पलायन को मजबूर हर मजदूर का दर्द और सामाजिक-आर्थिक पहलू का मकड़जाल

कोरोना काल चालू है। अभी इसका चरम आना बाकी है। इस स्वास्थ्य आपदा ने देश के उस विभस्त स्वरुप को दिखाया है जो दुनिया में सबसे ज्यादा यहीं है। इंडिया और हिंदुस्तान के बीच खाई। पलायन की सबसे बड़ी वजह। हिंदुस्तान आज सड़कों पर है, सिसक रहा है, उसके आंसू कलेजा छलनी कर दे रहा है, उसे अपने गांव की देहरी खींच रही है। वहीँ दूसरी तरफ रो तो इंडिया भी रहा है, लेकिन मन ही मन। खुशहाल कोई नहीं है। आखिर भारत में ही इतने व्यापक स्तर पर पलायन की तस्वीर कैसे उभरी, इसे जानने के लिए हमें देश के सामाजिक-आर्थिक पहलू को जानना होगा। इस देश में दो रूप दिखाई देते हैं। ग्रामीण तबके को हिंदुस्तान के नाम से जाना जाता है जहां इसकी आत्मा बसती है। गगनचुंबी इमारतों से सजे-सजे शहर इंडिया के प्रतीक कहलाते हैं। आइए, हिंदुस्तान और इंडिया के इन कथित रूपों का फर्क देखते हैं।

पलायन की तस्वीर भयावह के साथ बहुत बड़ी है, लेकिन इसका कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। जहां तथ्य न हों, वहां अंदाजा लगाना ही श्रेयस्कर है। कोरोना के चलते शहरों से गांव में पहुंचने वालों की संख्या अर्थशास्त्रियों-समाजशास्त्रियों के अनुसार 2.30 करोड़ है। सरकारी आंकड़ों यानी 2011 की जनगणना के मुताबिक राज्यों के गांवों से विभिन्न राज्यों के शहरों में काम की तलाश में पहुंचने वालों की संख्या 1.78 करोड़ है। 2001 से 2011 तक ग्रामीण इलाकों से शहरों को जाने वाले कामगारों की संख्या में 2.8 फीसद की सालाना वृद्धि हुई। इस आधार पर लाकडाउन में करीब 2.3 करोड़ लोगों के गांव लौटने का अनुमान लगाया है।

जिन प्रदेशों में मजदूरों के पसीने से विकास की खुशबू फैली, उसे छोड़ते हुए उन्हें भी अच्छा नहीं लग रहा और प्रदेश को भी चिंता खाए जा रही कि अब हमारा क्या होगा। इनके बूते ही हमारी सुबह, दोपहर और शाम खुशनुमा होती थी। नियति का चक्र छलनी जैसा कुछ ऐसा चला, कि इंडिया में बेकाम हो चुके हिंदुस्तान का गृह पलायन जारी है। विपदा की इस घड़ी में लोगों के दुख-तकलीफ और आंसुओं के सैलाब को देखते हुए नीति-नियंता भी अपने उस पुराने रुख पर कायम न रह सके जिसमें ‘जो जहां है, वहीं रहे’ की बात कही गई थी। अब कामगारों का यह पलायन स्वास्थ्य विशेषज्ञों और समाजशास्त्रियों द्वारा देश के लिए दोधारी तलवार बताया जा रहा है। अभी महामारी का प्रकोप मुख्यत: महानगरों में है।

दिल्ली में जनसंख्या घनत्व 11 हजार से अधिक है जबकि मुंबई जैसे महानगर में यह आंकड़ा 33 हजार को पार करता है। देश के ऐसे जिले जहां ग्रामीण आबादी अधिसंख्य में रहती है, उसका औसत इनसे कई गुना कम है। उत्तर प्रदेश के अयोध्या जिले में जनसंख्या घनत्व एक हजार से कम है। इससे सटे सुल्तानपुर का यह आंकड़ा 800 के करीब है। इस तथ्य को देखते हुए एक उम्मीद यह जगती है कि जब महानगरों से लोग कम होकर गांवों में जाएंगे तो दोनों जगहों पर शारीरिक दूरी को ज्यादा प्रभावी तरीके से लागू किया जा सकता है। गांवों में अपने अपने कामों में व्यस्त लोग एक तरीके से क्वारंटाइन में ही रहते हैं।

