‘क्यों पहले से ही तय लग रहे हैं बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे?’

बिहार में कोरोना का क़हर जारी है कोई नहीं जानता कि आने वाले दिनो में, इस बीमारी का क्या स्वरूप होगा। बजाय इसके चुनाव की तैयारी में NDA सुनियोजित तरीक़े से लग गया है। क्योंकि इस बात का भरोसा है कि चुनाव आयोग सही समय पर चुनाव कराएगा। वहीं विपक्ष में भी सरगर्मी तो दिख रही हैं लेकिन सब कुछ बिखरा बिखरा है। अगर आप गौर से देखेंगे तो चुनाव के नतीजे साफ़ दिख रहे है कि जो जहां हैं वो वहीं रहेगा। मतलब CM का ताज नीतीश कुमार के सर पर तो विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव को इंतज़ार अभी और करना होगा।

लेकिन सवाल यह है कि कोरोना काल में ऐसा क्या हो गया जिससे परिणाम इतने साफ़ नज़र आ रहे हैं। इसके लिए आपको पिछले हफ्ते की बिहार की राजनीति में जो कुछ घटनाक्रम हुआ उसको ध्यान से समझना होगा। पहला रविवार को विश्व योग दिवस था और इस साल लोगों को लग रहा था कि CM नीतीश कुमार अपना योग करते हुए फ़ोटो या विडियो जारी करेंगे। उनका मानना है कि ये घर में नियमित करने की चीज है। जिसका सार्वजनिक प्रदर्शन करने में वो सहज नही हैं। यही कारन रहा कि रविवार को सुशील मोदी से रविशंकर प्रसाद से लेकर रामविलास पासवान तक ने अपने विडियो जारी किए लेकिन न तो नीतीश और न उनके नज़दीकी नेताओं जैसे सांसद आरसीपी सिंह, ललन सिंह, मंत्री संजय झा या अशोक चौधरी ने अपना कोई विडियो सार्वजनिक किया।

इसका संदेश साफ़ था कि नीतीश फ़िलहाल चुनावी वर्ष में भी योग के ऊपर अपने पुराने रुख पर कायम हैं। BJP के नेता मानते हैं कि नीतीश ज़िद्दी हैं और हर दिन वो स्टैंड बदलने से रहे। इस आधार पर आप कह सकते हैं कि सीटों के समझौते में भी नीतीश अपने मनमुताबिक सीट और उसकी संख्या लेने में फिर कामयाब होंगे।

कोरोना संक्रमण के बाद राष्ट्रीय स्तर पर नीतीश कुमार की तीन कारणों से बड़ी फ़ज़ीहत हुई यह पहला कोटा से छात्रों को लाने में जो आनाकानी की, इसके बाद जब श्रमिक विशेष ट्रेनें चलनी शुरू हुई तो बिहार आने वाले ट्रेनों का किराया देने से मुकर गए। और तीसरे यह कि उनके सारे दावों की पोल उस समय खुल गई जब कोरोना के टेस्टिंग के मामले में उन्होंने ख़ासकर उनके स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे ने दावा किया था कि 20 जून तक दस हज़ार तक टेस्टिंग क्षमता बिहार में हो जाएगी। वैसा कुछ हुआ नहीं।

इन सभी घटनाक्रम से नीतीश कुमार की राष्ट्रीय स्तर पर बनी ‘सुशासन बाबू’ की छवि धूमिल हुई। लेकिन अब ये सब कोई ख़ास मायने इसलिए नहीं रखता क्योंकि उन्होंने अपने जीवन कि एक बड़ी महत्वाकांक्षा प्रधानमंत्री बनने का तीन वर्ष पूर्व ही त्याग दिया था जिसके बाद उन्होंने BJP से पुनः हाथ मिलाया। हालाँकि नीतीश कुमार ने अपनी महत्वाकांक्षा के टूटने के गम में भी एक सुखद अनुभूति इसके विकल्प के रूप में कर ली कि 15 बरस बाद आज भी बिहार में NDA उन्हीं को चेहरा मानता है। मतलब उनका बिहार NDA में कोई विकल्प नहीं।

वर्तमान में जो सामाजिक समीकरण हैं उसमें नीतीश आश्वस्त हैं कि फ़िलहाल तो तेजस्वी यादव उनके सामने कहीं नहीं टिक रहे। क्योंकि वो ना अब तक महागठबंधन के CM पद का सर्वमान्य चेहरा ही बन पाए हैं और न ही जो भी इधर-उधर बिखरे हुए सहयोगी है उनके साथ उनका तालमेल ही बन पाया है। इसके साथ ही सामंजस्य बैठाने की कोई जल्दबाज़ी भी नहीं दिखती है। इन सबका प्रमाण हर दिन मीडिया में परस्पर विरोधी बयानों में साफ़ दिखता है।

नीतीश की आगामी चुनाव में जो एक बड़ा सरदर्द हो सकता था वो दूसरे राज्यों से आये श्रमिकों के बीच असंतोष या रोज़गार कैसे मिले वो भी बीते सप्ताह एक हद तक खत्म हो गया जब प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने गरीब कल्याण रोज़गार अभियान कि शुरुआत कर दी। उसमें बिहार के 31 ज़िलों को शामिल किया गया है। देश में जिन 6 राज्यों को इस कार्यक्रम के लिए चुना गया हैं उसमें सर्वाधिक जिले बिहार से हैं।

