नीतीश कुमार ने लव-कुश समीकरण से लालू यादव को चुनौती दी थी. अब भाजपा ने वही रणनीति अपनाई है. 2025 चुनाव नीतीश के लिए निर्णायक होगा. क्या निशांत को उत्तराधिकारी बनाएंगे? जनता देख रही है.
क्या आने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की असली परीक्षा होगी? क्या पिछले चुनाव में 43 सीटों पर सिमट चुकी जनता दल यूनाईटेड (जेडीयू) को और झटके लगेंगे? क्या 243 में 225 सीट का नारा महाराष्ट्र की कहानी दोहराएगा? या नीतीश कुमार की पार्टी लोकसभा चुनाव की तरह परदे के पीछे अपने वोटरों से पूछेगी – जब 122 सीटों से सरकार बन जाती है तो 225 की क्या जरूरत है? ये सारे सवाल बिहार की सियासी फिजा में तैर रहे हैं. ये तो तय है कि नीतीश कुमार अपने राजनीतिक करियर का आखिरी चुनाव लड़ रहे हैं. ये बात तो पिछले चुनाव के दौरान सहरसा की रैली में उन्होंने खुद ही बता दिया था. तब किसे पता था उनका बेटा निशांत न सिर्फ अपने पिता को फिट एंड फाइन बताएगा बल्कि खुद भी संयत समझदार होकर अचानक सार्वजनिक जीवन में सक्रिय होगा और मीडिया के सवालों को बखूबी झेलेगा. इससे एक और सवाल उठने लगे हैं. क्या बड़बोलेपन के लिए चर्चित जेडीयू विधायक गोपाल मंडल स्वभाव के मुताबिक ये बयान दे रहे कि निशांत को बिहार की बागडोर दे देनी चाहिए या नीतीश कुमार खुद इसे हवा दे रहे. लालू के बेटे तेजस्वी यादव तो चुटकी पर चुटकी ले रहे हैं. कैबिनेट विस्तार में बीजेपी 21 पड़ गई तो मौका मिल गया. उनका कहना है कि भाजपा चुनाव के बाद जेडीयू को खत्म करने की तैयारी कर रही है इसलिए नीतीश कुमार को चाहिए कि वो निशांत को उत्तराधिकारी घोषित कर दें.
क्या सही ही है क्या गलत है इन सारी बातों पर जनता गौर कर रही है. अब लौटते हैं पहले सवाल पर कि क्या 2025 चुनाव में नीतीश की असली परीक्षा होगी. दरअसल 2005 के बाद नीतीश या तो बीजेपी के साथ या लालू यादव के साथ विधानसभा चुनाव जीतते रहे हैं. सिर्फ 2014 के लोकसभा चुनाव में वो अकेले उतरे. तब भी जेडीयू को 16 परसेंट वोट मिले. 2005 और 2 चुनाव में भी जेडीयू को बीजेपे से ज्यादा वोट शेयर मिले. सबसे बुरा हाल 2020 में हो गया जब जेडीयू का वोट शेयर 16 परसेंट के नीचे आ गया. इसमें कोई शक नहीं कि नीतीश कुमार ने लव-कुश यानी कोईरी-कुर्मी समीकरण से समता पार्टी शुरू की और सुशासन बाबू के तमगे से जनाधार बढ़ाया जिसके बूते आज जेडीयू बिहार की राजनीति के केंद्र में है.
अगर हालिया जाति गणना को देखें तो कोईरी 4.2 परसेंट और कुर्मी 2.9 परसेंट की हिस्सेदारी रखते हैं. दोनों मिला दें तो लगभग 7 परसेंट. माना जाता है कि ये वोट बैंक किसी यू-टर्न में नहीं छिटकता और नीतीश के साथ रहता है. हाल ही में नीतीश कुमार ने जब भाजपा कोटे से सात नए मंत्री शामिल किए तो चर्चा शुरू हो गई कि उनकी बुनियाद को ध्वस्त करने की तैयारी हो रही है. बुनियाद से मतलब लव-कुश से है. दरअसल बीजेपी ने कुर्मी और कोईरी बिरादरी से मंत्री बना दिए जिन्हें नीतीश कुमार का कोर वोट बैंक माना जाता है. कृष्ण कुमार उर्फ मंटू पटेल कुर्मी जाति से हैं और नीतीश के घर बिहारशरीफ के बीजेपी विधायक सुनील कुमार कुशवाहा यानी कोईरी जाति से हैं. मंटू पटेल ने तो हाल ही में नीतीश कुमार के इतिहास को भी दोहराया. उन्होंने पटना में कुर्मी चेतना रैली की. इससे 1994 का वो मंजर जेहन में आता है जब लालू को उखाड़ फेंकने का जज्बा भरा था. कुर्मी चेतना रैली के मंच ने नीतीश कुमार की नसों में लालू को उखाड़ फेंकने का जज्बा भरा था.
बिहार की राजनीति का टर्निंग पॉइंट
12 फरवरी 1994 का दिन बिहार की राजनीति के लिए ऐतिहासिक था. पटना का गांधी मैदान खचाखच भरा हुआ था। यह भीड़ किसी सामान्य रैली की नहीं थी, बल्कि यह लालू यादव के प्रभुत्व को खुली चुनौती थी। एक साल पहले लालू यादव की “गरीब रैला” का रिकॉर्ड बनाने वाली भीड़ को यह इकट्ठा हुआ जनसैलाब पीछे छोड़ने वाला था. इस रैली के केंद्र में थे नीतीश कु धीरे-धीरे बिहार में लालू विरोधी राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा बन रहे थे.
