मंदी की दस्‍तक, नौकरियों के छिनने का खतरा, लीपापोती की जगह जरूरत कड़े कदमों की

भारतीय अर्थव्यवस्था पूरी तरह से मंदी की जकड़न में है। यह एक ऐसा सच है जिसे बहुत मुखर और आशावादी लोग भी अब हिचकिचाहट के साथ स्वीकार कर रहे हैं। मैक्रो और माइक्रो लेवल पर हमारी अर्थव्यवस्था को कई तरीके की चुनौतियां पेश हो रही हैं जो इस मंदी को और धार दे रही हैं। इस विकट स्थिति को समझने के लिए हमारे सामने प्रमाण भी मौजूद हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था के 18 मैक्रो संकेतकों में से 11 पिछले पांच साल के औसत से नीचे हैं। ये हमारे लिए चिंता की बात है। निराशा पैदा करने वाले ये संकेतक समग्र उपभोक्ता क्षेत्र के साथ समान रूप से उद्योग को भी प्रभावित कर रहे हैं। मूलभूत संकेतकों में से एक मांग और आपूर्ति में गिरावट देखी जा रही है।

आर्थिक विकास को बढ़ाने वाले चार संकेतक निजी निवेश, सरकारी खर्च, घरेलू उपभोग और निर्यात भी निढाल पड़े हुए हैं। हतोत्साहित करने वाली उपभोक्ता मांग, सुस्त होता कारोबार, तरलता की कमी और मुरझाया निवेश इस आर्थिक मंदी के कारक और असर दोनों हैं। जीडीपी के 60 फीसद हिस्सेदारी वाली कम खपत स्पष्ट बताती है कि बाजार में मांग बिल्कुल नहीं है। इस मांग को पुनर्जीवित करना बहुत जरूरी है। भारतीय अर्थव्यवस्था का ध्वजवाहक क्षेत्र रियल इस्टेट जो करीब 300 छोटे-बड़े उद्योगों से मिलकर बनता है, आज मरणासन्न है। देश की अर्थव्यवस्था के पहिए को तेजी से चलाने के लिए जिम्मेदार कारक निवेश खुद ही खस्ताहाल है। अंतरराष्ट्रीय सुस्ती भारत की कोई मदद नहीं कर पा रही है।

संरक्षणवाद की हिमायती बड़ी अर्थव्यवस्थाएं खुद ही ट्रेड वार छेड़े हुए हैं। लचीले रुख के साथ भी बहुत सारे कदम उठाने की जरूरत है। अर्थव्यवस्था को नया रूप देने में हमारी परख, डिजायन और डिलीवर की क्षमता हमारे प्रमुख हथियार होने चाहिए। प्रचलित श्रम कानूनों, जटिल टैक्स प्रणाली और नौकरशाही की बाधाएं प्रतिस्पर्धा को क्षीण करती हैं। मुद्रा के अवमूल्यन पर उठाए जाने वाले हमारे कदम अपर्याप्त साबित होते हैं। इंफ्रास्ट्रक्चर इन सबके बीच सफेद हाथी साबित होता है। न्यायिक और प्रशासनिक सुधार बहुत जरूरी है जिससे टिकाऊ विकास के लिए कानूनी प्रक्रियाओं और अड़चनों को दूर किया जा सके।

परंपरागत सोच-समझ के विपरीत और विरोधाभास से भरे कुछ अर्थशास्त्रियों के तर्क हैं कि जीएसटी, नोटबंदी, डिजिटलीकरण, बैंकिंग, कारोबार को सुव्यवस्थित करने जैसे संरचनात्मक सुधारों ने पूंजी को सोख लिया और निवेश को कमजोर कर दिया लिहाजा अर्थव्यवस्था की सुस्ती का दौर शुरू हुआ। ग्रोथ को बढ़ाने वाले उपायों के लिए अक्सर एहतियात बरतने की जरूरत होती है। श्रमसाध्य नियामक सुधार विध्वंसक भी साबित होते हैं। इतिहास बताता है कि संरचनागत सुधारों के कुछ तिमाही के बाद अर्थव्यवस्था को लाभ मिलना शुरू होता है जबकि कुछ और समय लगता है जब वे लाभ दिखने भी लगते हैं।

