Bihar Politics: कभी बादशाह, कभी इक्का तो कभी गुलाम… बिहार कांग्रेस की इस तस्वीर की क्या है कहानी?

Bihar Politics News: कोई तस्वीर केवल तस्वीर भर नहीं होती, वह अपने आप में एक कहानी कहती है. तस्वीर में व्यक्ति के हाव-भाव वह सब कुछ बयां कर जाते हैं जो जुबां के जरिये न तो व्यक्त कर पाते हैं और न ही हम और आप सीधे तौर पर समझ ही पाते हैं. ऐसी ही तस्वीर बिहार की सियासत से जुड़ी है और यह कांग्रेस पार्टी के अंदरखाने की कहानी का जाती है.

बिहार प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बदल दिये गए हैं और अखिलेश प्रसाद सिंह की जगह विधायक राजेश कुमार को कांग्रेस की कमान सौंपी गई है. जिस तस्वीर की चर्चा हम कर रहे हैं यह इसी कहानी से जुड़ी हुई है. किसी भी राजनीतिक संगठन में बदलाव होते हैं और होते रहेंगे, लेकिन बिहार कांग्रेस का यह बदलाव राजनीतिक दृष्टि से बेहद अहम है. एक दलित विधायक राजेश कुमार को बिहार कांग्रेस का अध्यक्ष (चेहरा) बनाया गया है, मगर जिन्हें हटाया गया है वह काफी महत्वपूर्ण है. सवर्ण चेहरा अखिलेश सिंह को अध्यक्ष पद से हटाकर एक दलित को कांग्रेस की कमान सौंपना और फेस बनाना निश्चित तौर पर कांग्रेस में राजनीति की दृष्टि से यह बड़ा परिवर्तन कहा जा रहा है. इसके दूरगामी प्रभाव भी पार्टी में पड़ेगा, इसकी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.

हालांकि, यह प्रभाव अधिक सकारात्मक होगा या फिर नकारात्मक, यह कहना अभी जल्दबाजी होगी. हालांकि, बात उस तस्वीर की जो पुराने कांग्रेस के अध्यक्ष और नए कांग्रेस के अध्यक्ष के मिलने के दौरान सामने आई है. दो दिन पहले दोनों की मुलाकात तो आमने-सामने की हुई, अभिवादन भी हुआ, लेकिन न तो नजरें मिलीं और न गले मिले. खास बात यह कि न कोई गुफ्तगू ही हो पाई. अब इस तस्वीर को बिहार के सियासत के जानकारी अपने नजरिये से देख रहे हैं.

बता दें कि बिहार में कांग्रेस ने अब तक 42 अध्यक्ष बनाए हैं. इनमें कई दलित चेहरे भी कांग्रेस की कमान संभाल चुके हैं और राजेश कुमार इस क्रम में चौथे नंबर पर आते हैं. सबसे पहले वर्ष 1977 में मुंगेरीलाल कांग्रेस के अध्यक्ष बनाए गए थे. वहीं, वर्ष 1985 में डूमरलाल बैठा, इसके बाद वर्ष 2013 में अशोक चौधरी दलित अध्यक्ष बने थे.

अब राजेश कुमार चौथे कांग्रेस अध्यक्ष हैं जो दलित बिरादरी से आते हैं. राजेश कुमार बिहार के औरंगाबाद जिले के कुटुंब विधानसभा क्षेत्र से एमएलए हैं. इनके पिता दिलकेश्वर राम भी कांग्रेस में 1980 और 85 में विधायक रह चुके थे. जाहिर तौर पर पार्टी संगठन में बदलाव होते रहे हैं और एक बार फिर हुआ है. लेकिन, सवाल यह है कि कांग्रेस ने और चुनाव से पहले अध्यक्ष को क्यों बदला, क्या यह कांग्रेस की रणनीति का हिस्सा है?

कांग्रेस की ‘बैक टू रूट्स’ पॉलिसी !

राजनीति के जानकार इस बदलाव को बिहार में कांग्रेस के ‘अपनी जड़ों की ओर लौटो’ की रणनीति से जोड़कर देख रहे हैं और बिहार में कांग्रेस के अपने पुराने जनाधार की ओर लौटने की एक कवायद बता रहे हैं. बता दें कि कांग्रेस के परंपरागत वोटर सवर्ण, मुस्लिम और दलित रहे हैं और यह इस बार भी इसी को साधने की कवायद कही जा रही है. लेकिन, अखिलेश सिंह क्यों हटाए गए और उनकी नाराजगी क्यों दिख रही है, यह बड़ा सवाल है, जिसकी चर्चा सियासी गलियारों में खूब हो रही है. वरिष्ठ पत्रकार अशोक कुमार शर्मा कहते हैं, राज्यसभा के सांसद अखिलेश प्रसाद सिंह राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के काफी नजदीकी माने जाते हैं. वह स्वयं भी इस बात को हमेशा स्वीकार करते हैं कि लालू प्रसाद यादव ने उन्हें राजनीति में आगे बढ़ाया है. शायद यही बात अखिलेश प्रसाद सिंह के विरुद्ध चली गई.

कार्यकाल समाप्ति से पहले क्यों हटाए गए अखिलेश सिंह?

दरअसल, वर्ष 2022 के दिसंबर महीने में अखिलेश प्रसाद सिंह को कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था. कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष का कार्यकाल तीन साल का होता है. ऐसे में कायदे से अखिलेश प्रसाद सिंह का कार्यकाल दिसंबर 2025 में समाप्त होना था, लेकिन बीच में ही कांग्रेस ने नेतृत्व परिवर्तन कर दिया. सियासत के जानकार इसको यहां से भी जोड़ रहे हैं कि बिहार कांग्रेस का प्रभारी बनाए जाने के बाद कृष्णा अल्लावरु और कांग्रेस के अन्य प्रभारी ने राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव से मुलाकात नहीं की है. इसी बीच कांग्रेस को लेकर राहुल गांधी ने नया दांव चला और कन्हैया कुमार (सवर्ण चेहरा) को ‘नौकरी दो, पलायन रोको यात्रा’ का चेहरा बनाकर लालू प्रसाद यादव और अखिलेश प्रसाद सिंह दोनों को असहज कर दिया.