प्रकृति के बीच और ताजा चीजें खाने के चलते उनकी प्रतिरक्षा ज्यादा सुदृढ़ हैं, लेकिन कुछ खामियां उसे दोधारी तलवार भी बनने की आशंका खड़ी कर देती है। मसलन गांवों में स्वास्थ्य का जर्जर बुनियादी ढ़ाचा, संसाधनों की कमी, जागरूकता का अभाव और कुपोषितों के बड़े तबके के साथ ही प्राधिकारी संस्थाओं द्वारा उपयुक्त नियमन की दिक्कत किसी अनहोनी की आहट देते हैं। ऐसे में महामारी से स्वस्थ होने की उच्चतम दर, प्रति दस लाख पर होने वाली न्यूनतम मौतों के बीच पलायन के इस प्रवृत्ति के असर की पड़ताल आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है। रोजी-रोटी की तलाश में शहरों में आए इन मजदूरों को अपने वतन की याद सताने लगी। उन्हें विश्वास है कि भले ही वतन में रोजी न मिले, लेकिन रोटी का संकट नहीं होगा।

देश के कुल सकल घरेलू उत्पाद में भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था की हिस्सेदारी 48% है, लेकिन ग्रामीण अर्थव्यवस्था देश की 70% आबादी की पालनहार है। कम संसाधनों पर ज्यादा लोगों के लगे होने का विद्रुप दिखता है। कई विशेषज्ञ इसे छद्म रोजगार की स्थिति भी कहते हैं। तभी तमाम अर्थशास्त्री कृषि में लगी बड़ी और गैरजरूरी आबादी को दूसरे क्षेत्रों से जोड़े जाने की बात करते हैं। ऐसे में शहरों से ग्रामीण क्षेत्र पहुंच रही ज्यादातर आबादी अगर कृषि कार्यों से ही जुड़ती है तो यह समस्या और विकराल होगी।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था के क्षेत्र व हिस्सेदारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की कृषि रीढ़ बनी हुई है। इसमें सिर्फ इसी सेक्टर का 38.7% योगदान है। 1970-71 में यह हिस्सेदारी 72.4% थी। कृषि में जरूरत से ज्यादा श्रम लगा हुआ है। भारतीय रिजर्व बैंक के एक अध्ययन के अनुसार कृषि क्षेत्र में एक फीसद की विकास दर रोजगार में 0.04% की ही वृद्धि कर पाती है यानी रोजगार में एक फीसद की वृद्धि के लिए इस क्षेत्र को 25% की दर से विकास करना होगा। जो कि अकल्पनीय लक्ष्य है।

2005 से 2012 के बीच औसतन 15% से बढ़ने वाला मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र वापस लौट रहे कामगारों को समायोजित करने में बहुत सक्षम नहीं दिखता। नीति आयोग के अनुसार इस अवधि के दौरान रोजगार में इस क्षेत्र की हिस्सेदारी 8-8.5% रही। अत: रोजगार हिस्सेदारी में एक फीसद इजाफे के लिए इस क्षेत्र को 11% की दर से बढ़ना होगा। निर्माण क्षेत्र में जरूर एक फीसद विकास 1.13% अतिरिक्त रोजगार सृजित कर सकता है।

2017-18 के आंकड़ों के अनुसार करीब एक तिहाई ग्रामीण आबादी रोजगार के लिए उपलब्ध है या काम कर रही है। जो लोग काम कर रहे हैं उनका 5.8% लोग लंबे समय तक बेरोजगार रहते हैं। 4.6 फीसद% को ही नियमित वेतन नसीब होता है

जिन राज्यों से दूसरे शहरों को जाने वालों की जितनी अधिक संख्या है, वहां बेरोजगारी उतनी ही अधिक है। इसलिए उन कामगारों के वापस लौटने की दिशा में उनका समायोजन बड़ी कठिनाई का सबब है। कुल अंतरराज्यीय प्रवासियों में 23% उत्तर प्रदेश और 14% बिहार से है। ग्रामीण बेरोजगारी में उ.प्र की हिस्सेदारी 15 और बिहार की 10% है। ग्रामीण गरीबी में भी ये दोनों राज्य सभी का कान काटे हुए हैं। दोनों में देश की 37% गरीब आबादी रहती है।

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