कोरोना वायरस के रूप में देश दुनिया में ऐसी महामारी फैली है कि लोग अंतिम समय में अपने परिजनों को अलविदा तक कहने को तरस गए हैं, अंत्येष्टि तक में शामिल नहीं हो पा रहे हैं और कई जगह अंतिम संस्कार के लिए जरूरी सामान की भी किल्लत शुरू हो गई है।
वहीं, गांव-देहात में प्रौद्योगिकी से वंचित लोग खुद को अकेला महसूस कर रहे हैं। दिल्ली की पत्रकार रीतिका जैन के 85 वर्षीय दादा जी का 24 मार्च से शुरू हुए 21 दिनों के लॉकडाउन के दौरान गुजरात के पलीताना में निधन हो गया। लेकिन वह उनके अंतिम दर्शन नहीं कर पाई। रीतिका के पिता लॉकडाउन लागू होने से पहले मुंबई से भावनगर के लिये आनन फानन में अंतिम उड़ान से पहुंचे। लेकिन दूर रह रहे परिवार का कोई सदस्य नहीं पहुंच सका और वे लोग जूम मोबाइल ऐप के जरिये अंत्येष्टि कार्यक्रम में शामिल हुए।
इस परिस्थिति में अपनों को खोने के बाद अपनी भावनाओं पर काबू रख पाने में लोगों को बहुत ही मुश्किल हो रही है। चेन्नई के उपनगर में रहने वाले केसवन (77) को अपनी 94 वर्षीय मां के निधन की सूचना शहर के एक दूर-दराज के कोने में स्थित अपने सहोदर भाई के घर पर मिली। उन्होंने सबसे पहली चिंता यही हुई कि जाएंगे कैसे।
मौत एक अटल सत्य है, कोई अपना या पराया पहुंचे या न पहुंचे जाने वाले को कोई नहीं रोक सकता, ऐसा ही कुछ कहते हुए ढांढस बांधते नजर आये कानपूर के पंडित जी जहाँ रोज लगभग 25-30 अंत्येष्टि होती है। बात करने पर पता चला देश का हर नागरिक आज देश को बचाने के लिए हर संभव प्रयास कर रहा है, अंतिम समय में स्वेच्छा से भी लोग कम भीड़ जुटा रहे हैं।