पहले जानें कौन है अप्रवासी:- सहज रूप से अप्रवासी का अर्थ उन लोगों से है जो इन 6 समूहों या समुदायों में से हो। इन समूहों के अतिरिक्त इन देशों से आने वाले लोग किसी भी तरह से नागरिकता के पात्र नहीं होंगे। यह विधेयक प्राकृतिक रूप से नागरिकता के प्रावधान में भी छूट देता है। साथ ही विधेयक 3 पडोसी देशों के 6 समुदायों के लोगों को 11 साल भारत में रहने की अवधि में भी छूट देता है। विधेयक में इसे घटाकर 5 साल किया गया है।
सरकार की पक्ष:- 1947 में भारत और पाकिस्तान के धार्मिक आधार पर विभाजन का तर्क देते हुए सरकार ने कहा कि अविभाजित भारत में रहने वाले लाखों लोग भिन्न मतों को मानते हुए 1947 से पाकिस्तान और बांग्लादेश में रह रहे थे। विधेयक में कहा गया है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान का संविधान उन्हें विशिष्ट धार्मिक राज्य बनाता है। परिणामस्वरूप, इन देशों में हिंदू, सिख, बौद्ध, पारसी, जैन और ईसाई समुदायों के बहुत से लोग धार्मिक आधार पर उत्पीड़न झेल रहे हैं।
कौन हो सकता है शामिल:- यह विधेयक पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई अप्रवासियों को शामिल करता है। नागरिकता कानून 1955 के अनुसार, एक अवैध अप्रवासी नागरिक को भारत की नागरिकता नहीं मिल सकती है। अवैध अप्रवासी का अर्थ उस व्यक्ति से है जो भारत में या तो वैध दस्तावेजों के बिना दाखिल हुआ है अथवा निर्धारित समय से अधिक भारत में रह रहा है। सरकार ने 2015 में इन 3 देशों के गैर मुस्लिम शरणार्थियों को भारत में आने देने के लिए पासपोर्ट और विदेशी एक्ट में संशोधन किया था। यदि उनके पास वैध दस्तावेज नहीं हैं तो भी वह भारत में आ सकते है। नागरिकता संशोधन कानून 2019 संसद के दोनों से सदनों से पारित होने के बाद राष्ट्रपति के मुहर के बाद कानून बना।
विपक्ष के सवाल:- प्रमुख विपक्षी दलों का कहना है कि विधेयक देश के करीब 15% मुसलमानों के साथ भेदभाव करता है, जिन्हें इसमें शामिल नहीं किया गया है। हालांकि सरकार ने कहा है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान मुस्लिम राष्ट्र हैं। वहां पर मुस्लिम बहुसंख्यक हैं, ऐसे में उन्हें उत्पीड़न का शिकार अल्पसंख्यक नहीं माना जा सकता है। उन्होंने आश्वासन दिया है कि सरकार दूसरे समुदायों की प्रार्थना पत्रों पर अलग-अलग मामले में गौर करेगी।
BJP सरकार के चुनावी वादों में से यह एक है। आम चुनावों के ठीक पहले यह विधेयक अपनी शुरुआती अवस्था में जनवरी 2019 में पास हुआ था। इसमें 6 गैर मुस्लिम समुदार्यों हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाइयों के लिए भारतीय नागरिकता मांगी गई। इसमें नागरिकता के लिए बारह साल भारत में निवास करने की आवश्यक शर्त को कम करके सात साल किया गया। यदि नागरिकता चाहने वाले के पास कोई वैध दस्तावेज नहीं है तो भी। इस विधेयक को संयुक्त संसदीय कमेटी के पास भेजा गया था, हालांकि यह बिल पास नहीं हो सका क्योंकि यह राज्यसभा में गिर गया था।
यह विधेयक संविधान के अनुच्छेद – 14 यानी समानता के अधिकार का उल्लंघन है। कांग्रेस, TMC और माकपा सहित अन्य कुछ प्रमुख राजनीतिक दल विधेयक का मुखर विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि नागरिकता धर्म के आधार पर नहीं होनी चाहिए। देश के उत्तर पूर्वी राज्यों असम, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा, मिजोरम, नगालैंड और सिक्किम में विधेयक के खिलाफ व्यापक पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए हैं।
उत्तरपूर्वी राज्यों में विधेयक का भारी विरोध है। यहां पर व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए हैं। लोग महसूस करते हैं कि अवैध प्रवासियों के स्थायी रूप से बसने के बाद स्थानीय लोगों की मुश्किलें बढ़ जाएंगी। साथ ही आगामी समय में संसाधनों पर बोझ बढ़ेगा और पहले से यहां रह रहे लोगों के लिए रोजगार के अवसरों में कमी आएगी।
लोगों का एक बड़ा वर्ग और संगठन विधेयक का विरोध इसलिए भी कर रहे हैं कि यह 1985 के असम समझौते को रद कर देगा। असम समझौते के अनुसार, 24 मार्च 1971 के बाद असम में आए लोगों की पहचान कर बाहर निकाला जाए। अब नागरिकता संशोधन विधेयक में नई सीमा 2019 तय की गई है। अवैध प्रवासियों के निर्वासन की समय सीमा बढ़ाने से लोग नाराज हैं।
संसदीय समिति के अनुसार, दूसरे देशों के रहने वाले इन अल्पसंख्यक समुदायों के 31 हजार 313 लोग लंबी अवधि के वीसा पर रह रहे हैं। यह लोग धार्मिक उत्पीड़न के आधार पर शरण मांग रहे हैं। इंटेलीजेंस ब्यूरो के रिकॉर्ड के अनुसार, इन 31 हजार 313 लोगों में 25 हजार 447 हिंदू, 5 हजार 807 सिख, 55 ईसाई, 2 बौद्ध और 2 पारसी शामिल हैं।