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Kaalkoot Review: अज्जू भैया के बाद यूपी के वीर बहादुर का बवाल, नौकरी छोड़ने को बेताब दरोगा के किरदार की चुनौती

हिंदी सिनेमा में चॉकलेटी हीरो से इतर एक ऐसे चेहरे की जरूरत शुरू से रही है जो बिल्कुल आम इंसान जैसा हो। बहुत स्मार्ट न दिखता हो। मध्यमवर्गीय परिवारों की नुमाइंदगी कर सकता हो और बोलता, बतियाता वैसे ही हो, जैसे इन परिवारों के कम आत्मविश्वास वाले लड़के करते हैं। तो संजीव कुमार से चला ये सिलसिला ओम पुरी, मनोज बाजपेयी, इरफान खान और नवाजुद्दीन सिद्दीकी से होता हुआ अब विजय वर्मा को टटोलने की कोशिश कर रहा है। विजय ने पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट से एक्टिंग की पढ़ाई की है। राज और डीके की 15 साल पहले बनी शॉर्ट फिल्म ‘शोर’ में अभिनय की आग दिखाई है और तमाम फिल्में और वेब सीरीज करने के बाद ये तो साबित किया है कि अगर उनको एक अच्छा करैक्टर मिले तो पर्दे पर आग लगा सकते हैं।

विजय वर्मा की हालत रेगिस्तान के उस हिरण जैसी है जिसे दूर चमकता हर रेत का टीला पानी नजर आता है। वह किरदार दर किरदार खुद के साथ प्रयोग भी कर रहे हैं। कभी लोहा सिंह बनते हैं, कभी हमजा शेख और कभी विजय चौहान भी..! सस्या और आनंद स्वर्णकार के रूप में भी लोगों ने उन्हें देखा है। अब वह रवि शंकर त्रिपाठी के किरदार में हैं। हैदराबाद में बसे मारवाड़ी परिवार में पले बढ़े विजय वर्मा को उत्तर भारतीय संस्कृति के करीब लाता उनका ये नया किरदार उनके पहले के कई और किरदारों की तरह ही अधपका है। विजय के साथ दिक्कत ये दिखती है कि वह खुद को पूरी तरह लेखकों और निर्देशकों के हवाले कर दे रहे हैं।

यूपी 65 और बिना हेलमेट का दरोगा
मैक मोहनगंज नाम के काल्पनिक शहर में यूपी 65 नंबर की यामाहा बाइक पर घूमते विजय वर्मा जब तीन महीने पहले ही भर्ती हुए दरोगा के किरदार को जीने की कोशिश करते हैं, तो उनके प्रयास ईमानदार लगते भी हैं। वेब सीरीज ‘कालकूट’ की कहानी शुरू ही इस बात से होती है कि ये दरोगा तीन महीने की ही नौकरी में उकता गया है और इस्तीफा देना चाहता है। आईएएस, पीसीएस, नीट और सीडीएस जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते करते दिमाग उसका कंप्यूटर से भी तेज चलने लगा है लेकिन आत्मविश्वास उसमें रत्ती भर का नहीं दिखता। थाना प्रभारी से गालियां खाता रहता है। सिपाही उसका मजाक बनाते हैं और वह दिन रात सरकारी पिस्तौल कमर में खोंसे रहता है। केस उसको पहला मिलता है एक एसिड अटैक को सुलझाने का। साथ में खनन माफिया, बालिकाओं की जन्मते ही हत्या, ईमेल हैकिंग और सोशल मीडिया पर महिलाओं की अश्लील फोटो अपलोड करने की मकड़जाल सी कहानियाभी है।

ढीली पटकथा और कमजोर किरदार
वेब सीरीज ‘कालकूट’ की कथा समुद्र मंथन में निकले हलाहल जैसी कहानी तो नहीं है, हां, अपने नाम के अनुरूप ये दर्शकों के लिए समय मंथन बहुत है। 30-30 मिनट के कोई आठ एपिसोड है। आखिरी थोड़ा लंबा करीब 50 मिनट का है। कहानी सूडोकू की तरह कभी इस खाने तो कभी उस खाने की तरफ ध्यान भटकाती है। लोगों के बोलने का लहजा इसे उत्तर प्रदेश की पृष्ठभूमि की कहानी साबित करने की कोशिश करता है। 1090 जैसी महिला सहायता हेल्पलाइन भी हैं। इसका सबसे बड़ा नकारात्मक बिंदु है पुलिस के दरोगा और सिपाही को पूरा समय बिना हेलमेट बाइक पर घुमाते रहना और तेजाब फेंकने वाले का जिक्र आने पर उसके हेलमेट पहनने की बात स्थापित करना।