जब नीतीश के कदम ठिठक रहे थे
उस समय बिहार की राजनीति में लालू यादव का वर्चस्व कायम था, लेकिन जनता दल के भीतर ही उनके विरोध की चिंगारी सुलगने लगी थी. ओबीसी राजनीति के अगुआ माने जाने वाले लालू ने यादवों को विशेष महत्व देना शुरू कर दिया था, जिससे अन्य पिछड़ा वर्ग में असंतोष पनपने लगा था. 1993 में नीतीश कुमार ने लालू को आगाह किया था कि ओबीसी आरक्षण नीति से छेड़छाड़ करना गैर-यादव ओबीसी समुदाय के लिए अस्वीकार्य होगा. अफवाहें फैलने लगीं कि लालू कुर्मी-कोईरी समुदाय को ओबीसी सूची से बाहर करने की योजना बना रहे हैं. इसी की प्रतिक्रिया के रूप में कुर्मी चेतना रैली का आयोजन किया गया था.
नीतीश कुमार को इस रैली में जाने को लेकर असमंजस था. उनके करीबी साथी विजय कृष्ण और अन्य नेताओं ने उन्हें इसके महत्व को समझाने की कोशिश की. विजय कृष्ण ने उन्हें समझाया कि यह उनके राजनीतिक भविष्य के लिए निर्णायक क्षण है. लेकिन नीतीश उस सुबह लंबे समय तक असमंजस में रहे. वह जानते थे कि यदि वे इस रैली में शामिल होते हैं, तो लालू से उनके संबंधों में अंतिम दरार पड़ जाएगी और उनके राजनीतिक सफर की नई दिशा तय हो जाएगी.
लालू की बेचैनी और नीतीश का निर्णायक कदम
उधर, लालू यादव भी बेचैन थे. उन्हें लगातार गांधी मैदान की रिपोर्टें मिल रही थीं. वह जानने को उत्सुक थे कि नीतीश वहां पहुंचे या नहीं. गांधी मैदान से कुछ दूरी पर स्थित छज्जू बाग में विजय कृष्ण और उनके समर्थक बार-बार नीतीश को रैली में जाने के लिए मनाने की कोशिश कर रहे थे. नीतीश खुद भी ऊहापोह की स्थिति में थे, लेकिन आखिरकार जब उन्होंने कदम बढ़ाया, तो यह महज एक व्यक्ति का निर्णय नहीं, बल्कि बिहार की राजनीति के भविष्य का निर्धारण था.
जैसे ही नीतीश कुमार गांधी मैदान पहुंचे, वहां मौजूद भीड़ में जबरदस्त जोश भर गया. लेकिन दूसरे ही पल नीतीश के लिए अवाक करने वाला था. उन्होंने जैसे ही लालू की तारीफ की मंच की ओर चप्पल उछलने लगे. तब सहयोगी सतीश कुमार ने उनके कान में कहा – अब कोई घबराने की गुंजाइश नहीं बची है, जो कहना है साफ कहिए. फिर क्या था, उन्होंने सीधा ऐलान किया – “हमें भीख नहीं, – हिस्सेदारी चाहिए.” यह संदेश सीधे लालू यादव को दिया गया था.
जैसे ही नीतीश कुमार गांधी मैदान पहुंचे, वहां मौजूद भीड़ में जबरदस्त जोश भर गया. लेकिन दूसरे ही पल नीतीश के लिए अवाक करने वाला था. उन्होंने जैसे ही लालू की तारीफ की मंच की ओर चप्पल उछलने लगे. तब सहयोगी सतीश कुमार ने उनके कान में कहा – अब कोई समझौते की गुंजाइश नहीं बची है, जो कहना है साफ कहिए. फिर क्या था, उन्होंने सीधा ऐलान किया – “हमें भीख नहीं, – हिस्सेदारी चाहिए.” यह संदेश सीधे लालू यादव को दिया गया था.
राजनीति का नया अध्याय
इस रैली के कुछ महीनों बाद ही नीतीश कुमार और जॉर्ज फर्नांडिस ने मिलकर समता पार्टी का गठन किया. यह गैर-यादव ओबीसी और सवर्णों के गठजोड़ पर आधारित एक नया राजनीतिक प्रयोग था. हालांकि, लालू यादव जैसे जमीनी नेता को सत्ता से हटाना आसान नहीं था. नीतीश को मुख्यमंत्री बनने के लिए एक दशक और इंतजार करना पड़ा.
वहीं, राजनीति की बिसात पर समीकरण तेजी से बदले. विजय कृष्ण, जो कभी नीतीश को इस राह पर बढ़ाने में सबसे आगे थे, बाद में उनके कट्टर विरोधी बन गए और लालू से हाथ मिला लिया. 2004 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने नीतीश को पराजित भी किया. इसके बाद से ही नीतीश कुमार ने कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा.न ही वो 2025 में लड़ेंगे लेकिन पार्टी को बचाने की लड़ाई तो उन्हें लड़नी ही पड़ेगी.

