पश्चिम बंगाल में कांग्रेस अस्तित्व के संकट के दौर से गुजर रही है। हाल के चुनावों में उसे बहुत बुरी हार मिली है। लोकसभा से लेकर विधानसभा तक में कांग्रेस की हालत पतली दिखी है। ऐसे में राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे की जोड़ी के सामने कांग्रेस को फिर से बिना सहारे के खड़ा करना बहुत बड़ी चुनौती होगी।
पश्चिम बंगाल में कांग्रेस बुरी तरीके से उलझी दिख रही है। पिछले कई चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन सही नहीं रहा है। इस बार कांग्रेस कई राज्यों में अकेले लड़ने का संकेत दे चुकी है, खासकर दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद। लेकिन बंगाल की कहानी अलग है, यहां कांग्रेस तिराहे पर खड़ी है। कांग्रेस का धड़ा टीएमसी के साथ जाने के पक्ष में है, एक धड़ा वाम के साथ और एक अकेले। यहां राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे के सामने अपने ही सबसे बड़ी चुनौती के रूप में दिख रहे हैं।
2011 में मिली थी सफलता
कांग्रेस को बंगाल में को आखिरी महत्वपूर्ण चुनावी सफलता 2011 में मिली थी, जब तृणमूल के साथ गठबंधन करके उसने वाम मोर्चे के 34 साल के शासन को समाप्त करने में भूमिका निभाई थी। लेकिन सत्ता में आने के बाद से टीएमसी ने कांग्रेस को उतना भाव नहीं दिया। जबतक कांग्रेस और राहुल गांधी को सीधे तौर पर जरूर घेरते रही है। कांग्रेस का वोट शेयर 2011 में 14 प्रतिशत था जो 2021 के विधानसभा चुनाव में घटकर तीन प्रतिशत रह गया और फिलहाल विधानसभा में कांग्रेस का कोई विधायक नहीं है।
कांग्रेस को ऐतिहासिक गठबंधन से नुकसान?
कांग्रेस के भीतर एक धड़े का मानना है कि ऐतिहासिक गठबंधनों ने पार्टी को केवल कमजोर ही किया है। इस धड़े ने 2009 के लोकसभा चुनाव और 2011 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल- कांग्रेस गठबंधन को दोषी ठहराया और तर्क दिया कि इसने इस सबसे पुरानी पार्टी को कमजोर कर दिया क्योंकि इसके कई नेता ममता बनर्जी के खेमे में चले गए। इस धड़े ने इसी तरह 2016 में बने कांग्रेस-वाम गठबंधन की भी यह कहते हुए आलोचना की कि कांग्रेस के जमीनी जनाधार को फिर से खड़ा करने के बजाय सीट-बंटवारे को प्राथमिकता दी गयी।
क्या कहते हैं पार्टी नेता
पीटीआई के अनुसार पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रदीप भट्टाचार्य ने मौजूदा मतभेदों पर टिप्पणी करते हुए कहा, “यह सच है कि हम बंगाल में राजनीतिक अस्तित्व के संकट का सामना कर रहे हैं। प्रदेश इकाई अब तीन मतों पर विभाजित है – क्या वामपंथियों के साथ बने रहना है, तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन करना है, या अकेले चुनाव लड़ना है। हालांकि, मेरा मानना है कि हमें संबंधित गठबंधन के लिए वामपंथियों के साथ बने रहने से लाभ होगा।”
वाम के सपोर्ट में अधीर रंजन चौधरी
कांग्रेस के एक प्रमुख नेता और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी वाम-कांग्रेस गठबंधन को बनाए रखने के प्रबल समर्थक रहे हैं। पीटीआई से बात करते हुए उन्होंने रेखांकित किया कि कांग्रेस-वाम गठबंधन ने 2024 के लोकसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन किया है, जिसमें कांग्रेस ने 12 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त बनाई, यहां तक कि उन क्षेत्रों में वोटों के मामले में तृणमूल और भाजपा दोनों से आगे रही। चौधरी ने कहा, “पिछले लोकसभा चुनाव में हम 12 विधानसभा सीटों पर आगे रहे। वाम दलों और कांग्रेस के संयुक्त प्रयास से हमें यह हासिल करने में मदद मिली है। हमें अपनी आगे की राह का मूल्यांकन करते समय इन सकारात्मक पहलुओं को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए।”
टीएमसी के पक्ष में भी कम नेता नहीं
वहीं कांग्रेस के दूसरे गुट ने तर्क दिया कि राज्य में अपनी मौजूदा कमजोर उपस्थिति को देखते हुए कांग्रेस 2026 का विधानसभा चुनाव अकेले नहीं लड़ सकती। वे सीट बंटवारे के लिए ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को एकमात्र व्यवहार्य विकल्प मानते हैं। क्योंकि राज्य में वाम कमजोर है और कांग्रेस भी जमीनी स्तर पर मजबूती से मौजूद नहीं है।
टीएमसी ने ही हुआ है सबसे ज्यादा नुकसान
राज्य में 2011-2021 के दौरान कांग्रेस की उपस्थिति में लगातार गिरावट आई है, जब लगभग 70 विधायक और एक सांसद तृणमूल में चले गए। 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का वोट प्रतिशत 2019 के 5.6 प्रतिशत से घटकर 4.6 प्रतिशत रह गया और पार्टी को सिर्फ़ एक सीट मिली।

