तालिबान के शिकंजे में अफगान

लगभग पूरा अफगानिस्तान अब तालिबान के कब्जे में आ गया है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक काबुल को तालिबान ने चारों तरफ से घेर लिया है, राष्ट्रपति अशरफ गनी मोर्चा छोड़ चुके हैं और अभी तक ऐसा लगता है कि तालिबान बिना खून-खराबे के काबुल में दाखिल होना चाहते हैं। साफ है, अफगानिस्तान के इतिहास का जो अध्याय नवंबर, 2001 में अमेरिका के अफगानिस्तान में प्रवेश के साथ शुरू हुआ था, उसका अब अंत हो रहा है। करीब तीन दशक पूर्व जहां सोवियत संघ को यहां सामरिक शिकस्त का सामना करना पड़ा था, आज वही गत अमेरिका की हुई है।

दरअसल, पिछले साल फरवरी में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की सरकार और तालिबान के बीच समझौता हुआ था, जिसकी बुनियाद यही थी कि तालिबान अल कायदा, आईएस जैसी अंतरराष्ट्रीय आतंकी तंजीमों को पनाह नहीं देगा और बदले में, अमेरिका वहां से अपनी सेनाओं को पहली मई, 2021 तक स्वेदश बुला लेगा। नए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने सत्ता संभालने के बाद यह तय किया कि वह ट्रंप और तालिबान के समझौते का आदर करेंगे। हालांकि, उन्होंने अमेरिकी सेनाओं को वापस बुलाने की अवधि 11 सितंबर तक बढ़ा दी थी।
इन सबके बीच ऐसा प्रतीत हो रहा था कि तालिबान और बाइडन सरकार के बीच एक समझ बन गई है कि अफगान हुकूमत और तालिबान मिलकर एक अंतरिम सरकार बनाएंगे, जिसके बाद युद्ध विराम होगा और फिर, अफगानिस्तान की नई सांविधानिक प्रणाली पर विचार होगा। मगर एक बार जब तालिबान और उसके आका पाकिस्तान ने यह समझ लिया कि अमेरिका वाकई अपनी सेनाओं को वापस ले जा रहा है, तो उन्होंने अपनी जमीनी ताकत बढ़ाने का निश्चय किया। इस निर्णय के तहत तालिबान ने पहले अफगानिस्तान के उत्तरी, उत्तर-पूर्व और पश्चिम प्रांतों में अपना परचम लहराया। उल्लेखनीय है कि इन क्षेत्रों में तालिबान का पहले कोई प्रभाव नहीं था। और यहां, उज्बेक व ताजिक जातियां ज्यादा हैं, जबकि तालिबान की ताकत पश्तून जाति है। साफ हो गया कि तालिबान का प्रभाव अन्य जातियों में बढ़ा है।

तालिबान की योजना का दूसरा पड़ाव था, अफगानिस्तान और उसके पड़ोसी देशों की ‘बार्डर क्रॉसिंग प्वाइंट’ (वह सीमा, जहां से एक देश से दूसरे देश में प्रवेश किया जाता है) पर कब्जा शुरू करना। इससे अंतरराष्ट्रीय समुदाय और अफगानिस्तान को तालिबान की ताकत का आभास होने लगा। हालांकि, इस वक्त तक यही भावना प्रबल थी कि अमेरिकी सेनाओं से प्रशिक्षित अफगानिस्तान की फौज आखिरकार तालिबान से लोहा ले ही लेगी। करीब एक सप्ताह पूर्व तालिबान का नया हमला शुरू हुआ और उसने तेजी से अफगानिस्तान की प्रांतीय राजधानियों पर ही नहीं, कंधार, हेरात, मजार-ए-शरीफ, जलालाबाद जैसे मुख्य शहरों को भी अपने नियंत्रण में ले लिया। आश्चर्यजनक यह है कि यहां पर जंग तो छोड़ें, न के बराबर विरोध हुआ। जब इन शहरों के रक्षकों ने देखा कि तालिबान का पलड़ा भारी है, तो उन्होंने आसानी से अपना मोर्चा छोड़ दिया। जाहिर है, गनी सरकार के प्रति उनकी कोई वफादारी नहीं थी, और वहां का सरकारी तंत्र खोखला हो चुका है।

