Tejashwi Yadav News: बिहार चुनाव में तेजस्वी यादव सीएम पद के दावेदार हैं, लेकिन उनके नाम पर कांग्रेस के पूर्व और नए प्रदेश अध्यक्ष के विपरीत बयान ने सियासी हलकों में हलचल मचा दी है. आइए इन बयानों के बयानों के निहितार्थ और आगामी विधानसभा से पहले के खेल को समझते हैं…
बिहार में इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. इस चुनाव में तेजस्वी यादव सीएम नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार को हराकर सरकार बनाने का दावा कर रहे हैं. उनका दावा है कि अबकी बार आरजेडी-कांग्रेस के महागठबंधन की ही सरकार बनने जा रही है. हालांकि इस बीच महागठबंधन के घटक दल कांग्रेस के भीतर खींचतान एक बार फिर सुर्खियों में है. तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री चेहरा मानने को लेकर कांग्रेस के दो शीर्ष नेताओं पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह और मौजूदा अध्यक्ष कृष्णा अल्लावरु के विपरीत बयान ने सियासी हलकों में हलचल मचा दी है.
26 मार्च 2025 को कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह ने साफ तौर पर कहा था- ‘कोई डाउट नहीं है कि तेजस्वी यादव ही मुख्यमंत्री का चेहरा होंगे.’ यह बयान आरजेडी और तेजस्वी के लिए राहत भरा था, क्योंकि यह गठबंधन में कांग्रेस की सहमति को दर्शाता था. लेकिन इसके ठीक तीन दिन बाद 29 मार्च 2025 को कांग्रेस के मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष कृष्णा अल्लावरु ने अखिलेश के बयान से किनारा कर लिया और कहा कि ‘यह फैसला गठबंधन के सभी दल मिलकर करेंगे.’
कांग्रेस के भीतर तेजस्वी यादव की भूमिका को लेकर यह मतभेद न केवल पार्टी की एकता पर सवाल उठाता है, बल्कि आरजेडी के साथ उसके रिश्तों को भी प्रभावित कर सकता है. क्या यह लालू प्रसाद यादव को नगावर गुजर सकता है? और क्या इससे महागठबंधन का भविष्य खतरे में पड़ सकता है? आइए इसे समझते हैं…
कांग्रेस में दो धड़ों की जंग
अखिलेश प्रसाद सिंह का बयान तेजस्वी के पक्ष में एक मजबूत समर्थन के रूप में देखा गया था. उनका यह कहना कि ‘कोई डाउट नहीं है’ न केवल तेजस्वी की नेतृत्व क्षमता पर भरोसा जताता है, बल्कि यह भी संकेत देता है कि कांग्रेस का एक धड़ा 2025 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी के साथ पूर्ण समर्पण के साथ खड़ा है. अखिलेश प्रसाद हाल ही में प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाए गए थे. माना जा रहा है कि अपने पुराने रिश्तों और लालू के साथ नजदीकी को मजबूत करने की कोशिश कर रहे थे.
दूसरी ओर, नए चीफ कृष्णा अल्लावरु का बयान एक संतुलित और सधी हुई रणनीति को दर्शाता है. उनका कहना कि ‘यह गठबंधन तय करेगा’ इस बात का संकेत है कि कांग्रेस अब सिर्फ आरजेडी की शर्तों पर चलने को तैयार नहीं है. यह कांग्रेस के हाईकमान, खासकर राहुल गांधी और कन्हैया कुमार जैसे नेताओं की सोच को प्रतिबिंबित कर सकता है, जो बिहार में पार्टी की स्वतंत्र पहचान को मजबूत करना चाहते हैं. ‘पलायन रोको, नौकरी दो’ पदयात्रा जैसे कदम भी इसी दिशा में एक प्रयास हैं. लेकिन यह बयान अखिलेश के दावे से सीधा टकराव पैदा करता है, जिससे कांग्रेस के भीतर अंतर्कलह की तस्वीर उभरती है.
लालू को क्यों नहीं रास आएगी यह बात?
लालू प्रसाद यादव और आरजेडी के लिए तेजस्वी का मुख्यमंत्री चेहरा होना एक अहम मुद्दा है. 2020 के चुनाव में तेजस्वी ने खुद को एक मजबूत नेता के रूप में स्थापित किया था, और 2025 में उनकी पार्टी इस नैरेटिव को और मजबूत करना चाहती है. अखिलेश का बयान लालू के लिए एक सहमति की तरह था, जो उनके परिवार और पार्टी की स्थिति को मजबूत करता था. लेकिन कृष्णा ने संकेत दिया कि तेजस्वी का नेतृत्व स्वतःसिद्ध नहीं है और कांग्रेस भी इस फैसले में बराबर की हिस्सेदार होगी.
