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एक कैप्सूल के कारण मच गया था कोहराम, 58 साल पुरानी कहानी जान दंग रह जाएंगे

ऑस्ट्रेलिया में एक मटर के दाने जितना बड़ा कैप्सूल गुम हो गया, जिसके बाद पूरे देश में हड़कंप मच गया। ऑस्ट्रेलियाई अधिकारियों ने इसे खोजने में दिन रात एक कर दिए। इसके बाद कैप्सूल मिल गया। आखिर ये छोटा सा कैप्सूल इतने बड़े देश के लिए इतना जरूरी क्यों है, जिसके खोने पर पूरे देश में हड़कंप मच गया। दरअसल ये कोई सामान्य कैप्सूल नहीं है। ये एक रेडियोएक्टिव कैप्सूल है, जो काफी खतरनाक हो सकता है। लेकिन क्या आप जानते हैं भारत में भी ऐसे कैप्सूल कई साल पहले गुम हो गए थे। ऑस्ट्रेलिया में तो केवल एक कैप्सूल गुम हुआ था लेकिन भारत में ऐसे 7 कैप्सूल नंदा देवी पर्वत पर गुम हो गए थे। आज हम आपको इन्हीं कैप्सूल की पूरी कहानी बताने जा रहे हैं।

भारत में कैसे गुम हुए खतरनाक कैप्सूल
नंदा देवी पर्वत पर गुम हुए ये कैप्सूल भी कोई आम कैप्सूल नहीं थे। ये प्लुटोनियम से भरे बेहद खतरनाक न्यूक्लियर डिवाइस थे। इन कैप्सूल के गुम होने की कहानी भारत-चीन युद्ध के बाद शुरू होती है। दरअसल 1964 में चीन ने अपना पहला न्यूक्लियर टेस्ट किया था। चीन के हाथ परमाणु शक्ति देख अमेरिका अलर्ट हो गया। इसके बाद अमेरिका ने भारत के साथ मिलकर एक सीक्रेट मिशन की योजना बनाई। 1962 के युद्ध और चीन से देश की सुरक्षा को देखते हुए भारत भी अमेरिका का साथ देने को राजी हो गया। सीक्रेट मिशन के तहत भारत की दूसरी सबसे ऊंची चोटी नंदा देवी पर्वत को चुना गया। अमेरिका चाहता था कि यहां से चीन के न्यूक्लियर टेस्ट की निगरानी की जाए।

भारत और अमेरिका का था संयुक्त मिशन
इस मिशन को भारत के इंटेलिजेंस ब्यूरो और अमेरिकी की खुफिया एजेंसी सीआईए ने संयुक्त रूप से अंजाम देने की तैयारी की। मिशन के तहत 7 न्यूक्लियर कैप्सूल वाले डिवाइस को नंदा देवी पर्वत पर ले जाना था। इस डिवाइस का वजन 56 किलोग्राम था। लेकिन इसे चोटी तक ले जाने का काम बेहद मुश्किल था। मिशन को अंजाम देने के लिए किसी बहादुर कंमाडर की जरूरत थी। ऐसे में मिशन की कमान मनमोहन सिंह कोहली को सौंपी गई। कोहली देश के जाने माने क्लाइंबर्स में से एक थे और पहले भी कठिन पहाड़ी रास्तों को पार कर चुके थे। एम.एस कोहली की टीम में भारत और अमेरिका के टॉप क्लाइंबर्स, इंटेलिजेंस ऑफिसर, न्यूक्लियर एक्सपर्ट और रेडियोएक्टिव इंजीनियर शामिल किए गए।

मिशन लॉन्च करने से पहले आया बर्फीला तूफान
कैप्टन कोहली ने एक इंटरव्यू के दौरान बताया कि उनकी टीम ने 56 किलो के न्यूक्लियर डिवाइस को लेकर नंदा देवी पर्वत पर चढ़ना शुरू किया। इस डिवाइस में करीब 10 फीट का एंटीना, ट्रांसीवर और स्नैप जनरेटर के साथ-साथ 7 प्लूटोनियम कैप्सूल थे। वो लगभग अपनी मंजिल पर पहुंच भी गए थे। लेकिन वो मिशन को अंजाम देने वाले थे लेकिन बदकिश्मती से तभी एक बर्फीला तूफान आ गया। तूफान को देखते हुए कैप्टन कोहली ने टीम के साथ बेस कैंप तक वापस जाने का फैसला लिया। टीम के साथी भी इसके लिए राजी हो गए।

कैप्टन कोहली ने बताया कि न्यूक्लियर डिवाइस को अपने बेस कैंप तक ले जाना मुश्किल था। ऐसे में उन्होंने अपनी टीम की जान बचाने को प्राथमिकता दी और डिवाइस को वहीं छोड़कर बेस कैंप की ओर बढ़े। तूफान जाने के बाद जब कैप्टन कोहली अपनी टीम के साथ वापस उसी जगह पहुंचे तो न्यूक्लियर डिवाइस और कैप्सूल खो चुके थे। इसके बाद कैप्टन कोहली और उनकी टीम ने तुरंत सर्च अभियान चलाया। काफी मशक्कत के बाद भी उन्हें न्यूक्लियर कैप्सूल नहीं मिले। रेडियोएक्टिव एक्सपर्ट्स ने वहां के पानी का सैंपल लेकर रेडियो एक्टिविटी की जांच भी की, लेकिन फिर भी कोई फायदा नहीं निकला। कई सालों तक टीमों ने इन कैप्सूल को ढूंढने की कोशिश की।

इंटरव्यू में कैप्टन कोहली ने बताया कि शायद ये कैप्सूल बर्फ में कहीं दफन हैं। वहीं सीआईए के एक्सपर्ट्स ने कहा था कि अगर ये कैप्सूल गंगा या किसी अन्य नदी में बह गए तो करोड़ों लोगों की जान पर आ सकती है। आज भी एक्सपर्ट्स इन कैप्सूल को लेकर चिंता जताते हैं।

ऑस्ट्रेलिया में क्या हुआ था?
वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया के पिलबरा से 16 जनवरी 2023 को रेडियोएक्टिव कैप्सूल को ट्रक में लादकर पर्थ भेजा गया। ये दूरी करीब 1400 किलोमीटर की है। कैप्सूल को अच्छी तरह पैक करके ट्रक में लादा गया था। लेकिन जब इस पैकेट को 25 जनवरी को पर्थ में खोला गया तो कैप्सूल गायब था। अधिकारियों ने आशंका जताई कि शायद ये कैप्सूल रास्ते में कहीं गिर गया होगा। इस कैप्सूल को वापस लेना भूसे के ढेर में सुई खोजने जैसा था, क्योंकि इसका आकार एक मटर के दाने जितना बड़ा था। इसका साइज सिर्फ 6 मिमी या 0.24 इंच व्यास और 8 मिमी लंबा है। हालांकि प्लूटोनियम लोहे के खोल में बंद था, इसलिए इससे खतरा कम था। लेकिन अगर ये फट जाता तो बड़ी जन हानि हो सकती थी।

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