मामले में भी दोषी ठहराया गया है, जिन्हें पीएफआई के प्रशिक्षण केंद्र पर छापे के दौरान पकरा गया था। उस छापेमारी में कई निर्मित आईईडी (lEDs) और हथियार जब्त किए गए थे। इसके कई सदस्यों को ISIS में भी शामिल होने के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। पीएफआई / एसडीपीआई सदस्यों के ऊपर घुर सांप्रदायिक मनोवृति के कारण अपने वैचारिक विरोधियों की हत्या करने और जानलेवा हमले के असंख्य आरोप लगे हैं। इसमें से कई आरोप साबित भी हो चुके हैं।

उपरोक्त तथ्य यह प्रश्न करने के लिए मजबूर करता है कि यह संगठन हिंसा के माध्यम से अपने घोषित उद्देश्य को प्राप्त करना चाहता है? हालांकि पीएफआई बार-बार इन आरोपों का खंडन करता रहा है, लेकिन इसके सदस्यों से जुड़े मामले अन्यथा सामने आते रहते हैं। इससे यह संदेह पैदा होता है कि कथित तौर पर इस संगठन द्वारा किए गए अच्छे काम भी केवल अपना आधार विकसित करने और अधिक सदस्यों की भर्ती करने का एक जरिया हो सकते हैं।

पीएफआई कि इस सांप्रदायिक और उग्रवादी मनोवृत्ति के कारण हिंदू चरमपंथियों को भी फायदा पहुंचने लगा है। सेपीएफआई की आक्रामक मुद्राएं और हिंसा का उपयोग केवल देश में नाजुक सांप्रदायिक स्थिति को ही और अधिक जटिल नहीं बना रहा है अपितु इसके अंतिम लाभार्थी स्वयं वह हिंदू संगठन हैं जिनका पीएफआई विरोध करता है और जो पीएफआई जैसे संगठनों द्वारा हिंसा के इस्तेमाल की ओर इशारा करते हैं तथा पूरे मुस्लिम समुदाय के खिलाफ भावनाओं को सांप्रदायिक रूप देने में कामयाब हो रहे हैं। मैं यहां यस सफ कर देना चाहता हूं की मुस्लिम चरमपंथ और हिंदू चरमपंथ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वर्तमान परिपेक्ष में सभी समुदायों के नरमपंथियों का यह दायित्व बनता है की वो ऐसे तत्वों को समाज में जगह ना बनाने दे और इससे सावधान रहें। पीएफआई देश के समतामूलक और लोकतांत्रिक ढांचे को तोड़ने का काम कर रहा है इसलिए इसके खिलाफ लोकतांत्रिक ताकत को एकत्रित होना ही पड़ेगा।

#हसन जमालपुरी

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