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बीमार जिन्ना कश्मीर में छुट्टियां बिताना चाहते थे:हरि सिंह ने मना किया तो रची कब्जे की साजिश

24 अगस्त 1947 की बात है। मोहम्मद अली जिन्ना टीबी और लंग्स कैंसर से जूझ रहे थे। वो कश्मीर में कुछ दिन आराम करना चाहते थे। उन्होंने अपने मिलिट्री सेक्रेटरी कर्नल विलियम बर्नी को रहने का इंतजाम करने के लिए कश्मीर भेजा। वहां से लौटकर कर्नल बर्नी ने बताया कि राजा हरि सिंह कश्मीर में जिन्ना के पैर तक नहीं पड़ने देना चाहते।

हरि सिंह की ये बात जिन्ना के लिए बहुत बड़ा झटका थी। क्योंकि जिन्ना का मानना था कि कश्मीर तो पाकिस्तान की गोद में पके हुए फल की तरह अपने आप गिर जाएगा।

जब जिन्ना को राजा हरि सिंह ने नहीं दी कश्मीर आने की इजाजत

कश्मीर पर कब्जे के लिए अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान समर्थित कबायलियों ने हमला कर दिया था। इस हमले के बीज दो महीने पहले हुई एक छोटी से घटना में छिपे थे। लैरी कॉलिंस और डोमिनिक लैपियर ने अपनी किताब ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ में उस घटना का विस्तार से जिक्र किया है।

24 अगस्त 1947 को टीबी और फेफड़े के कैंसर और काम से थक चुके जिन्ना ने कश्मीर में छुट्टियां मनाने और आराम करने का मन बनाया। उन्होंने इसके लिए अपने सेक्रेटरी कर्नल विलियम बर्नी को कश्मीर जाकर सितंबर के मध्य में दो हफ्ते की छुट्टियों का इंतजाम करने को कहा। जिन्ना के लिए कश्मीर को चुनना स्वाभाविक था क्योंकि उनके बाकी देशवासियों की तरह ही उन्हें भी लगता था कि तीन-चौथाई से ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला कश्मीर पाकिस्तान के साथ ही विलय करेगा। लेकिन पांच दिन बाद कश्मीर से लौटे अंग्रेज अफसर बर्नी के जवाब ने जिन्ना को स्तब्ध कर दिया। बर्नी ने बताया कि राजा हरि सिंह नहीं चाहते कि जिन्ना कश्मीर की मिट्टी में अपने कदम तक रखें, पर्यटक के तौर पर भी नहीं। इस जवाब ने जिन्ना को पहली बार ये स्पष्ट संदेश दे दिया कि कश्मीर की स्थिति उनकी सोच के एकदम उलट है।

48 घंटे बाद जिन्ना की सरकार ने एक सीक्रेट एजेंट को कश्मीर की असली स्थिति और महाराज के असली इरादे जानने के लिए भेजा। एजेंट जो रिपोर्ट लाया वो जिन्ना के लिए हैरान करने वाली थी: हरि सिंह का पाकिस्तान के साथ जाने का कोई इरादा नहीं था। इस बात को पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना बर्दाश्त नहीं कर सके।

सितंबर मध्य में जिन्ना के करीबी लियाकत अली खान ने महाराज हरि सिंह को काबू में करने का उपाय खोजने के लिए​ ​​​​​​लाहौर में अपने चुनिंदा लोगों के साथ एक गुप्त बैठक की। बैठक में मौजूद षड्यंत्रकारियों ने सीधे आक्रमण का प्रस्ताव तुरंत खारिज कर दिया। पाकिस्तानी सेना ऐसे किसी भी कदम के खिलाफ थी, जिससे भारत के साथ लड़ाई छिड़ सकती थी। बैठक में दो और संभावनाएं पेश की गईं। पहला प्रस्ताव रखा -सैंडहर्स्ट से ग्रैजुएट कर्नल अकबर खान ने, जिसमें साजिश की बात कही गई थी। अकबर ने कहा-पाकिस्तान कश्मीर की असंतुष्ट मुस्लिम आबादी के विद्रोह को भड़काने के लिए हथियार और पैसा दे। अंत में, अकबर खान ने वादा किया, ‘चालीस या पचास हजार कश्मीरी श्रीनगर में उतरेंगे ताकि महाराजा को पाकिस्तान में शामिल होने के लिए मजबूर किया जा सके।’

पाकिस्तान के जन्मदाता मोहम्मद अली जिन्ना अपने आखिरी दिनों तक कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने की कोशिश करते रहे। लंग्स कैंसर की वजह से 11 सितंबर 1948 को उनकी मौत हो गई थी।
पाकिस्तान ने आखिरकार कबायलियों को भेजकर कश्मीर पर हमला करवा दिया। लेकिन पाकिस्तानी कबायलियों के कश्मीर से हमले के पहले भी बहुत कुछ हुआ था, पहले वो कहानी जान लेते हैं….

