दो दिन बैंकों की राष्ट्रव्यापी हड़ताल, जानिए सरकारी बैंकों का निजीकरण क्यों कर रही है सरकार ?

देश के सबसे बड़े बैंक कर्मचारी संगठन यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियंस ने हड़ताल का आह्वान किया है। फोरम में भारत के बैंक कर्मचारियों और अफसरों के नौ संगठन शामिल हैं।

हड़ताल की सबसे बड़ी वजह सरकार का एलान है कि वो आईडीबीआई बैंक के अलावा दो और सरकारी बैंकों का निजीकरण करने जा रही है. बैंक यूनियनें निजीकरण का विरोध कर रही हैं। उनका कहना है कि जब सरकारी बैंकों को मज़बूत करके अर्थव्यवस्था में तेज़ी लाने की ज़िम्मेदारी सौंपने की ज़रूरत है उस वक़्त सरकार एकदम उलटे रास्ते पर चल रही है।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट में एलान किया है कि इसी साल दो सरकारी बैंकों और एक जनरल इंश्योरेंस कंपनी का निजीकरण किया जाएगा। इससे पहले आईडीबीआई बैंक को बेचने का काम चल रहा है और जीवन बीमा निगम में हिस्सेदारी बेचने का एलान तो पिछले साल के बजट में ही हो चुका था। सरकार ने अभी तक यह नहीं बताया है कि वो कौन से बैंकों में अपनी पूरी हिस्सेदारी या कुछ हिस्सा बेचने वाली है।

लेकिन ऐसी चर्चा ज़ोरों पर है कि सरकार चार बैंक बेचने की तैयारी कर रही है। इनमें बैंक ऑफ महाराष्ट्र, बैंक ऑफ इंडिया, इंडियन ओवरसीज़ बैंक और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के नाम लिए जा रहे हैं। इन नामों की औपचारिक पुष्टि नहीं हुई है। लेकिन इन चार बैंकों के लगभग एक लाख तीस हज़ार कर्मचारियों के साथ ही दूसरे सरकारी बैंकों में भी इस चर्चा से खलबली मची हुई है।

1969 में इंदिरा गांधी की सरकार ने 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था। आरोप था कि यह बैंक देश के सभी हिस्सों को आगे बढ़ाने की अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं और सिर्फ़ अपने मालिक सेठों के हाथ की कठपुतलियां बने हुए हैं। इस फ़ैसले को ही बैंक राष्ट्रीयकरण की शुरुआत माना जाता है।

हालांकि इससे पहले 1955 में सरकार स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को अपने हाथ में ले चुकी थी। और इसके बाद 1980 में मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार ने छह और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया। लेकिन बैंक राष्ट्रीयकरण के 52 साल बाद अब सरकार इस चक्र को उल्टी दिशा में घुमा रही है। दरअसल, 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद से ही यह बात बार-बार कही जाती रही है कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं है। PM नरेंद्र मोदी ने हाल में ही यह बात ज़ोर देकर दोहराई है।

साफ़ है कि सरकार सभी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर निजीकरण यानी सरकारी कंपनियों को बेचने का काम ज़ोर-शोर से करने जा रही है। यह सरकार तो यहाँ तक कह चुकी है कि अब वो रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण यानी स्ट्रैटिजिक सेक्टरों में भी कंपनियां अपने पास ही रखने पर ज़ोर नहीं देना चाहती।

बैंकों के मामले में एक बड़ी समस्या यह भी है कि पिछली तमाम सरकारें जनता को लुभाने या वोट बटोरने के लिए ऐसे एलान करती रहीं जिनका बोझ सरकारी बैंकों को उठाना पड़ा। क़र्ज़ माफ़ी इनका सबसे बड़ा उदाहरण है। और इसके बाद जब बैंकों की हालत बिगड़ती थी तो सरकार को उनमें पूंजी डालकर फिर उन्हें खड़ा करना पड़ता था।

राष्ट्रीयकरण के बाद तमाम तरह के सुधार और कई बार सरकार की तरफ़ से पूंजी डाले जाने के बाद भी इन सरकारी बैंकों की समस्याएं पूरी तरह ख़त्म नहीं हो पाई हैं। निजी क्षेत्र के बैंकों और विदेशी बैंकों के मुक़ाबले में वो पिछड़ते भी दिखते हैं डिपॉजिट और क्रेडिट दोनों ही मोर्चों पर। वहीं डूबनेवाले क़र्ज़ या स्ट्रेस्ड ऐसेट्स के मामले में वो उन दोनों से आगे हैं।

