राहुल गांधी ने पकड़ी कांग्रेस की बीमारी, क्या दलित-पिछड़े बनेंगे इलाज की दवा?

राहुल गांधी ने दिल्ली में ‘वंचित समाज: दशा और दिशा’ कार्यक्रम में खुलेतौर पर कहा कि कांग्रेस दलित-पिछड़ों के विश्वास को हासिल करने में नाकाम रही है. राहुल जानते हैं कि मौजूदा दौर में दलित और ओबीसी के विश्वास को हासिल करना कितना चुनौती भरा काम है. इसीलिए उन्होंने कहा कि कांग्रेस में पहले आंतरिक क्रांति लानी पड़ेगी,

देश की सत्ता से कांग्रेस दस साल से ज्यादा समय से बाहर है. एक के बाद एक राज्य की सत्ता से वो बेदखल होती जा रही है. फिलहाल तीन राज्यों में कांग्रेस की अपने दम पर सरकार है और दो राज्यों में सहयोगी दलों के तौर शामिल है. कांग्रेस से लगातार लोगों का मोहभंग होता जा रहा है. ऐसे में कांग्रेस के गिरते जनाधार और लोगों के हो रहे सियासी मोहभंग की वजह को राहुल गांधी ने तलाश लिया है, क्या उसके इलाज की दवा भी तलाश पाएंगे या नहीं?

राहुल गांधी ने गुरुवार को खुलेआम स्वीकार किया कि नब्बे के दशक के बाद कांग्रेस पार्टी से दलित और ओबीसी छिटकते चले गए. ये वो वोटर थे, जो कांग्रेस की रीढ़ हुआ करते थे. राहुल ने कहा कि हम उनका भरोसा खोते चले गए क्योंकि हमने कभी उनके हितों की रक्षा उस तरह नहीं की, जैसी करनी चाहिए थी. अगर हमने दलितों, पिछड़ों, अति पिछड़ों का विश्वास बरकरार रखा होता तो बीजेपी कभी सत्ता में नहीं आती.

दलित-पिछड़ों का विश्वास हासिल करने में नाकाम रही कांग्रेस

दिल्ली विधानसभा चुनाव की सियासी सरगर्मी के बीच राहुल गांधी ने दिल्ली में ‘वंचित समाज: दशा और दिशा’ कार्यक्रम में खुलेतौर पर कहा कि कांग्रेस दलित-पिछड़ों के विश्वास को हासिल करने में नाकाम रही है. इंदिरा गांधी जी के समय दलित और पिछड़ों का भरोसा कांग्रेस के प्रति बरकरार था. दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक सब जानते थे कि इंदिरा जी उनके लिए लड़ेंगी, लेकिन उसके बाद ऐसा करने में फेल रहे.

राहुल गांधी जिस दौर में कांग्रेस के दलित और पिछड़ों के मोहभंग होने की बात कर रहे हैं, वो नब्बे का दशक था मंडल बनाम कंमडल की राजनीति गर्म थी. राजीव गांधी की हत्या हो चुकी थी. 1991 से 1996 तक कांग्रेस के नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे. कांग्रेस के इतिहास का ये वो दौर था जब नेहरू-गांधी परिवार का कोई सदस्य सक्रिय राजनीति में नहीं था. सोनिया गांधी 1998 में सियासत में आई थीं, जो नब्बे के दशक का दौर चल रहा था. इस तरह राहुल गांधी के बयान के सियासी मायने समझे जा सकते हैं, क्योंकि उन्होंने कहा कि इंदिरा गांधी के दौर में दलित व पिछड़ों का विश्वास था.