राजा गुलाब सिंह ने कश्मीर को अंग्रेजों से 75 लाख रुपए में खरीदा था

पहले अंग्रेज-सिख युद्ध के बाद राजा गुलाब सिंह और अंग्रेजों के बीच 1846 में अमृतसर संधि हुई थी। राजा गुलाब सिंह ने अंग्रेजों से 75 लाख नानकशाही रुपए में कश्मीर घाटी और लद्दाख विजारत (बाल्टिस्तान, कारगिल और लेह समेत) को खरीदते हुए उसे जम्मू में मिला लिया था, जिस पर पहले ही उनका शासन था।

इसके साथ ही गुलाब सिंह जम्मू-कश्मीर रियासत के पहले राजा बने और उन्होंने डोगरा राजवंश की नींव डाली। 1846 से 1947 तक डोगरा वंश ने ही जम्मू-कश्मीर रियासत पर शासन किया। रियासत ऐसे स्टेट थे, जहां अंग्रेजों के अधीन राजा का शासन होता था। ब्रिटिश शासन के तहत सबसे बड़ी रियासत जम्मू-कश्मीर की थी।

हिंदू डोगरा राजपूत परिवार में 1792 को जन्मे गुलाब सिंह ने 1822 से 1846 तक राज किया था। वह जम्मू-कश्मीर रियासत के पहले राजा थे।
भारत-पाकिस्तान की आजादी और कश्मीर विवाद का जन्म

भारत की आजादी करीब आने के साथ ही मुस्लिम लीग की ‘टू नेशन थ्योरी’ यानी भारत का दो देशों के रूप में बंटवारा लगभग तय हो गया था, आखिरकार हुआ भी यही। इंडिया इंडिपेंडेंस एक्ट 1947 के अनुसार भारत और पाकिस्तान दो अलग देश के रूप में आजाद हुए।

उस समय देश में 570 से ज्यादा रियासतें थी। इस एक्ट के अनुसार, इन रियासतों के शासकों को ये फैसला करना था कि वे भारत के साथ जाना चाहते हैं या पाकिस्तान के साथ या फिर आजाद रहना चाहते हैं।

15 अगस्त 1947 यानी देश की आजादी के समय तक 560 रियासतों ने भारत में विलय का फैसला किया। लेकिन जूनागढ़, जम्मू-कश्मीर और हैदराबाद ने इन दोनों में से किसी के साथ भी जाने का फैसला नहीं किया।

कश्मीर का भारत में विलय… और एक अहम कैरेक्टर महाराजा हरि सिंह

तब जम्मू- कश्मीर के राजा डोगरा वंश के आखिरी शासक महाराजा हरि सिंह थे। हरि सिंह हिंदू थे, लेकिन उस समय कश्मीर की ज्यादातर आबादी मुस्लिम थी। हरि सिंह भारत और पाकिस्तान के साथ विलय के बजाय आजाद रहने के पक्ष में थे।

विलियम नॉर्मन ब्राउन ने अपनी किताब ‘यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ इंडिया एंड पाकिस्तान’ में 15 अगस्त के बाद महाराजा हरि सिंह की अनिश्चिचतता की स्थिति को लेकर लिखा है, ‘उन्हें भारत का हिस्सा बनना पसंद नहीं था, जहां लोकतंत्र लाया जा रहा था। या पाकिस्तान, जो मुस्लिम देश था… उन्होंने आजाद होने के बारे में सोचा था।’