असल में, न ही पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई, न राष्ट्रपति अशरफ गनी अफगानिस्तान के राजनीतिक वर्ग में एकता लाने में सफल हुए और न ही यहां की हर जाति को एक साझा भविष्य दिखा सके। और पश्चिम के देश, जो उनका समर्थन कर रहे थे, वे भी इसे समझ न पाए। नतीजतन, तालिबानी विचारधारा धीरे-धीरे फैलने लगी और तालिबान का वर्चस्व बढ़ता गया।

पाकिस्तान, चीन व रूस तो यही चाहते हैं कि तालिबान को जो अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिल रही है, वह कायम रहे। और अंतरराष्ट्रीय मान्यता के लिए ही तालिबानी लड़ाकों ने इस वक्त तक काबुल में प्रवेश नहीं किया है। तालिबानी नेतृत्व की कोशिश यही है, और अमेरिका भी संभवत: यही चाहता है कि अब और खून-खराबा न हो, और अफगानिस्तान की बागडोर तालिबान के हाथ में आ जाए। मुमकिन है कि काबुल में प्रवेश करने के बाद तालिबान अपनी आगामी हुकूमत में कुछ अफगान नेताओं को भी शामिल करे, लेकिन नई सरकार की जो भी रूपरेखा होगी, उस पर पूरी तरह से तालिबान हावी होंगे।

अफगानिस्तान अब पूरी तरह से तालिबान के अधीन होगा और उनकी इस्लामी विचारधारा पर ही आगे बढ़ेगा। एक बात और, अफगानिस्तान के सामरिक और रक्षा क्षेत्र पूरी तरह से तालिबान के अधीन होंगे। पाकिस्तान भी यही चाहता है। खेद है कि भारत की विदेश और सामरिक नीतियों के प्रबंधक, जो वैसे बहुत कार्य-कुशल हैं, अफगानिस्तान की बदलती परिस्थिति को भांप न सकें। जबकि, अमेरिका, यूरोपीय देश, चीन, रूस, ईरान जैसे तमाम राष्ट्र तालिबान से खुलकर बातचीत करने लगे थे, लेकिन भारत ने ऐसा नहीं किया। हां, ऐसी कुछ खबरें हैं कि भारत के कुछ प्रतिनिधियों ने तालिबानी नुमाइंदों से बातचीत की है, लेकिन वक्त की मांग थी कि भारत खुलकर और प्रत्यक्ष तौर पर तालिबान से वार्ता करता। इसका यह अर्थ कतई नहीं होता कि वह तालिबान की विचारधारा को मान्यता दे रहा है। इन बातचीत के जरिये तालिबान को भारत के पक्ष से अवगत कराया जा सकता था। बेशक तालिबान और पाकिस्तान के रिश्ते मजबूत हैं, लेकिन राजनयिकों के संपर्क से यह समझा जा सकता था कि तालिबानी नेता खुद के अफगान राष्ट्रवादी होने का जो दावा करते हैं, वह कितना सच है?

अब पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, मध्य एशियाई देशों सहित भारत के पूर्व-पश्चिम क्षेत्र में चीन का प्रभाव बढ़ सकता है। यह तस्वीर भारत के लिए सुखद नहीं होगी। कुछ दिनों पहले चीन के विदेश मंत्री ने एक उच्चस्तरीय तालिबानी प्रतिनिधिमंडल का अपने देश में स्वागत भी किया था। तालिबान ने चीन को आश्वस्त किया है कि वह उइगर उग्रवादियों को अफगानिस्तान में टिकने नहीं देगा। जबकि, चीन की नजर अफगानिस्तान के प्राकृतिक संसाधनों पर भी है, और वह ‘बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव’ को भी आगे बढ़ाना चाहता है।

साफ हो गया है, अब भारत के लिए अपने पश्चिमी पड़ोसी देशों में नई चुनौतियां शुरू होंगी। इनका सामना हमें बहुत ही राजनयिक होशियारी से करना होगा। इसके लिए जरूरी है कि हम अपनी नीतियों को लचीला बनाएं और जल्द से जल्द तालिबान के साथ परोक्ष बातचीत का सिलसिला शुरू करें।

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