Buddha Purnima 2022: वैशाख महीने की पूर्णिमा को बुद्ध पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। इस साल 16 मई को बुद्ध पूर्णिमा है। कहते हैं कि इस दिन बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था और इसी दिन उन्हें बोधगया में ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। भगवान बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ गौतम था। वे राजा शुद्धोधन के बेटे थे। एक बार उन्होंने कुछ ऐसा मंजर देख लिया, जिसके बाद वे अपनी पत्नी, बच्चा, राज-पाट, धन-दौलत सब छोड़कर संन्यासी बन गए। इसके बाद सिद्धार्थ ने कठोर तपस्या की और ज्ञान की प्राप्ति कर महात्मा बुद्ध बन गए। फिर पूरे संसार को जीवन की जीने की सीख दी। यहां पढ़िए महात्मा बुद्ध के जीवन की कथा।
सिद्धार्थ का जन्म लुंबिनी (वर्तमान नेपाल) में हुआ था। उनके पिता का नाम राजा शुद्धोदन और माता का नाम माया था। सिद्धार्थ के जन्म के बाद ही उनकी मां का देहांत हो गया। कहते हैं कि एक तपस्वी ने शुद्धोदन को बताया था कि सिद्धार्थ बड़ा होकर महान आत्मा बनेगा और पूरे जग का कल्याण करेगा। शुद्धोधन इससे चिंतित हो गए। उन्हें लगा कि सिद्धार्थ अगर संन्यास के मार्ग पर चला गया, तो उनका राज-पाट कौन संभालेगा।
इसलिए शुद्धोधन ने सिद्धार्थ का अच्छे से पालन-पोषण किया। उसे किसी तरह के दुख का आभास नहीं होने दिया। उसे हर तरह की सुख-सुविधा दी गई। सिद्धार्थ को प्रजा से भी छिपाकर रखा। बड़े होने तक सिद्धार्थ को सांसारिक दुख-दर्द का आभास ही नहीं था।
सोलह साल की उम्र में सिद्धार्थ का विवाह यशोधरा से हो गया। राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ को कई आलीशान महल उपहार में दिए। उनके महलों में हजारों नौकर और दासियां काम करती थीं। उनमें भोग-विलास की सारी सुविधाएं मौजूद थीं। बाद में सिद्धार्थ की पत्नी यशोधरा ने एक पुत्र को जन्म दिया।
इसके कुछ दिन बाद सिद्धार्थ अपने रथ में बैठकर सैर पर निकले। इससे पहले वे कभी भी बाहर अकेले सैर पर नहीं गए थे। सिद्धार्थ का रथ बाजार ने निकला तो सिद्धार्थ को एक बुजुर्ग व्यक्ति दिखाई दिया। उसकी कमर पूरी तरह झुक गई थी। चेहरे पर झुर्रिया पड़ रही थीं। और बड़ी मु्श्किल से वह खड़ा हो पा रहा था। यह देखकर सिद्धार्थ का मन विचलित हो गया। उन्होंने अपने सारथी से पूछा कि वह आदमी ऐसा क्यों है। तब सारथी ने बताया कि वह बूढ़ा हो चुका है, इसलिए उसका शरीर अब साथ नहीं दे रहा है। बुढ़ापा जीवन का कटु सत्य है। हम भी एक दिन बूढ़े हो जाएंगे।
रथ थोड़ा आगे बढ़ा तो सिद्धार्थ को एक बीमार व्यक्ति दिखाई दिया। उसे सांस लेने में भी दिक्कत हो रही थी। वह जिन्दगी और मौत के बीच संघर्ष कर रहा था। सारथी ने सिद्धार्थ को बताया कि हमारा शरीर नश्वर है। एक समय के बाद यह साथ नहीं देता और इंसान बीमार पड़ने लगता है और फिर मृत्यु को प्यारा हो जाता है।
आगे बढ़ने पर सिद्धार्थ को एक अर्थी दिखाई दी। चार लोग एक शव को कंधा दे रहे थे। उनके पीछे कुछ लोग चल रहे थे, जो विलाप कर रहे थे। सारथी ने सिद्धार्थ से कहा कि मृत्यु हमारे जीवन का एक और कटु सत्य है। इंसान की मौत निश्चित है।
ये सभी दृश्य देखकर सिद्धार्थ के मन में उथल-पुथल मच गई। इससे पहले उन्हें कभी भी जीवन के इन पहलुओं का एहसास नहीं हुआ था। उनके मन में कई तरह के विचार उमड़ने लगे। सिद्धार्थ को लगा कि ऐसा जीवन ही क्या जिसमें एक समय बाद बुढ़े और बीमार होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाएं।
सिद्धार्थ का रथ थोड़ा आगे बढ़ा, तो वहां से एक संन्यासी गुजर रहे थे। सिद्धार्थ की नजर उस संत पर पड़ी। संत के मुख पर एक अलग सा तेज था। चेहरे पर मुस्कान थी। ऐसा लग रहा था मानो उन्हें जीवन की किसी भी तरह की पीड़ा का कोई भय नहीं हो। सिद्धार्थ को अपना जवाब मिल गया। उन्होंने संन्यासी बनने की ठान ली।
सिद्धार्थ अपने महल में गए और रात्रि के पहर में अपने पत्नी-बच्चे के साथ-साथ सभी तरह की मोहमाया, राज-पाट, भोग-विलास को छोड़कर चले गए। उस समय सिद्धार्थ की उम्र महज 27 साल थी। वे कई जगहों पर भटकते रहे। फिर कठोर तपस्या की। 35 साल की उम्र में उन्हें बोधगया (वर्तमान बिहार) में बोधिवृक्ष के नीचे उन्हें परम ज्ञान की प्राप्ति हुई। इस तरह सिद्धार्थ गौतम से वह महात्मा बुद्ध हो गए। वाराणसी के पास सारनाथ नाम की जगह पर उन्होंने अपना पहला उपदेश दिया।