12 अगस्त 1947 को हरि सिंह ने भारत और पाकिस्तान दोनों को स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का प्रस्ताव भेजा। स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट विलय पत्र नहीं था, बल्कि इसका मतलब था कि ब्रिटिश साम्राज्य के साथ जारी स्थिति को बरकरार रखना, यानी कश्मीर की स्थिति जैसी है वैसे ही रहने देना। पाकिस्तान ने इस प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए 15 अगस्त 1947 को जम्मू-कश्मीर को जवाब भेजा। लेकिन भारत ने इसे नामंजूर करते हुए राजा के प्रतिनिधि को चर्चा के लिए दिल्ली बुलाया, लेकिन कोई प्रतिनिधि नहीं गया।

इस बीच पाकिस्तान के गवर्नर जनरल मोहम्मद अली जिन्ना ने अपने निजी सचिव खुर्शीद हसन को महाराजा हरि सिंह को कश्मीर के पाकिस्तान में विलय के लिए मनाने के लिए श्रीनगर भेजा। लेकिन स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट साइन करने के महज 12 दिन बाद यानी 24 अगस्त 1947 को पाकिस्तान ने महाराजा हरि सिंह को एक चेतावनी भरा खत भेजते हुए लिखा, ‘कश्मीर के महाराजा के लिए समय आ गया है कि उन्हें अपनी पसंद तय करते हुए पाकिस्तान को चुनना चाहिए। अगर कश्मीर पाकिस्तान में शामिल होने में विफल रहता है, तो सबसे गंभीर संकट निश्चित रूप से सामने आएगा।’ इस चेतावनी ने महाराजा को चौकन्ना कर दिया और इसके बाद पाकिस्तान और जम्मू-कश्मीर के बीच आरोप और प्रत्यारोप का दौर चला।

राजा हरि सिंह भारत और पाकिस्तान दोनों के साथ ही न जाकर कश्मीर को स्वतंत्र बनाना चाहते थे।
वहीं दूसरी ओर जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी चाहते थे कि कश्मीर भारत में विलय कर ले। लेकिन इसमें एक दिक्कत थी हैदराबाद, जिसके निजाम भारत के बजाय पाकिस्तान से जुड़ना चाहते थे। ऐसे में भारत सरकार का सारा ध्यान उस समय हैदराबाद के निजाम पर था।

सितंबर आते-आते कश्मीर में पाकिस्तान की ओर से घुसपैठ की शिकायतें आने लगीं। जम्मू-कश्मीर स्टेट फोर्सेज के कमांडर जनरल हेनरी लॉरेंस स्कॉट ने महाराजा हरि सिंह से कश्मीर में पाकिस्तान की ओर से की जाने वाली कई गुप्त घुसपैठों की शिकायत की। राजा ने ये मुद्दा पाकिस्तान के साथ उठाया। लेकिन पाकिस्तान ने उल्टा यही आरोप जम्मू-कश्मीर प्रशासन पर लगाते हुए जम्मू के हिंदुओं पर सियालकोट में घुसपैठ का आरोप लगा दिया।

इस बीच 29 सितंबर 1947 को हरि सिंह दशकों से उनके विरोधी रहे और जम्मू-कश्मीर की प्रमुख राजनीतिक शख्सियत शेख अब्दुल्ला को जेल से रिहा कर दिया। अब्दुल्ला मुस्लिम लीग और जिन्ना के रवैये से नाराज थे। रिहाई के बाद अब्दुल्ला ने जिन्ना के कश्मीर के पाकिस्तान में शामिल होने के समर्थन की अपील ठुकरा दी थी।

शुरू में अब्दुल्ला कश्मीर के भारत के साथ विलय के पक्ष में थे, लेकिन जेल से रिहा होते ही उन्होंने कश्मीर की आजादी की मांग रख दी। शेख अब्दुल्ला की जवाहर लाल नेहरू से अच्छी दोस्ती थी। कश्मीर के भारत में विलय के बाद शेख अब्दुल्ला ही जम्मू-कश्मीर के पहले प्रधानमंत्री बने। हरि सिंह के साथ बिगड़ते संबंधों और जिन्ना और मुस्लिम लीग के विरोधी शेख अब्दुल्ला की रिहाई से पाकिस्तान को लगा कि कश्मीर का भारत में विलय हो जाएगा। फिर उसने जबरन कश्मीर पर कब्जा करने की योजना बनाई।