ये बात अलग है कि कितने श्रमिकों को इसका लाभ मिलेगा। लेकिन इस योजना के बारे में दावा है कि इसमें काम ‘मिशन मोड’ में होना है। इस स्कीम के तहत श्रमिकों के खाते में पैसा सीधे उनके बैंक अकाउंट में जायेगा। जिससे एक बात सुनिश्चत है कि श्रमिकों के बीच NDA अपनी तमाम विफलताओं जैसे उनके लौटने के समय ट्रेन का किराया देने से इनकार करना या विशेष ट्रेन के आने पर नीतीश कुमार की रोक, की बहुत हद तक भरपायी करने की कोशिश हो गयी है।

कोरोना काल में नीतीश की विफलताओं का भी विपक्ष भुनाने मे विफ़ल रहा। जहां एक और नीतीश कुमार ने 90 दिन तक सार्वजनिक जगहों पर जाने से परहेज़ किया और घर से सरकार चलाई तो तेजस्वी यादव भी 50 दिन तक बाहर रहे और जब लौटे तो मीडिया से रूबरू हुए लेकिन श्रमिकों के सुध बुध लेने के बजाय उन्होंने गोपालगंज मार्च करने का ऐलान किया।

इस बीच RJD समर्थकों की हत्या हुई जिसमें JDU के एक विधायक अमरेन्द्र पांडेय पर आरोप लग रहा है। लेकिन यहां भी RJD के नेताओं का कहना है कि उनकी आक्रामकता इसलिए नहीं थी कि पांडेय वहां एक समांतर सरकार चलाते हैं बल्कि यादव जाति के लोगों के हत्या हुई इसलिए वो ज़्यादा उद्वेलित थे।

अगर उन्होंने गोपालगंज ज़िले में सत्तारूढ़ विधायक के समानांतर सरकार को मुद्दा बनाया होता तो उन्हें सभी वर्गों का समर्थन मिल सकता था लेकिन तेजस्वी और ना उनके सलाहकार फ़िलहाल नीतीश कुमार को घेरने में उतनी गंभीर दिखते हैं न ही उनमे ऐसी को इक्षाशक्ति ही दिखती है, यही साबित करता है कि नीतीश कुमार कि ही वापसी होगी।

जल जमाव का निरीक्षण करने नीतीश कुमार अपने अधिकारियों के साथ निकले तो उसी दिन तेजस्वी भी पटना के कुछ जल जमाव वाले इलाक़े में थे। लेकिन दोनो तस्वीर की तुलना करने से लगा कि तेजस्वी को अभी फ़िलहाल इंतज़ार करना होगा।

हालांकि नीतीश कुमार के शासन के 15 साल में जैसे उन्होंने बाढ़ से निबटने को राहत बांटने तक सीमित कर दिया हैं वैसे ही नगरों का विकास हो या खेल कूद या नये उद्योग धंधे उनके अपने विचार और रवैए से बिहार पिछड़ता ही चला गया।

लेकिन बिहार के लोगों की त्रासदी यह है कि उनके पास फ़िलहाल कोई राजनीतिक विकल्प है ही नहीं। तेजस्वी यादव के माता-पिता का 15 सालों का शासन एक बड़े तबके को अब भी याद है। ये ही शायद नीतीश कुमार के लिए सबसे बड़ा कवच भी है।

NDA में जहां नीतीश कुमार के सम्बंध अब राम विलास पासवान और उनकी पार्टी के अध्यक्ष और राजनीतिक उत्तराधिकारी चिराग़ पासवान से सहज नहीं है। इसलिए उनके राजनीतिक विकल्प के रूप में जीतन राम मांझी को फिर से घर वापसी की प्रक्रिया शुरू कर दी है। ये बात अलग है कि पासवान कहीं जाने वाले नहीं क्योंकि उन्हें भी एक राजनीतिक सच मालूम है कि लालू यादव के साथ जो 2009 का लोकसभा चुनाव और 2010 का विधानसभा चुनाव उन्होंने लड़ा था उसमें खाता तक नहीं खोल पाए थे। इसलिए वो भी NDA में ही बने रहेंगे।

लेकिन अब उनका पूरा परिवार लोकसभा में प्रवेश कर चुका है इसलिए हमेशा बयानों से परेशान करते रहेंगे। ये सच भी नीतीश जानते हैं इसलिए वो आप अपनी राजनीतिक बैठकों में राम विलास पासवान का नाम भी नहीं लेते हैं। दूसरी तरफ नीतीश कुमार की अपनी सरकार में सब कुछ ठीक नही है। उनकी सरकार में एक दफ़्तर नहीं है। जहां बिना घूस दिए कोई काम करा सके। राजधानी पटना में नीतीश कुमार के एक पुराने मित्र पत्रकार को अपने एक सम्बन्धी के तबादले के लिए स्वास्थ्यमंत्री की पैरवी के बावजूद घूस देना पड़ा।

जब पत्रकारों ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न तो बनाया तो मंत्री ने झेंप कर पैसे तो लौटवा दिये लेकिन उस दफ़्तर के किसी भी कर्मचारी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई और आप कह सकते हैं कि नीतीश ने भ्रष्टाचार के सामने घुटने टेक दिए हैं। क्योंकि उसी विभाग के ईमानदार प्रधान सचिव का तबादला मंत्री के ज़िद पर उन्होंने पिछले महीने किया था।

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