Bihar Election 2025: विकास, बदलाव या जाति-समाज, 20 साल में कितना बदला बिहार का मिजाज ?

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में एक बार फिर से बदलाव और नया बिहार बनाने का नारा बुलंद हुआ है. एनडीए और महागठबंधन- दोनों तरफ से विकास के नारे लगाए जा रहे हैं. अलबत्ता साल 2005 में नीतीश कुमार जब सत्ता में आए थे तब भी विकास और बदलाव के नारे बुलंद हुए थे. तो क्या 20 साल बाद भी बिहार वहीं खड़ा है, जहां से चला था?

बिहार में विकास, रोजगार, जाति और पलायन का मुद्दा नया नहीं है. यह सालों पुराना है. पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की सत्ता के विरोध में ये मुद्दे बड़े जोर-शोर से उठाए गए थे. 1997 में लालू यादव को चारा घोटाला के आरोपों में जैसे ही गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया और राबड़ी देवी प्रदेश की मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठीं, ये मुद्दे और गरमाने लगे. नब्बे के दशक में बिहार से सबसे अधिक पलायन हुआ था. यह समय लालू यादव के नाम दर्ज है. हालांकि साल 2000 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी को सत्ता से तो हटाया नहीं जा सका लेकिन विकास, रोजगार और पलायन के मुद्दे इतने गंभीर होते गए कि नीतीश कुमार की अगुवाई में बदलाव और नया बिहार का नारा खूब तेजी से बुलंद हुआ जोकि मौजूदा चुनाव तक जारी है.

नीतीश कुमार और बीजेपी के संघर्ष का नतीजा 2005 में देखने को मिला. इस साल अक्टूबर में बिहार में सरकार बदल गई. एनडीए जीती. नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने. जिसके बाद प्रदेश के आकाश में विकास और सुशासन नाम की उम्मीद की दो नई किरणें चमकीं. यानी विकास और बदलाव का नारा भी यहां करीब बीस साल से चल रहा है. लेकिन जब मौका 2025 के चुनाव का आया तो बिहार में एक बार फिर से विकास, रोजगार, जाति और पलायन का ही मुद्दा सबसे गरम है. महागठबंधन विपक्ष में है और राहुल, तेजस्वी के अलावा जन सुराज के प्रशांत किशोर भी परिवर्तन का नारा लगा रहे हैं.

बिहार अब 25 साल पहले वाला प्रदेश नहीं

यकीन मानिए आज का बिहार तकरीबन पच्चीस साल पहले वाला प्रदेश नहीं रहा. देश-दुनिया की तरह यहां भी बहुत कुछ बदल चुका है. पगडंडी पक्की रोड में बदल चुकी है, गांवों में जलने वाले मिट्टी तेल के दीये की जगह एलईडी बल्ब रोशन हो रहे हैं, काठ के पुल ओवरब्रिज में तब्दील हो चुके हैं तो वहीं नब्बे के दशक में जो लोग बिहार से पलायन कर गए थे, वहां नई पीढ़ी का विजन बदल चुका है. जब- जब छठ पर्व जैसे त्योहारों में अपने शहर-गांव जाते हैं, वैसा ही बिहार बनाने की तमन्ना लिये आते हैं जैसी बाहर की दुनिया देखी है. दिल्ली, मुबई, सूरत, चंडीगढ़, पुणे, बेंगलुरू से गांव जाने वाले लोग कभी नहीं चाहते कि उनका बिहार बीस साल पहले जैसा ही दिखे.

पच्चीस साल पहले बिहार की राजनीति के एक बड़े चेहरे थे- रामविलास पासवान, जिनके बेटे चिराग पासवान की राजनीति और भाषा का मिजाज एकदम अलग है. बिहार के एक बड़े वर्ग के युवाओं की पसंद हैं. चिराग भी बिहार के विकास और बदलाव के लिए बेकरार हैं.