पाकिस्तानी कबायलियों का कश्मीर पर हमला…

पाकिस्तान ने 22 अक्टूबर 1947 को नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रांत से कबायलियों को इकट्ठा करके ऑपरेशन गुलमर्ग शुरू किया। आधुनिक हथियारों से लैस और पाकिस्तानी सेना के डायरेक्ट कंट्रोल वाले करीब 2000 कबायली बसों से और पैदल कश्मीर के मुजफ्फराबाद पहुंच गए।

22 अक्टूबर को कबायलियों ने मुजफ्फराबाद पर कब्जा जमा लिया और 26 अक्टूबर तक उरी और बारामूला उनके कब्जे में आ गया। पाकिस्तानी कबायलियों ने बारामूला में जमकर हिंसा की। कुछ इतिहासकारों के मुताबिक, बारामूला में उस दौरान 11 हजार लोगों की हत्याएं हुईं।

पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के लेखक जाहिद चौधरी ने अपनी किताब ‘पाकिस्तान की सियासी तारीख’ में लिखा है, ‘तीन दिनों तक हमलावरों ने गैर-मुस्लिमों का नरसंहार किया और उनके घरों को लूटा और जला दिया। हजारों की संख्या में उनकी औरतों का रेप हुआ और उनका अपहरण किया गया।’

1947 में कश्मीर पर हमला करने वाले पाकिस्तान समर्थित कबायलियों की तस्वीर।
शुरुआती इलाकों पर कब्जे के बाद वो श्रीनगर की ओर बढ़े, जहां महाराजा हरि सिंह मौजूद थे। महाराजा ने शुरू में तो पाकिस्तानी कबालियों का मुकाबला किया, लेकिन जल्द ही उन्हें अहसास हो गया कि उनकी सीमित सेना के बल पर कबायलियों को रोक पाना मुश्किल है।

24 अक्टूबर को महाराजा हरि सिंह ने भारत से सैन्य सहायता की मांगी। 25 अक्टूबर को इंडियन डिफेंस कमेटी की बैठक में इस प्रस्ताव पर विचार किया गया कि कश्मीर के भारत में विलय के बिना भारत को सेना नहीं भेजनी चाहिए। इस बैठक में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, गृह मंत्री और रक्षा मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन और तीनों सेनाओं के ब्रिटिश कमांडर इन चीफ मौजूद थे।

उसी दिन डिफेंस कमेटी ने मिनिस्ट्री ऑफ स्टेट्स सेक्रेटरी वीपी मेनन को कश्मीर की स्थिति का जायजा लेने के लिए श्रीनगर भेजा। मेनन उसी दिन लौटे और कहा कि कश्मीर को हमलावरों से बचाने के लिए तुरंत सेना भेजनी चाहिए।

…हरि सिंह ने किया कश्मीर का भारत में विलय

इस बीच 26 अक्टूबर को महाराजा हरि सिंह सुरक्षित ठिकाने की तलाश में श्रीनगर से जम्मू आ गए। कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि हरि सिंह अपने साथ 48 मिलिट्री ट्रकों में हीरे-जवाहरात से लेकर पेंटिंग्स और कालीन-गलीचे तक अपने सभी कीमती सामान लेकर गए थे।

जम्मू पहुंचने के बाद 26 अक्टूबर 1947 को हरि सिंह ने कश्मीर के भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। इस विलय पत्र के खंड 4 में लिखा है- महाराजा हरि सिंह ने जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय की घोषणा की है।

28 अक्टूबर 1947 को एक अखबार में प्रकाशित कश्मीर के भारत में विलय की खबर।
कश्मीर के भारत में विलय के अगले ही दिन यानी 27 अक्टूबर को हेलिकॉप्टर्स से भारत ने अपनी सेना को पाकिस्तान समर्थित कबायलियों से मुकाबले के लिए श्रीनगर हवाई अड्डे पर उतार दिया।

कुछ इतिहासकारों के बीच इस बात को लेकर भ्रम है कि आखिर महाराजा हरि सिंह ने भारत के साथ विलय पत्र पर 26 अक्टूबर को साइन किए थे या 27 अक्टूबर को। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि हरि सिंह ने श्रीनगर छोड़ने से पहले ही यानी 25 अक्टूबर को ही विलय पत्र पर साइन कर दिए थे। वहीं कुछ का मानना है कि संभव है कि उन्होंने खत पर 27 अक्टूबर को साइन किए हों लेकिन तारीख एक दिन पहले यानी 26 अक्टूबर को डाली हो।