संरचनागत सुधार कारोबार की सुगमता को बढ़ाते हैं और मूल्यों में वृद्धि करते हैं फिर भी उनका लाभ बहुत असर नहीं दिखा पाता। विकासशील अर्थव्यवस्था में सरकार उद्योगों की भागीदार होती है। ग्रोथ नीतियों में मांग और आपूर्ति के पक्षों के बीच संतुलन साधने की जरूरत होती है। असंतुलित बाजार ताकत में मुक्त बाजार अक्सर गलत नतीजे देते हैं। अंतत: उनका नतीजा प्रतिकूल निकलता है। लिहाजा विनियमन एकमात्र समाधान नहीं है। मैन्युफैक्र्चंरग क्षेत्र नई उम्मीद जगाता है। वैश्विक मैन्युफैक्र्चंरग क्षेत्र में हमारी हिस्सेदारी नाममात्र दो फीसद की है। एक शोध के अनुसार हर एक फीसद मैन्युफैक्र्चंरग हिस्सेदारी में वृद्धि 50 लाख रोजगार में वृद्धि करता है।

हमारा सिस्टम नए उद्यम और उद्यमियों को प्रोत्साहन देने वाला होना चाहिए। ये लोग जॉब क्रिएटर्स (रोजगार सृजक) होते हैं और किसी अर्थव्यवस्था की धुरी कहलाते हैं। इसी तरह ग्रामीण इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश, समानुपातिक भू अधिग्रहण और बेहतर खेती-किसानी टिकाऊ कारोबारी माहौल तैयार करते हैं। इससे समानुपातिक वृद्धि होती है और 15 गुना ज्यादा लाभ अर्थव्यवस्था को मिलता है। इन सबके बीच मध्य वर्ग को नहीं भूलना चाहिए। जिनके वोटों के बूते सरकारें राज करती हैं, उनके बटुए की चिंता स्वाभाविक होनी चाहिए।

सरकार की अकर्मण्यता से नौकरियों के छिनने का खतरा पैदा होता है जिससे सामाजिक अशांति पनपती है और लिहाजा सरकार को उसकी कीमत चुकानी होती है। किसी अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए सर्जरी के साथ विजन की बहुत दरकार होती है। दोनों कदम समान रूप से उठाए जाने चाहिए। एक कदम से खालीपन को भरा जाना चाहिए तो दूसरे का इस्तेमाल उससे बाहर निकलने में करना चाहिए। हमारे दूरदर्शी प्रधानमंत्री को किसी ऐसे ही प्लंबर पर भरोसा करना चाहिए जो अर्थव्यवस्था की दिक्कतों को दूर कर सके।

नौ फीसद विकास दर के लिए अर्थव्यवस्था में बड़े और निर्णायक सुधार की दरकार है। यह अर्थव्यवस्था के उस चरम बिंदु (इनफ्लेक्शन प्वाइंट) तक जरूरी है जिसमें वह इतना कमाई और बचत करने में सक्षम होती है जो सामाजिक खर्चे के लिए पर्याप्त होता है। इस तरीके से ही गरीबी का खात्मा होता है और समाज के लोग सम्मान की जिंदगी जीने में सक्षम होते हैं। हमारी अर्थव्यवस्था बुरे दौर से गुजर रही है। अब इसमें उम्मीद की लौ तभी प्रदीप्त होगी जब सरकार इसमें बड़े पैमाने पर वित्त को डाले। अर्थव्यवस्था में सरकार के खर्च की हिस्सेदारी करीब 12 फीसद है। इस खर्च में वृद्धि के मायने उसे अधिक धन एकत्र की जरूरत होगी जो कि सुस्त होती इस अर्थव्यवस्था में संभव नहीं दिखता।

Leave a Comment

Your email address will not be published.

बिहार के इन 2 हजार लोगों का धर्म क्या है? विश्व का सबसे अमीर क्रिकेट बोर्ड कौन सा है? दंतेवाड़ा एक बार फिर नक्सली हमले से दहल उठा SATISH KAUSHIK PASSES AWAY: हंसाते हंसाते रुला गए सतीश, हृदयगति रुकने से हुआ निधन India beat new Zealand 3-0. भारत ने किया कीवियों का सूपड़ा साफ, बने नम्बर 1