दलित-मुस्लिम-ब्राह्मण हुआ करता था परंपरागत वोटबैंक

दरअसल, आजादी के बाद कांग्रेस का परंपरागत वोटबैंक दलित-मुस्लिम-ब्राह्मण हुआ करता था. कांग्रेस इसी जातीय समीकरण के सहारे लंबे समय तक सियासत करती रही है. ओबीसी वर्ग की तमाम जातियां कांग्रेस का विरोध करती रही हैं. इंदिरा गांधी की तरह राजीव गांधी ने भी जाति के आधार पर आरक्षण का विरोध किया. ऐसे में कांग्रेस को पिछड़े वर्ग और आरक्षण का विरोधी माना जाता रहा है और बार-बार राजीव गांधी के उस भाषण का हवाला दिया जाता रहा है, जिसमें उन्होंने लोकसभा में मंडल कमीशन की रिपोर्ट का विरोध किया था.

कांग्रेस कैसे सियासी हाशिए पर पहुंच गई?

मंडल कमीशन के बाद देश की सियासत ही पूरी तरह से बदल गई और ओबीसी आधारित राजनीति करने वाले नेता उभरे. इनमें मुलायम सिंह यादव से लेकर लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव जैसे मजबूत क्षत्रप रहे. ओबीसी सियासत इन्हीं नेताओं के इर्द-गिर्द सिमटती गई और कांग्रेस धीरे-धीरे राजनीतिक हाशिए पर पहुंच गई. राम मंदिर आंदोलन और कांशीराम की दलित राजनीति ने कांग्रेस का सियासी खेल ही बिगाड़ दिया. मुस्लिम से लेकर दलित और ब्राह्मण वोटर भी खिसक गए.

मंडल के बदली सियासी नजाकत को कांग्रेस नहीं समझ सकी और दलित-पिछड़े वर्ग के वोट बैंक को साधने में पूरी तरह फेल रही. राहुल गांधी भी इस तरफ इशारा कर रहे हैं. देश में करीब आधी से ज्यादा आबादी ओबीसी समुदाय की है और दलित-आदिवासी समुदाय की आबादी 22 फीसदी है, जो किसी भी राजनीतिक दल का चुनाव में खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखती है.

ओबीसी-दलितों के बीच पकड़ नहीं बना सकी कांग्रेस

मंडल कमीशन के लिहाज से देखें तो करीब 52 फीसदी ओबीसी समुदाय की आबादी है, जो यूपी, बिहार में पूरी तरह से कांग्रेस के खिलाफ हो गई थी. कांग्रेस को नब्बे के दौर में काफी विरोध झेलना पड़ा और मध्य वर्ग के बीच उसकी साख कमजोर भी हुई. ओबीसी और दलितों के बीच कांग्रेस पकड़ नहीं बना सकी.

ओबीसी अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग पार्टियों के बीच बंटा हुआ है, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी नरेंद्र मोदी को पीएम का चेहरा बनाकर ओबीसी समुदाय को साधने में सफल रही. इसके बाद ओबीसी की सियासत करने वाले क्षेत्रीय दलों के लिए भी सियासी संकट खड़ा हो गया. बीजेपी ओबीसी वोटों पर अपनी पकड़ बनाए रखने में जुटी है. इसी का नतीजा है कि कांग्रेस 1984 के बाद दोबारा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में नहीं आ सकी

1990 से लेकर अब तक के चुनावी नतीजों पर एक नजर

1990 से लेकर अब तक के चुनावी नतीजों पर नजर डाले तों 1991 के चुनाव में कांग्रेस ने 244 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की थी. पार्टी 1996 में 140, 1998 में 141, 1999 में 114 सीटें जीतने में कामयाब रही. 1991 से 1996 तक कांग्रेस नरसिम्हा राव के अगुवाई में सत्ता में रही. इसके बाद कांग्रेस 2004 में सत्ता में वापसी की थी, उस समय कांग्रेस 145 सीटें जीती थी. इसके बाद 2009 में 206 सीटों के साथ दोबारा सत्ता में आई.

कांग्रेस 2014 में सत्ता में बाहर हुई तो फिर वापसी नहीं कर सकी. 2014 में 44 सीटें, 2019 में 53 सीटें और 2024 में 99 लोकसभा सीटें जीतने में कामयाब रही. पिछले तीन चुनाव से कांग्रेस सत्ता से बाहर है. 1990 के बाद दलित- पिछड़ों के विश्वास में आई कमी को राहुल गांधी को स्वीकार करना पड़ा है. राहुल ने यह बात दलित और पिछड़ों के बीच कही है, जिसमें उन्होंने दोबारा से उनके विश्वास को हासिल करने का भी फॉर्मूला रखा.