पिछले तीन सालों में ही सरकार बैंकों में डेढ़ लाख करोड़ रुपए की पूंजी डाल चुकी है और एक लाख करोड़ से ज़्यादा की रक़म रीकैपिटलाइजेशन बॉंड के ज़रिए भी दी गई है। अब सरकार की मंशा साफ़ है। वो एक लंबी योजना पर काम कर रही है जिसके तहत पिछले कुछ सालों में सरकारी बैंकों की गिनती 28 से कम करके 12 तक पहुंचा दी गई है। इनको भी वो और तेज़ी से घटाना चाहती है। कुछ कमज़ोर बैंकों को दूसरे बड़े बैंकों के साथ मिला दिया जाए और बाक़ी को बेच दिया जाए। यही फॉर्मूला है।

इससे सरकार को बार-बार बैंकों में पूंजी डालकर उनकी सेहत सुधारने की चिंता से मुक्ति मिल जाएगी। ऐसा विचार पहली बार नहीं आया है. पिछले बीस साल में कई बार इस पर चर्चा हुई है। लेकिन पक्ष विपक्ष के तर्कों में मामला अटका रहा। रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर वाईवी रेड्डी का कहना था कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण एक राजनीतिक फ़ैसला था, इसीलिए इनके निजीकरण का फ़ैसला भी राजनीति को ही करना होगा। लगता है कि अब राजनीति ने फ़ैसला कर लिया है।

बैंक कर्मचारी निजीकरण के ख़िलाफ़ पहले भी हड़ताल कर चुके हैं। भारत में निजी और सरकारी बैंकों की तरक्क़ी की रफ़्तार का मुक़ाबला करें तो साफ़ दिखता है कि निजी बैंकों ने क़रीब क़रीब हर मोर्चे पर सरकारी बैंकों को पीछे छोड़ रखा है। इसकी वजह इन बैंकों के भीतर भी देखी जा सकती है और इन बैंकों के साथ सरकार के रिश्तों में भी। और यह साफ़ है कि बैंकों के निजीकरण से तकलीफ़ तो होगी लेकिन फिर इन बैंकों को अपनी शर्तों पर काम करने की आज़ादी भी मिल जाएगी।

लेकिन बैंक कर्मचारी और अधिकारी इस तर्क को पूरी तरह बेबुनियाद मानते हैं। उनका कहना है कि बैंक राष्ट्रीयकरण के समय ही साफ़ था कि प्राइवेट बैंक देश हित की नहीं अपने मालिक के हित की ही परवाह करते हैं। इसीलिए यह फ़ैसला न सिर्फ़ कर्मचारियों के लिए बल्कि पूरे देश के लिए ख़तरनाक है। पिछले कुछ सालों में जिस तरह ICICI बैंक, येस बैंक, एक्सिस बैंक और लक्ष्मी विलास बैंक की गड़बड़ियां सामने आईं उससे यह तर्क भी कमज़ोर पड़ता है कि निजी बैंकों में बेहतर काम होता है।

और यह भी सच है कि जब कोई बैंक पूरी तरह डूबने की हालत में पहुँच जाता है तब सरकार को ही आगे आकर उसे बचाना पड़ता है और तब यह ज़िम्मेदारी किसी न किसी सरकारी बैंक के ही मत्थे मढ़ी जाती है। यही वजह है कि आज़ादी के बाद से आज तक भारत में कोई शिड्यूल्ड कॉमर्शियल बैंक डूबा नहीं है।

बैंक यूनियनों ने निजीकरण के फ़ैसले के ख़िलाफ़ लंबे प्रतिरोध का कार्यक्रम बनाया हुआ है। उनका यह भी आरोप है कि डूबे क़र्ज़ों की वसूली के लिए कठोर क़ानूनी कार्रवाई करने की जगह आईबीसी जैसे क़ानून बनाना भी एक बड़ी साज़िश का हिस्सा है। क्योंकि इसमें आख़िरकार सरकारी बैंकों को अपने क़र्ज़ पर हेयरकट लेने यानी मूल से भी कम रक़म लेकर मामला ख़त्म करने को राज़ी होना पड़ता है।

यूनाइटेड फोरम में शामिल यूनियनों के सभी कर्मचारी और अधिकारी सोमवार और मंगलवार को हड़ताल पर रहेंगे। इससे पहले शुक्रवार को महाशिवरात्रि, शनिवार को दूसरे शनिवार और रविवार की छुट्टी थी। यानी पूरे पाँच दिन बैंकों में कामकाज़ बंद। हालांकि प्राइवेट बैंकों में हड़ताल नहीं होगी लेकिन अभी तक कुल बैंकिंग कारोबार का एक तिहाई हिस्सा ही उनके पास है यानी दो तिहाई कामकाज़ पर असर पड़ सकता है।

इसमें भी बैंकों में पैसा जमा करने और निकालने के अलावा ख़ासकर चेकों की क्लियरिंग, नए खाते खोलने का काम, ड्राफ्ट बनवाना और लोन की कार्रवाई जैसे कामों पर असर पड़ सकता है। हालांकि ATM चलते रहेंगे। स्टेट बैंक का कहना है कि उसकी शाखाओं में कामकाज चलता रहे इसके इंतजाम किए गए हैं लेकिन कहीं कहीं हड़ताल का असर दिख सकता है।

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