चिकित्सीय विकास अनुसंधान अन्वेषण की विजय गाथा के बावजूद मानसिक शारीरिक व्याधियों के उपनेता के अस्तित्व ने जब यह साबित कर दिया कि मनुष्य प्रकृति और प्राकृतिक नियमों से सुबह से शाम तक स्थापित कर ही स्वस्थ तन और स्वस्थ मन का निर्माण कर सकता है ।
5000 वर्ष पुरानी आयुर्वेद व प्राकृतिक चिकित्सा ने आरोप की व्यवस्था वाली आयुष प्रणाली ने अपनी वैश्विक महत्ता को स्वस्थ अर्पित कर दिया है। धनवंतरी चरक, शुखेण जैसे वैदों की परंपरा वाले प्राकृतिक पूजक और प्रकृति संरक्षक समाज की सनातन संस्कृति ने भारत भूमि पर भी आयुष की महत्ता को पुनः स्वीकार करते हुए 1 नवंबर 2014 को एक मंत्रालय का दर्जा प्रदान किया एवं सीएसआईआर सहित कई राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संस्था के साथ मिलकर तत्व संबंधी शोध अनुसंधान विकास एवं प्रचार-प्रसार की घोषणा की।
इसी क्रम में जब हमारा ध्यान वन भूमि एवं वनवासी बहुल झारखंड की ओर गया तो लगा कि आयुष चिकित्सा पद्धति व होड़ोपैथी तो यहां की स्वाभाविक पद्धति होने के कारण अपनी महत्ता स्थापित कर चुकी होगी लेकिन आयुष के प्रति लगातार शासन का व्यवहार यहां की संस्कृति को निराश किया है। यदि आम दिनों में आयुष चिकित्सकों की पेशेवर निष्ठा मेहनत और समर्पण को नजरअंदाज भी कर दें तो कोविड 19 के दौरान क्वॉरेंटाइन सेंटर,कंट्रोल रूम, आइसोलेशन वार्ड ,रैपिड रिस्पांस टीम ,फ्लाइंग स्क्वायड में आयुष चिकित्सकों का लगन सक्रियता और सहयोगात्मक रवैए को कम करके आंकना संभव प्रतीत नहीं होता है।
जिस खतरे के बीच जिस परिवेश में जिस परिश्रम से एमबीबीएस चिकित्सक की कठिन भुमिका है। उसी कठिन परिस्थितियों व खतरों में उसी परिवेश में उसी अथक परिश्रम से आयुष चिकित्सक बिना किसी ग्रेड वेतन के मात्र 23 हजार के मानदेय पर अपना समर्पण दिखा रहे हैं ।इनकी स्थाई नियुक्ति तक नहीं हो रही है जबकि लगभग 700स्वीकृत पद रिक्त हैं ।
ओपीडी, इमरजेंसी रात्रि ड्यूटी,मेला, मेडिकल कैंप आदि ऐसी कोई जगह नहीं है जहां आयुष चिकित्सक एमबीबीएस चिकित्सक की तरह अपनी भूमिका नहीं निभा रहे हैं । यहां तक कि स्कूल ,आंगनबाड़ी केंद्रों तक वे कर्तव्य से पीछे नहीं हट रहे है।
जबकि पड़ोसी राज्य बिहार ने अब आयुष चिकित्सकों को सम्मान जनक चिकित्सकों के समान वेतन भत्ता प्रदान कर दिया है। बदलते परिवेश को पहचानने की जरूरत है चिकित्सा के उन रूढ़ीवादी मानकों को बदलने की जरूरत है जो चिकित्सक का मतलब केवल एलोपैथी मानते हैं।
इस कठिन परिस्थिति में जब उनके भयावह महामारी के दौर में पूरा विश्व आयुष की ओर ही देख रहा है।
आज काढे की बात हो या योगा की
आर्सोनिक ऐल्बम हो या युनानी चिकित्सा विज्ञान
प्राकृतिक चिकित्सा की बात हो सभी
आयुष के प्राण इन्द्रियाँ है।
क्या आयुर्वेद सिर्फ काढें तक ही सीमित है?
आयुर्वेद कोरेना वायरस के विरुद्ध अभियान का सेनानायक बना हुआ है इम्यून सिस्टम को मजबूत करने की का जिम्मा भी आयुष ने हीं अपने पारंपरिक कंधों पर उठाया है। सरकार को चिकित्सा पद्धति के अपनी भेदभाव कार्य नीति में सुधार लाने की जरूरत है।
समान कार्य समान चुनौती और समान अपेक्षाओं के बावजूद भेदभाव पूर्ण वेतन भत्ता सुविधा ना तो नैतिक धरातल पर उचित है ना विधिक धरातल पर आत्मनिर्भरता के जिस मंत्रोच्चार के साथ हमने प्रथम पंचवर्षीय योजना की शुरुआत की थी आज को भीड़ ने हमें फिर उसी आत्मनिर्भरता की याद दिला दी है। और उसके लिए आवश्यक है कि इन देसी पद्धति देसी चिकित्सकों को प्रोत्साहन दिया जाए इसके लिए संभावनाओं और वृत्ति विकास से के द्वार खोले जाएं यह समय की मांग है कि आयुष चिकित्सकों को गरिमामय जीवन हेतु सम्मानजनक वेतन भत्ते प्राप्त हो अपनी आरोग्य पद्धति के माध्यम से इस महामारी के दौरान मानव जीवन की रक्षा हेतु उनके योगदान को देखते हुए झारखंड सरकार का कर्तव्य है कि रिक्त पदों पर नियुक्ति कर उन्हें एमबीबीएस चिकित्सकों की भांति 5400 ग्रेड पे प्रदत्त कर उनका ऋण चुकता करें।
साथ में झारखंड के आदिवासियों के पारंपरिक चिकित्सीय ज्ञान विज्ञान एवं
मैडिसिनल प्लांट के लिए भी अवसर के द्वार खोले।
याद रखे
प्रतिरोध क्षमता को बढ़ाने में आयुष से बेहतर विकल्प नहीं हो सकता है
लेखक के व्यक्तिगत विचार है
डा वेंकटेश कात्यायन पांडेय
एम ओ( आयुष)झारखण्ड
आयुर्वेदाचार्य