‘दूसरी आजादी’ आने वाली है: राहुल गांधी

राहुल गांधी यह जानते हैं कि मौजूदा दौर में दलित और ओबीसी के विश्वास को हासिल करना कितना चुनौती भरा काम है. इसीलिए राहुल गांधी ने दलित समुदाय के लोगों से कहा कि कांग्रेस में पहले आंतरिक क्रांति लानी पड़ेगी, जिसमें हम आप लोगों को (संगठन में) शामिल करें. राहुल ने यह भी कहा कि मौजूदा ढांचे में दलित और पिछड़ों की समस्याएं हल नहीं होने वाली हैं, क्योंकि बीजेपी और आरएसएस ने पूरे सिस्टम को नियंत्रण में ले लिया है.

कांग्रेस नेता ने कहा कि दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्गों के लिए ‘दूसरी आजादी’ आने वाली है. इसमें सिर्फ राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए नहीं लड़ना है, बल्कि संस्थाओं और कॉरपोरेट जगत में हिस्सेदारी लेनी होगी. भारत जोड़ो यात्रा के जरिए राहुल गांधी देशभर के मुसलमानों का विश्वास जीतने में कामयाब रहे हैं. संविधान और आरक्षण के मुद्दे पर दलित समाज के बीच कुछ हद तक जगह बनाने में सफल रहे, लेकिन आगे की राह काफी मुश्किल भरी है.

‘जिसकी जितनी भागेदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’

राहुल गांधी सामाजिक न्याय के मुद्दे पर दलित-ओबीसी का विश्वास जीतकर कांग्रेस की बीमारी का इलाज करने की कवायद में हैं, लेकिन आसान नहीं है. मंडल कमीशन के बाद उत्तर भारत की राजनीति पूरी तरह बदल गई है. देश में जातीय आधार वाली नई-नई पार्टियों (बसपा, सपा, आरजेडी, अपना दल, जेडीयू) का उदय हुआ.

वहीं, दूसरी तरफ बीजेपी ने राम मंदिर आंदोलन की आंच पर हिंदुत्व के मुद्दे को गरमाया. ब्राह्मण-बनिया की पार्टी की टैग से छुटकारा पाने के लिए उसने धीरे-धीरे सोशल इंजीनियरिंग पर काम किया. बीजेपी ने पिछड़ों, अति पिछड़ों और दलितों को हिंदुत्व की छतरी के नीचे एकजुट किया. संगठन और सरकारों में इन वर्गों का प्रतिनिधित्व बढ़ाया. ऐसे में राहुल गांधी के लिए दलित और ओबीसी वोटों को पाने की टेंशन है, जो आसान नहीं है.

कांग्रेस अब बीजेपी से मुकाबला करने के लिए सामाजिक न्याय की दिशा में आगे बढ़ने के लिए कदम बढ़ा रही है. इसके लिए राहुल गांधी के उस नारे को रखा जा रहा ‘जिसकी जितनी भागेदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’. इस तरह कांग्रेस आबादी के लिहाज से आरक्षण देने की पैरवी शुरू कर दी है, जिसके पीछे सियासी मकसद को भी समझा जा सकता है. देखना है कि कांग्रेस क्या अपने अंदर सियासी बदलाव कर दलित-पिछड़े वर्ग का विश्वास जीत पाएगी?

बिहार के इन 2 हजार लोगों का धर्म क्या है? विश्व का सबसे अमीर क्रिकेट बोर्ड कौन सा है? दंतेवाड़ा एक बार फिर नक्सली हमले से दहल उठा SATISH KAUSHIK PASSES AWAY: हंसाते हंसाते रुला गए सतीश, हृदयगति रुकने से हुआ निधन India beat new Zealand 3-0. भारत ने किया कीवियों का सूपड़ा साफ, बने नम्बर 1