OPINION- नीतीश कुमार को दुत्कार नहीं, सहानुभूति की जरूरत है

बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने राष्ट्रगान के वक्त अजोबोगरीब हरकतें कीं. इससे पहले भी उनकी कई गतिविधियां असामान्य दिखी हैं. इससे एक बात साफ हो गई है कि वे बीमार हैं. बीमार को सहानुभूति की जरूरत होती है, न कि दुत्कार की. आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव उनकी इस हरकत को राष्ट्रवाद से जोड़ रहे तो उनके बेटे तेजस्वी को नीतीश अचेत और लाचार लग रहे हैं. राबड़ी देवी भी उनके प्रति व्यंग्यात्मक सहानुभूति ही जता रही हैं कि उन्हें अपने बेटे को सीएम पद सौंप देना चाहिए

बिहार के सीएम नीतीश कुमार की सेहत ठीक नहीं है. वे अपने को बीमार भले न बताएं या मानें, पर यह सत्य अब छिपा नहीं है. पटना में चल रहे एक अंतरराष्ट्रीय खेल आयोजन के वक्त होने वाले राष्ट्रगान के दौरान नीतीश कुमार की असामान्य हरकत सबने देखी. इससे लंबे समय से चली आ रही इस आशंका की पुष्टि हुई कि वे मानसिक तौर पर सहज और सचेत नहीं हैं. उनकी बीमारी का पहला संकेत तो उसी दिन सार्वजनिक हो गया था, जब दो साल पहले उन्होंने अपने जनता दरबार में खुद को ही खोजना शुरू किया था. वे बार-बार अपने अधिकारियों से <गृह मंत्री को बुलाने की जिद कर रहे थे. अधिकारी भी हतप्रभ थे. किसी की यह कहने की हिम्मत नहीं हुई कि जिसे आप खोज रहे हैं, वह तो आप खुद हैं. नीतीश कुमार ही सीएम की जिम्मेवारी के साथ गृह मंत्री भी हैं. अधिकारियों और नीतीश के करीबी नेताओं ने इतना भर ही किया कि जनता दरबार का सिलसिला रोक दिया गया.

दुत्कार नहीं, सहानुभूति की जरूरत

पता नहीं, इस बीमारी का पता चलने पर उनकी पार्टी जेडीयू के नेताओं या सरकार में शामिल भाजपा के नेताओं ने भी क्यों उनके इलाज की जरूरत नहीं समझी. संभव है कि उनका इलाज हो भी रहा हो, लेकिन इस बारे में कभी किसी ने कोई जानकारी बिहार की 13 करोड़ जनता को देने की जरूरत नहीं समझी. नतीजतन नीतीश कुमार की असामान्य हरकतें बढ़ती गई. विपक्ष ने इसे राजनीतिक मुद्दा बना लिया है. सत्ता पक्ष उन्हें फिट साबित करने का अनावश्यक प्रयास कर रहा है. जहां नीतीश कुमार को अपनी इस हालत के लिए सहानुभूति की जरूरत है, वहां उन्हें दुत्कारने की कोशिश विपक्ष की ओर से हो रही है.

वर्ष 2020 से मिलती रही है झलक

नीतीश कुमार की असामान्य हरकतों का कुछ हद तक एहसास तब भी हुआ था, जब 2020 के चुनाव में उनकी झुंझलाहट लोगों ने पहली बार महसूस की. नार्थ बिहार की एक सभा में जब कुछ लोगों ने उनके खिलाफ नारे लगाए तो वे भड़क गए थे. उन्होंने कहा था कि वोट देना है तो दीजिए, वर्ना उनकी सभा से चले जाइए. उन्हीं दिनों उन्होंने यह भी कह दिया था कि यह उनका आखिरी चुनाव है. तेजस्वी यादव ने जब पहली कैबिनेट बैठक में 10 लाख लोगों को नौकरी देने की घोषणा की, तब भी नीतीश तिलमिलाए थे. उन्होंने कहा था कि नौकरी के लिए तेजस्वी क्या पैसा अपने बाप के घर से लाएंगे. तब इन बातों को चुनावी प्रतिस्पर्धा में चलने वाले शब्दवाण मान कर लोगों ने उनमें आए बदलाव को खारिज कर दिया था. उसी वक्त इस पर ध्यान दिया गया होता तो शायद स्थिति आज इतनी नहीं बिगड़ती.

भाजपा नेताओं की है बोलती बंद

भाजपा नेताओं की बोलती अब बंद है. जेडीयू नेता भी समस्या की गंभीरता का हल निकालने के बजाय नीतीश को राष्ट्रवादी साबित करने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसा करते वक्त वे भूल जा रहे हैं कि इसे न नीतीश कुमार के साथ उचित व्यवहार कहा जा सकता है और न बिहार की जनता के साथ यह न्याय ही है. नीतीश कुमार को बेहतर इलाज की जरूरत है, न कि बचाव की. भाजपा को भी साफ मन से यह सोचने की जरूरत है कि सिर्फ चुनावी लाभ के लिए नीतीश कुमार को सीएम बनाए रखना अच्छा नहीं. जेडीयू का दुर्भाग्य यह है कि नीतीश कुमार अब तक जेडीयू में सुप्रीमो की भूमिका में रहे हैं. उनके बारे किसी को कुछ कहने की हिम्मत नहीं. नीतीश के इर्द- गिर्द रहने वाले अधिकारी भी स्थिति की गंभीरता को नहीं समझ पा रहे हैं.

नीतीश कुमार की असामान्य हरकतें

नीतीश कुमार के स्वभाव में बदलाव 2020 से लगातार दिखते रहे हैं. अशोक चौधरी के घर श्रद्धांजलि सभा में पहुंचे नीतीश ने उन पर ही फूल उछाल दिए थे. एक मौके पर तो उन्होंने अशोक चौधरी और विजय सिन्हा के सिर टकरा दिए थे. इसी साल महात्मा गांधी की पुण्यतिथि पर वे सैल्यूट के वक्त ताली बजाने लगे थे. कभी पीएम मोदी तो कभी भाजपा नेता रविशंकर के पैर छूने की उन्होंने कोशिश की. अफसरों के आगे हाथ जोड़ने या पैर छूने के प्रयास भी उन्होंने किए. महिलाओं के बारे में सदन और सदन के बाहर उन्होंने असहज टिप्पणी की. हालांकि बाद में उन्होंने अपनी गलती मान कर माफी भी मांगी थी.

उनकी इन हरकतों की वजह से ही शायद अधिकारियों ने उनके कार्यक्रमों से मीडिया को दूर रखना शुरू किया. वे तो मीडिया के लोगों के सामने भी एक बार हाथ जोड़ते नजर आए थे.

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