काग स्नान, तुलसी और व्यंग्य
सुमित सक्सेना और अरुणाभ कुमार को ध्यान ये भी रखना चाहिए था कि अगर उनका मुख्य किरदार यूपी का ब्राह्मण है तो वह कितना भी क्रांतिकारी क्यों न हो तुलसी के थलहा पर तो नहीं ही बैठेगा और वह भी बिना नहाए। ये ठीक है कि पिता भी उसके कम क्रांतिकारी नहीं रहे और मरने से पहले ‘जांघों के बीच’ नामक कविता अपने बेटे को इसलिए अपनी ईमेल के जरिये शेड्यूल सेंड में डाल जाते हैं कि वह इसे अपनी मां को उनके जन्मदिन पर पढ़कर सुनाए। सीने के आर पार हो गए सरिये को लिए बाइक चलाना और फिर ही खुद ही उस सरिया को निकालकर ‘अमिताभ बच्चन’ बन जाना कहानी को कमजोर करता है। विजय वर्मा की जोड़ी सीरीज में सुजाना मुखर्जी के साथ बनी है और श्वेता त्रिपाठी शर्मा यहां सिर्फ कहानी का संदर्भ बिंदु भर ही हैं। सीरीज में सबसे अच्छा अभिनय सीमा बिस्वास का है और उन्हें अरसे बाद देखना सुहाता भी है। यशपाल शर्मा को यादव सिपाही का रोल मिला है और ऐसा रोल कर देना उनके लिए बाएं हाथ का खेल है। बात की जाये लैंग्वेज की तो बड़ी निराशा हाथ लगी एक कवी का लाल व्यंग और व्यंग्य में अंतर् नहीं क्र पा रहा

अहम सामाजिक टिप्पणी से चूकी सीरीज
वेब सीरीज ‘कालकूट’ की कहानी का सामाजिक ताना बाना कुछ कुछ हालिया रिलीज फिल्म ‘बवाल’ जैसा ही है। नायक स्वच्छंद है। पिता सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित है। मां कोमलहृदया है। और, घर में आने वाली बहू एक जैसी समस्या से पीड़ित है। दोनों कहानियां उत्तर प्रदेश की पृष्ठभूमि की है और दोनों विवाह को लेकर युवाओं पर बनाए जाने वाले अतिरिक्त दबाव के चलते उनकी निरपेक्ष भाव से निकली हां के बाद बदलने वाली जिंदगी के दर्द को समझने की बेहतरीन कोशिशें हो सकती थीं। लेकिन, दोनों ने कहानी के इस तार को बिना झंकृत किए ही छोड़ दिया। एक युवा है जिसकी होने वाली या हो चुकी पत्नी एक ऐसी बीमारी से पीड़ित है, जो किसी भी विवाहित जोड़े का विवाह विच्छेद कराने का बड़ा कारण हो सकती है। इसके बावजूद युवक के न सिर्फ रिश्ता स्वीकारने बल्कि उसे पूरी शिद्दत से निभाने की दोनों अद्भुत कहानियां बन सकती थीं। लेकिन दोनों कहानियों के लेखकों ने इस अहम बिंदु को हाशिये पर खिसका दिया है।

बात करें पॉजिटिव साइड की तो विजय वर्मा ने अपने कद को बढ़ाया ही है। और पूरी फिल्म सिर्फ इनके अभिनय के कारन ही झेली जाती है। फिल्म का end बहुत ही अब्रप्ट है। थोड़ा सा विलन का भी चरक्टेरिसतिओं होना चाहिए था। खैर हम देते हैं इस सीरीज को पांच में से सिर्फ ढाई स्टार्स।

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