विकास-रोजगार के मुद्दे ने जाति को धकेला

जिस बिहार के चुनावों में अब तक जाति फैक्टर एक मजबूत वोट बैंक रहा है, वहां विकास और बदलाव के लिए नई पीढ़ी ने इस मुद्दे को प्राथमिकता के दूसरे नंबर पर रख दिया. संयोगवश बिहार विधानसभा चुनाव का समय 2005 से छठ पर्व के आस-पास होने लगा है और बिहार की बाहरी नई पीढ़ी पिछले बीस साल से बदलाव के लिए वोट करती रही है. 2010, 2015 और 2020 के विधानसभा चुनाव में बिहार के युवा और जागरुक मतदाताओं ने विकास के सपने को साकार करने के लिए जाति से ऊपर उठकर वोट किया है. अब जबकि बिहार में फिर से विकास और बदलाव के नारे लगाए जा रहे हैं, तो प्रदेश के अंदर और प्रदेश के बाहर की नई पीढ़ी की भूमिका प्रबल हो जाती है.

वैसे इसमें कोई दो राय नहीं कि बिहार के चुनावों में जाति एक अहम फैक्टर है. चुनावी राजनीति में जातीय समीकरण का अपना इतिहास है. सामाजिक संरचना ही जातिवादी ढांचे की है. सामाजिक सुरक्षा की भावना से इसका असर यहां कुछ ज्यादा ही दिखता है. बिहार में भारी संख्या में स्थानीय मतदाता अब भी जातीय आधार पर वोट करना पसंद करते हैं. 2025 के विधानसभा चुनाव में हर दल एक बार फिर से जातीय फैक्टर वाले पुराने मसाले के आधार पर उम्मीदवार उतार रहे हैं. प्रशांत किशोर प्रदेश में नई तरह की राजनीति करने का दावा करते हैं लेकिन क्षेत्र के हिसाब से उम्मीदवारों के चयन की बात सामने आती है तो सामाजिक ढांचे में जाति के अस्तित्व को खारिज नहीं कर पाते.

नीतीश-लालू का जातीय वोट बैंक

लालू प्रसाद की पार्टी आरजेडी का आधार आज भी एमवाय यानी मुस्लिम-यादव वोट बैंक का समीकरण है तो नीतीश कुमार का वोट बैंक मध्य बिहार के जिलों में अब भी बना हुआ है. लेकिन पिछले दो-ढाई दशक के दौरान बिहार में जाति को लेकर भी सोच में बड़ा बदवाल आया है. नई पीढ़ी में एक बड़ा तबका शिक्षा और रोजगार के मुद्दे को जाति से ऊपर देखता है. अंतर्जातीय विवाह का प्रचलन भी बढ़ा है. हालांकि इसकी संख्या ज्यादा नहीं है लेकिन इन जोड़ों में जीवनयापान को लेकर परंपरा से हटकर जागरुकता देखी जा रही है. घर परिवार की खुशहाली इनकी पहली प्राथमिकता हो गई है.

नई पीढ़ी के नए मिजाज से किसे फायदा?

बिहार की नई पीढ़ी का मिजाज आज से पच्चीस साल पहले वाला नहीं है. सभी अपना-अपना उत्थान चाहते हैं. जीवन को सुखद और सरल बनाना चाहते हैं. ऊंची शिक्षा हासिल करना चाहते हैं. रोजगार संपन्न होना चाहते हैं, आर्थिक तौर पर खुद को सुरक्षित करना चाहते हैं. अपने आस-पास के गांव और शहर को वैसा ही देखना चाहते हैं जैसा कि देश के दूसरे विकसित राज्यों के शहर और गांव उन्हें दिखाई देते हैं. जाहिर है इसके लिए नई और जागरुक पीढ़ी जाति की परंपरागत सोच और ढांचे से दूर होकर वोट करने लगे हैं. पिछले चार चुनावों में यह स्पष्ट तौर पर दिखा है. अब 2025 में यही ट्रेंड कायम रहता है तो देखना होगा बदले मिजाज का फायदा किस गठबंधन को ज्यादा होता है. खुलासा 14 नवंबर को हो सकेगा.

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