नक्सलवाद और बच्चों का भविष्य

”झारखण्ड से उग्रवाद एक साल में समाप्त हो जायेगा” डीजीपी ने ऐसा दावा किया है। काश ऐसा हो. 05 चरण के चुनावी प्रक्रिया में चुनाव की आपा-धापी के बीच नक्सलवाद के विमर्श को पुनर्जीवित कर दिया। एक पुराना बयान ‘मुठभेड़ चल रही थी, तो बच्चे वहां क्या कर रहे थे?’ भी प्रकाशमय हो गया। पुलिस अधिकारी के वाजिब सवाल पर अनेक सवालों को भी जन्म देने वाला है। ”पहले मैं आवाज (गोली की) से डरता था, परन्तु धीरे-धीरे मैं इसका आदी हो गया और खून मेरे लिए डर का कारण बन गया। कुछ समय बाद यह भी सामान्य बात हो गयी और मैं ‘लाश’ से डरने लगा। परन्तु समय के साथ-साथ लाश भी मेरे जीवन का हिस्सा बन गया। अब डर लगता है तो सिर्फ इससे कि दूसरों की तरह मैं भी बंदूक उठाने के लिए मजबूर न कर दिया जाऊं।’’

बारूहातु बुण्डु निवासी 15 वर्षीय करमा (नाम परिवर्तित) बोलते-बोलते रूक गया। परन्तु उसके चेहरे ने उसके मनोभाव को प्रकट कर दिया था। हिंसाग्रस्त क्षेत्र में बच्चों के शैक्षणिक स्थिति में मेरे द्वारा ही किए गए अध्ययन का यह अंश भी बरबस याद आ गया।

सभी बच्चों को, वे जहां भी हैं घर, विद्यालय, सड़क, रेलवे प्लेटफॉर्म, गांव या शहरों में संरक्षण की आवश्यकता है। आपातकालीन परिस्थितियों जैसे आगजनी, भगदड़, संघर्ष, दुर्घटना आदि में संरक्षण की आवश्यकता काफी बढ़ जाती है।

नक्सलवाद और बच्चों का भविष्य
झारखण्ड में नक्सली हिंसा से ग्रसित क्षेत्रों में संरक्षण व सुरक्षा की विशेष आवश्यकता है ताकि बच्चे करमा जैसा न बनें।

दबे स्वर में ही सही ग्रामीणों ने स्वीकार किया कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में बच्चों का इस्तेमाल सूचना के आदान-प्रदान, हथियारों के वाहक आदि के रुप में किया जा रहा है।

कुछ वर्ष पूर्व गुमला जिले में 26 बच्चों को भयपूर्वक नक्सली दल में शामिल करने कि खबर सुर्खियों में थी। स्थिती स्पष्ट है – न तो अभिभावक बच्चों को अपनी मर्जी से भेजते हैं और न ही बच्चे अपनी मर्जी से जाते हैं।

कुछ किशोर लोभ, भ्रम एवं जाल में फंस कर हिंसक गतिविधियों में शामिल हो जाते हैं, पर सब परिस्थिति के मारे हैं और परिस्थिति निर्माण समाज तथा सरकार का दायित्व है।

सोलामी को अगर उसकी फूआ ने दिल्ली में बेच दिया तो 8 वर्षीय बबीता अपने ही रिश्तेदार के हवस का शिकार बन गयी। नशे की लत ने जीवन को मोटरसाईकिल चोरी की ओर ढ़केल दिया, तो जयन्ती ने मार के भय से विद्यालय जाना छोड़ दिया। मूक-बधिर बच्चे अधिकार की मांग करने के कारण पीटे गये तो… बच्चे दुर्घटना में मारे गये।

ये घटनायें हमें जानी-पहचानी लगती हैं, अपने आस-पास घटित लगती हैं, हम पढ़ते हैं, सुनते हैं, गुस्सा करते हैं, गालियां देते हैं, कोसते हैं… पर क्या यह पर्याप्त है? चुनाव के कोलाहल और वादों की सुनामी में भी ये मुद्दे अनछुए ही हैं।

ठंड में कांपता पीटर, घर में काम करने वाली पूजा, होटल का छोटू, फटे गंदे कपड़ों में मंगरा, कुड़ा बीनती कर्मी, गाड़ी साफ करने वाला बबलू, उचित इलाज के लिये तड़पता राजू या छोटे से अपराध के लिये बुरी तरह पिटता मोहन क्या हमारे और आपके आस-पास नजर नहीं आते? अगर हां तो हम करते क्या हैं? परिस्थिति सिर्फ सोचने व बोलने से नहीं बदलती, बदलाव के लिये कुछ करना पड़ता है।


बच्चों को सुरक्षित वातावरण मिलें

उन्हें सभी प्रकार के उत्पीड़न, हिंसा, शोषण, उपेक्षा, दुर्व्यवहार आदि से छुटकारा मिले.
गुणवत्ता रहित व अमानवीय शिक्षा व स्वास्थ्य सेवा समाप्त हो।
बाल अपराध में लिप्त बच्चों को उचित मार्गदर्शन व त्वरित न्याय मिल सके।
दिव्यांग बच्चों सहित सभी बच्चों के अधिकारों का संरक्षण हो।
समाज के ये ज्वलंत मुद्दे भी राजनीतिक विमर्श का हिस्सा बनें।

बाल संरक्षण के लिए अनेक नीतियां, कानून एवं योजनाएं वर्षो से हैं, पर धरातल में कुछ ही है, जो अपर्याप्त हैं। अनेक योजना क्रियान्वयन की बाट जोह रहे हैं। अधिकतर स्वैच्छिक संस्था भी अपने अस्तित्व के संरक्षण में संघर्षरत हैं। टिमटिमाते प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। सामाजिक भागीदारी एवं राजनीतिक चेतना के बिना बच्चों का संरक्षण संभव नहीं।

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