लालू प्रसाद की सियासी चालबाजी बिहार में मशहूर है, इसे अपने प्रभाव क्षेत्र पर हमले के रूप में देख सकते हैं. आरजेडी बिहार में महागठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी है, और वह गठबंधन में अपनी प्रभुत्व की स्थिति को कमजोर होते नहीं देखना चाहेगी. अगर कांग्रेस तेजस्वी के नेतृत्व पर सवाल उठाती है या अपने लिए ज्यादा सीटों की मांग करती है, तो लालू इसे कतई स्वीकार नहीं करेंगे. उनकी राजनीतिक शैली में सहयोगी दलों को अपने पक्ष में रखना और दबाव बनाना शामिल रहा है, और कृष्णा का यह बयान उनके लिए एक चेतावनी की तरह हो सकता है.
गठबंधन पर खतरा कितना बड़ा?
बिहार में आरजेडी और कांग्रेस के महागठबंधन का इतिहास उतार-चढ़ाव से भरा रहा है. 2022 में नीतीश कुमार के एनडीए में वापस जाने के बाद आरजेडी और कांग्रेस ने मिलकर एक मजबूत विपक्षी गठबंधन बनाने की कोशिश की थी. लेकिन दोनों दलों के बीच सीट बंटवारे, नेतृत्व और रणनीति को लेकर मतभेद पहले भी सामने आए हैं. 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को कम सीटें मिलने पर भी असंतोष की खबरें थीं. अब तेजस्वी के मुद्दे पर यह तकरार गठबंधन के लिए नई चुनौती खड़ी कर सकती है.
अगर लालू को लगता है कि कांग्रेस उनकी शर्तों को नहीं मान रही, तो वह गठबंधन को कमजोर करने या कांग्रेस को कम सीटों पर सीमित करने की रणनीति अपना सकते हैं. दूसरी ओर, कांग्रेस अगर अपनी स्वतंत्र पहचान और कन्हैया जैसे नेताओं को आगे बढ़ाने पर जोर देती है, तो वह आरजेडी के साथ टकराव मोल ले सकती है. सबसे खराब स्थिति में, यह गठबंधन टूट भी सकता है. हालांकि अभी यह संभावना दूर की कौड़ी लगती है, क्योंकि दोनों दलों को एनडीए के खिलाफ एकजुट रहने की जरूरत है.
तेजस्वी के विकल्प कन्हैया !
कांग्रेस के भीतर यह तकरार दो बातों को उजागर करती है. पहला, पार्टी बिहार में अपनी पुरानी ताकत वापस पाने की कोशिश कर रही है और सिर्फ सहयोगी की भूमिका में नहीं रहना चाहती. दूसरा, तेजस्वी का कद बढ़ना कांग्रेस के लिए एक चुनौती है, क्योंकि इससे कन्हैया कुमार जैसे उसके युवा नेताओं की चमक कभी उभर नहीं सकती. कन्हैया की हालिया ‘पलायन रोको, नौकरी दो’ पदयात्रा से उनकी लोकप्रियता बढ़ रही है और कांग्रेस शायद उन्हें तेजस्वी के विकल्प के रूप में देख रही हो.
लालू के लिए यह स्थिति असहज हो सकती है, लेकिन वह इसे अपने फायदे में बदलने की कला जानते हैं. वह कांग्रेस पर दबाव डाल सकते हैं कि तेजस्वी को बिना शर्त समर्थन दे, वरना गठबंधन में उनकी हिस्सेदारी कम हो सकती है. दूसरी ओर, कांग्रेस को भी अपनी जमीन मजबूत करने के लिए सावधानी से कदम उठाने होंगे, ताकि वह न तो गठबंधन खोए और न ही अपनी साख.
तेजस्वी यादव पर कांग्रेस में तकरार महज एक बयानबाजी नहीं, बल्कि बिहार की सियासत में शक्ति संतुलन के खेल के तौर पर देखा जा रहा है. अखिलेश और कृष्णा के बयानों से साफ है कि पार्टी के भीतर एकमत नहीं है, और यह लालू को नाराज कर सकता है.
गठबंधन पर खतरा अभी संभावना भर है, लेकिन अगर यह मतभेद बढ़ता है, तो 2025 का चुनावी समीकरण बदल सकता है. यह देखना दिलचस्प होगा कि लालू इस चुनौती का जवाब कैसे देते हैं और कांग्रेस अपनी रणनीति में कितना संतुलन बना पाती है. बिहार की सियासत में यह छोटी सी चिंगारी एक बड़े बदलाव की शुरुआत हो सकती है.