कश्मीर में सैन्य ऑपरेशन शुरू करने के अगले कुछ ही दिनों में भारतीय फौजों ने पाकिस्तानियों को श्रीनगर में घुसने से रोकते हुए कश्मीर घाटी के बाहर धकेल दिया। पाकिस्तान ने कश्मीर के भारत में विलय को नहीं मानते हुए 1948 में खुले तौर पर कश्मीर में जंग छेड़ते हुए अपनी सेनाएं तैनात कर दीं। इस लड़ाई के कुछ महीनों बाद लॉर्ड माउंटबेटन की सलाह पर जवाहर लाल नेहरू ने कश्मीर में पाकिस्तानी सेना की कार्रवाई का मुद्दा संयुक्त राष्ट्र सरक्षा परिषद में उठाया।

पाकिस्तानी कबायलियों के हमले के बाद 26 अक्टूबर 1947 को श्रीनगर छोड़कर जम्मू पहुंचने पर राजा हरि सिंह ने कहा था, ‘हम कश्मीर हार गए।’ हरि सिंह इसके बाद सच में कभी वापस कश्मीर नहीं लौट पाए।
पाकिस्तानी कबायलियों के हमले के बाद 26 अक्टूबर 1947 को श्रीनगर छोड़कर जम्मू पहुंचने पर राजा हरि सिंह ने कहा था, ‘हम कश्मीर हार गए।’ हरि सिंह इसके बाद सच में कभी वापस कश्मीर नहीं लौट पाए।
आखिरकार संयुक्त राष्ट्र संघ की मध्यस्थता में 1 जनवरी 1949 को दोनों देशों के बीच संघर्ष विराम हुआ और दोनों देशों के बीच कश्मीर में सीमा रेखा निर्धारित हुई, जिसे लाइन ऑफ कंट्रोल या LoC कहा गया। हालांकि, संघर्ष विराम के बावजूद कश्मीर में दोनों देशों की सेनाएं अपनी मौजूदा स्थिति से पीछे नहीं हटीं।

यानी जम्मू-कश्मीर और लद्दाख पर भारत का कब्जा रहा, जबकि गिलगित-बाल्टिस्तान पर पाकिस्तान ने कब्जा बरकरार रखा, जिसे वो आजाद कश्मीर और भारत उसे PoK कहता है। कश्मीर के एक और हिस्से को बाद में पाकिस्तान ने चीन को सौंप दिया था, जिसे चीन अक्साई चिन कहता है।

20 जून 1949 को राजा हरि सिंह को सत्ता से औपचारिक रूप से हटा दिया गया, जिसके बाद वह बंबई (अब मुंबई) चले गए थे। बंबई जाने के बाद राजा हरि सिंह का जीवन लगभग गुमनामी में ही बीता। 26 अप्रैल 1961 को बंबई में उनका निधन हो गया।

महाराजा हरि सिंह के कश्मीर के विलय पर दुविधा को लेकर उनके बेटे और प्रसिद्ध राजनेता कर्ण सिंह ने अपनी आत्मकथा हेयर एपेरेंट में लिखा है, ‘उस समय भारत में चार प्रमुख शक्तियां थीं और मेरे पिता (हरि सिंह) के संबंध उन सबसे दुश्मनी भरे थे। एक तरफ अंग्रेज थे, लेकिन मेरे पिता देशभक्त थे इसलिए अंग्रेजों से गुप्त सौदेबाजी नहीं कर सकते थे। दूसरी ओर, कांग्रेस थी जिसके मेरे पिता से दुश्मनी की प्रमुख वजह नेहरू और शेख अब्दुल्ला की दोस्ती थी। फिर जिन्ना की अगुआई वाली इंडियन मुस्लिम लीग थी…लेकिन मेरे पिता इतने हिंदू थे कि लीग के एग्रेसिव मुस्लिम सांप्रदायिक रुख को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। और अंत में शेख अब्दुल्ला की अगुआई वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस थी, जिससे मेरे पिता के रिश्ते दशकों से दुश्मनी भरे थे, क्योंकि वह उन्हें अपनी सत्ता और डोगरा शासन के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते थे। अंत में, जब फैसले की घड़ी आई तो ये सभी प्रभावशाली ताकतें उनके विरोध में खड़ी थीं।’

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