क्या राजद की बैशाखी छोड़ पाने की हिम्मत दिखाएगी कांग्रेस?

जानकार कहते हैं कि इसके पीछे की वजह यह है कि लालू प्रसाद यादव यह कभी नहीं चाहते हैं कि कन्हैया कुमार बिहार की राजनीति में आगे बढ़ें क्योंकि कांग्रेस का युवा चेहरा होने के नाते वह तेजस्वी यादव के लिए चुनौती साबित हो सकते हैं. वहीं, अखिलेश प्रसाद सिंह भी कन्हैया कुमार को लेकर बहुत सहज कभी नहीं रहे हैं और यह बात कांग्रेस की बिहार यात्रा में भी देखी गई है जब अखिलेश सिंह इस यात्रा से मोटे तौर पर अलग ही रह रहे हैं. अशोक कुमार शर्मा कहते हैं कि वर्ष 1989 के भागलपुर दंगे के बाद वर्ष 1990 के से कांग्रेस का पतन शुरू हुआ तो होता ही गया. दूसरी ओर मुस्लिम और दलित वोटों पर राजद ने कब्जा कर सत्ता में पकड़ मज़बूत बना ली और कांग्रेस के जनाधार हड़प लिया. पार्टी की स्थिति ये हो गई कि वर्ष 2010 में अकेले लती कांग्रेस को केवल चार सीट मिली थी. फिर वह राजद का बैशाखी के आसरे ही आगे बढ़ती रही और आज तक वह बैशाखी नहीं छोड़ पाई.

अखिलेश सिंह की लालू यादव से नजदीकी से कांग्रेस असहज थी?

अब जब राजनीति का दौर बदला है और केंद्र में बीजेपी मजबूत है और प्रदेश में जदयू और बीजेपी की संयुक्त ताकत है तो कांग्रेस नए तेवर के साथ बढ़ाना चाहती है और अपने जनाधार को मजबूत करना चाहती है. ऐसे में अखिलेश प्रसाद सिंह और लालू यादव की नजदीकी कांग्रेस के बढ़ने में एक बड़ी बाधा मानी जा रही थी.

जाहिर तौर पर पार्टी ने अगर इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए फैसला किया होगा तो आने वाले समय में बिहार की राजनीति की दिशा बदलती दिख सकती है. हालांकि, इसका राजनीतिक लाभ कांग्रेस कितना उठा पाएगी इसका उत्तर अभी भविष्य के गर्भ में है. लेकिन, जिस तरह की तस्वीर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और वर्तमान अध्यक्ष की आई है वह पार्टी के भीतरखाने की असहजता को भी बयां करती है.

कांग्रेस में जो बाहर दिखता है क्या अंदरखाने भी वही है?

यहां यह भी बता दें कि बिहार प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटाए जाने के दो दिन बाद अखिलेश प्रसाद सिंह ने गुरुवार (20 मार्च) को राहुल गांधी से मुलाकात की थी और अपनी नाराजगी की खबरों का खंडन किया था. वहीं, शाम के वक्त नए प्रदेश अध्यक्ष राजेश राम ने अखिलेश सिंह से मुलाकात कर एकजुटता का संदेश देने की कोशिश की थी. इसके बाद रविवार (23 मार्च) को जब राजेश कुमार ने बिहार प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का पदभार संभाला तो निवर्तमान प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश सिंह मौजूद रहे. राजेश कुमार ने अखिलेश सिंह से ही पदभार का प्रभार लिया. इस दौरान कांग्रेस बिहार प्रभारी कृष्ण अल्लावरू भी थे. इस मौके पर राजेश कुमार कहा सबके साथ मिलकर कम समय में अधिक काम करना है. वहीं, अखिलेश सिंह ने कहा कि नये अध्यक्ष के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव के लिए तय लक्ष्य को पूरा कर लिया जायेगा.

बिहार में दलित चेहरे को आगे करने से कांग्रेस को बहुत फायदा हो जाएगा ऐसा नहीं है, क्योंकि इसके पहले भी कई कांग्रेस के अध्यक्ष दलित रहे हैं. इसको आप ऐसे समझ सकते हैं कि पार्टी का संगठन तास के 52 पत्तों की तरह होता है, जिसे पार्टी समय-समय पर फेंटते रहती है. कभी गुलाम तो कभी बादशाह, कभी बीवी तो कभी इक्का को आगे किया जाता है. दलित चेहरे की सियासत से बहुत कुछ कांग्रेस प्राप्त कर पाएगी, ऐसा सोचना समय के अनुकूल नहीं है, क्योंकि जब तक महागठबंधन में कांग्रेस रहेगी और जब तक राजद का वर्चस्व रहेगा तो कांग्रेस का कोई भी अध्यक्ष हो, कुछ नहीं होगा. अब अगर कांग्रेस की प्लानिंग यह है कि वह राजद के चंगुल से निकलना चाहती है, तब तो इस दिशा में यह कदम सही कहा भी जा सकता है. लेकिन, क्या पार्टी के अंदरखाने अखिलेश सिंह को हटाए जाने से और दलित चेहरा को आगे ले आने से कांग्रेस के भीतर भी सब ठीक ही रहेगा, सवाल बड़ा है.

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